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गुलाबो - भाग 17

भाग 17

जितने भी दिन रज्जो गांव में रही कोई भी दिन बिना तानों के नही बीता उसका। गांव या रिश्तेदारी से कोई भी अगर मिलने आ जाता तो जगत रानी का रोना शुरू हो जाता। दबे स्वर में ही सही पर वो रज्जो को बांझ कहने लगी। वही गुलाबो की सारी गलतियां बस पोते को दे देने से माफ हो गई थी।
अब रज्जो भी घर ज्यादा दिन नहीं रुकना चाहती थी। बात बात पर अपमान से अच्छा था की वो लखीमपुर ही रहती। रज्जो भले ही जय से कुछ नही कहती थी। पर जय भी कोई अंधा, बहरा तो था नहीं। उसे भी सब कुछ दिखाई देता था। अम्मा कैसे रज्जो को अपमानित करती थीं…? पर अम्मा के विष भरे बोल को रोकना उसके वश की बात भी नही थी। उसे यहां रुक कर रज्जो को अपमानित होने देने से अच्छा यही लगा की वो उसे लेकर चला जाए। जब गलत होते देख कर विरोध करना संभव ना हो सके तो वहां से हट ही जाओ। यही बेहतर विकल्प लगा जय को। अम्मा से काम के नुकसान का बहाना बना जय रज्जो को लेकर लखीमपुर चला आया। अम्मा तो पता नही कैसे इतना बदल गई थी की उसने एक बार भी जय को रोकने की कोशिश नही की। बच्चा ना होने की वजह से बहू ही उसे दोषी नजर आती थी। और बेटा बच्चा ना होने के बावजूद बहु की फिक्र करता, ख्याल रखता तो बेटा भी गलत ही नज़र आता उसे।
जय और रज्जो वापस लखीमपुर आ गए। कुछ दिन बाद विश्वनाथ जी भी आ गए। जिंदगी फिर पुराने ढर्रे पर चलने लगी। दिन ब दिन रज्जो का पूजा पाठ बढ़ता ही जा रहा था। अब उसे बाद ईश्वर का ही आसरा था।
गुलाबो की दूसरी संतान बेटी हुई। रज्जो और जय बच्ची और गुलाबो को देखने गए। रज्जो सिर्फ और सिर्फ अपने कर्म पर विश्वास रखती थी। उसने कई सारी छोटी छोटी फ्रॉक, झबला अपने हाथो से सिल कर ले गई थी।
पर जब आंखो पर मैल जमा तो सब मैला ही दिखता है। अब जगत रानी को उलाहने का नया बहाना मिल गया था। उसने फ्रॉक बच्चे के जन्म के पहले सिला इस कारण ही बेटी हुई। वरना इस बार भी गुलाबो को बेटा ही होता।
रज्जो सदा की भांति बस चुप ही रही। चार दिन रुक कर वो और जय फिर वापस आ गए। अब विश्वनाथ जी मैनेजर थे तो उन्हे छुट्टी भी काफी मिल जाती थी। अब वो एक आध हफ्ते छोड़ कर घर चले जाते। कुछ बच्चों का मोह, कुछ घर का मोह उन्हे खींच ले जाता। अपने जीवन का लंबा समय उन्होंने घर परिवार के बिना बिताया था। अब जब की जीवन की संध्या काल में उन्हे मौका मिला था घर के पास रहने का तो वो उसका पूरा फायदा उठाना चाहते थे। वो अकेले ही घर आ जाते थे।
समय तेजी से बीत रहा था। चार साल में गुलाबो के तीन बच्चे हो गए। तीसरी संतान भी गुलाबो की बेटी ही थी। अब उसने शहर में रहने का ख्याल दिल से निकाल दिया था। पर जिठानी रज्जो के प्रति जो एक दुर्भावना का एक बीज उसके दिल में पड़