रात में तारों से लिए गए अधूरे शब्द।।
संघर्ष ए विक्रांत
एपिसोड - 1
कहानी में प्रयुक्त सभी पात्र और स्थान काल्पनिक है और इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है।
धन्यवाद।।
शाम का वक्त है। कुछ कुछ सूरज अभी नज़र आ रहा है। शहर के बाहर एक टूटी फूटी चाय की रेडी नजर आ रही है या फिर यूं कह लो की चाय का कोई छोटा सा ठेला है जिस पर इस वक्त एक आदमी जिसका नाम सूरज बाबू है अपने सर पर लाल मुक्का बांधकर सीना कसकर और छाती चौड़ी करके मर्द बना खड़ा है क्योंकि वो इस ठेले का मालिक है।
सूरज बाबू उम्र लगभग पिचेतर साल है। बार बार खांसते रहते हैं। खूब बीमार रहते हैं लेकिन खूब मर्द बने घूमते रहते हैं। आज भी उनकी आंखों में कई मलाल नजर आते हैं। सूरज बाबू का एक ही तकिया कलाम है की - " अपना धंधा सबसे चंगा ना लो और किसी से पंगा।"
ठेला एक कच्चे मकान के आगे लगा हुआ है। मकान तो नहीं कह सकते लेकिन एक टूटा हुआ , टूटी छत वाला कच्चा कमरा जरूर कह सकते हैं।
सूरज बाबू तेजी से इधर उधर नजर दौड़ाता जाता है और चिलाता है - " गरमा गर्म चाय, सूरज बाबू है बनाय, सबको है भाय, जिसको भी पीनी है अब वो जल्दी से आए, और चाय पी जाय।"
लेकिन कोई भी नहीं आता है। सूरज बाबू एक लंबी सांस भरते हुए फिर से बोलता है - " गरमा गर्म चाय, सूरज बाबू है बनाय, सबको है भाय, जिसको भी पीनी है अब वो जल्दी से आए, और चाय पी जाय। हां साथ में पैसे भी लाय।"
इस बार भी कोई नहीं आता है। सूरज बाबू फिर से चिलाने लगता है लेकिन वो बीच में ही जोर जोर से खांसने लगता है।
इतने में दूसरी और से एक लड़का तेजी से चला आ रहा है। फटे पुराने कपड़े हैं देखने में कोई छोटा भिखारी नजर आ रहा है। पैरों में टूटी हुई हवाई चप्पल पहन रखी है। गौर से देखने पर दिखाई पड़ता है की एक चपल को कसकर रस्सी से बांधा गया है ताकि वो फिर से टूट न पाए। सर नंगा है। आंखें गहरी काली, रंग हल्का गोरा है गोल मटोल सा चेहरा है। अगर वक्त ने रंग न बदले होते तो वो जरूर कोई महाराजा या शहजादा होता। उसका सर ऊपर है मानो वो किसी के सामने झुकेगा नहीं। उम्र भी कुछ खास नज़र नहीं आ रही है। सिर्फ बारह तेरह साल का है। बिल्कुल मासूम सा भोला चेहरा है लेकिन दिल में जुनून और संघर्ष नज़र आ रहा है जिसे कोई देखते ही समझ जाए।
वो लड़का धीरे धीरे चलकर सूरज बाबू के पास आया और सूरज बाबू के पांव छुते हुए बोला - " नमस्ते बाबूजी। धन्य हो गया जो आज आपके दर्शन हो गए।"
इतनी कम उम्र में इतने अच्छे संस्कार देखकर सूरज बाबू कुछ देर के लिए अपलक सा रह गया।
सूरज बाबू खांसते हुए बोला - " क्या चाहिए बिटुबा तुमको, गरमा गर्म चाय एक कप में डालें क्या?"
लड़का अपने चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट लाते हुए बोला - " ना बाबूजी हमे चाय नहीं चाहिए हमें तो काम चाहिए। अगर आप हमें कोई काम दे देंगे तो हमारा काम हो जायेगा।"
सूरज बाबू इतनी कम उम्र के बच्चे के मुंह से ऐसी बातें सुनकर अचंभे में आ गया और उसे लगा की बच्चा है यूंही मजाक कर रहा है तो सूरज बाबू भी हंसते हुए बोला - " बिटबा ये उमर तो पढ़ने की है काम करने की नहीं है। जाकर पढाई करो। अगर चाय पीनी है तो बताने का मैं अभी चाय बनाने का।"
ये सुनकर वो लड़का अपना सर नीचे झुकाकर खड़ा हो गया और रात के अंधेरे में जमीन पर चल रहे जीवों को एकटक देखने लगा और फिर बोला - " लेकिन बाबूजी हमें काम चाहिए। मुझे अपने स्कूल की फीस जमा करानी है। पूरी दो सो रुपया फीस है। अगर भीख मांगते घूमेंगे तो चार महीने तक पैसा वसूल न होगा और लोग हमें भिखारी बोलकर खूब चिड़ाएंगे। जब इज्जत न रहेगी तब पढ़कर मैं कौनसा घास उखाड़ लूंगा।"
सूरज बाबू बच्चे की बातें सुनकर हक्का बक्का सा रह गया। उसे भी अब ये लगने लगा की बच्चा मजाक नहीं कर रहा है बल्कि सच बोल रहा है।
सूरज बाबू - " लेकिन बीटूबा तूं होता कौन? और कहां से आता? तेरा माता पिता पैसा नहीं कमाता जो तू कमाने की फिराक में घूमता फिरता।"
लड़के ने भावुक होते हुए सड़क किनारे खड़े खंभे की लाइट की और देखते हुए कहा - " मेरा नाम विक्रांत है।"
इतना कहकर बच्चे ने अपना सर ऊपर उठाया और मुस्कुराते हुए बोला - " विक्रांत यानी बहादुर, वीर ,तेजस्वी। लेकिन महादेवी वर्मा कहती हैं की हर व्यक्ति को अपने नाम का विरोधावास लेकर जीना पड़ता है। मगर मैं उनकी बात से सहमत नहीं हूं। "हर" की जगह उन्हें "कई" शब्द का प्रयोग करना चाहिए था।"
सूरज बाबू विक्रांत की इन बातों को समझने में खुद असमर्थ मान रहा था। विक्रांत की इन बातों को तो शायद कोई स्वावलंबी प्रतिभाशाली व्यक्ति ही समझ सकता था जो खिताब किसी समय में अंबेडकर जी के पास था।
सूरज बाबू ने कहा - " लेकिन बिटबा तेरे मां बाप कहां रहता?"
विक्रांत ने अपनी नजरें नीचे करते हुए कहा - " मैं अपने घर से भागकर आया हूं। वहां कोई नहीं था मेरा।"
सूरज बाबू फिर हिचकिचाते हुए बोला - " तेरा मां बाप कहां गया?"
विक्रांत अपनी आंखें मसलते हुए - " पता नहीं। लेकिन लोग कहते हैं की वो वहां चले गए जहां भगवान रहते हैं।"
सूरज बाबू बच्चे की बातें सुनकर भावुक हो गया और विक्रांत के सर पर हाथ रखते हुए बोला - " तो तूं घर से क्यों भागा?"
ये सुनकर विक्रांत की आंखों से आंसू छलक गए और वो सिसकी लेते हुए बोला - " चाचा चाची बहुत मारते थे। घर का सारा काम करवाते थे। कहते थे की तेरे मां बाप के साथ कंभखत तूं भी मर जाता तो हमें शांति मिल जाती। एक दिन उनके अत्याचारों से तंग होकर मैं घर से भाग निकला और आपके पड़ोसी सहर फिरोजपुर में आ गया। लोगों के घरों में खूब कपड़े धोए , पशु भी संभाले और भी सारे काम किए और आपके बगल वाले स्कूल में दाखला ले लिया। आठवीं कक्षा में पढ़ता हूं बाबू जी। लेकिन इस बार कोई खास काम हाथ न लगा। चार सो रुपया फीस है। मैने जैसे तैसे करके दो सो रुपया फीस जमा करा दी है अब दो सो और चाहिए। लोग ढाके डालकर भी पैसे कमाते हैं लेकिन मैं उनसा नहीं हूं। मैं मेहनत का खाता और मेहनत का कमाता तभी मैं विक्रांत कहलाता। आज बाबूजी मैं आपके शहर में चक्कर काटने आ गया था। सोचा की इसी बहाने कोई काम हाथ लग जाए। इतने में आपकी आवाज कानों में पड़ी तो इस और आ गया बाबूजी। अब बताइए आप मुझे काम देंगे क्या?"
बच्चे की बातों को सुनकर सूरज बाबू के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई और वो विक्रांत के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला - " तूं क्या काम करेगा बीटूबा।"
विक्रांत अपना सर ऊपर करके बोला - " आप जो कहेंगे वो करूंगा। मैं चुटकियों में चाय बना दूंगा। अदरक वाली, लॉन्ग वाली जो कोई भी बनानी हो। जब जरूरत पड़ी तब चुटकियों में कपड़ा उठा सफाई कर डालूंगा। चाय पीने के लिए लोगों को बुलाऊंगा। जितनी जोर से बोलना होगा उतनी जोर से चिलाऊंगा। वो भी बिल्कुल आपकी तरह - " गरमा गर्म चाय , विक्रांत बाबू है बनाय, पीने के लिए जल्दी से आय और पैसा साथ में लाय। "
बच्चे की बातें सुनकर सूरज बाबू की हंसी फूट पड़ी और वो विक्रांत के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला - " मैं तुम्हे अपने साथ काम कर रख लूंगा। महीने के पूरे तीन सो रुपया दूंगा। तुम्हारी फीस भी पूरी हो जायेगी और सो रुपया बच भी जाएगा।"
विक्रांत खुशी से बोला - " वो सो रुपया मैं बचत करूंगा और गुलक में डालूंगा। जब जरूरत पड़ी तब वो पैसे काम आयेंगे। बाबू जी आप यहीं रुकिए मैं मेरी किताबें और थैला लेकर आता हूं।"
सूरज बाबू - " लेकिन बिटबा तुम्हारी किताबें कहां होती?"
विक्रांत रुकते हुए - " बाबू जी मैं फिरोजपुर में एक सड़क के किनारे एक कोने में रहता हूं। मेरे पास एक कंबल है उसे मैं ऊपर ले लेता हूं। जब जरूरत पड़े तो नीचे बिछाकर सो जाता हूं। वही मेरा पथ्य है।"
इतना कहकर विक्रांत तेजी से भागता हुआ बोला - " बाबूजी मैं अभी अपना बोरिया बिस्तर लेकर आता हूं।"
सूरज बाबू बोला - " बिटबा अब रात बहुत हो गई कल सुबह जाकर ले आना।"
लेकिन विक्रांत के पैरों में तो जैसे पर लग गए थे उसने सूरज बाबू की बात पर कोई ध्यान न दिया और तेजी से सूरज बाबू की आंखों से ओझल हो गया।
बच्चे की बातें सुनकर सूरज बाबू अभी तक अचंभे में था और सूरज बाबू धड़ाम से कुर्सी पर बैठ गया और अपने आप से बोल पड़ा - "न जाने आज देश में कितने विक्रांत इसी तरह घूम रहे होंगे। कोई खबर नहीं।"
इतना कहकर सूरज बाबू की आंखों से आंसू जमीन पर लुढ़क गए।
सतनाम वाहेगुरु।।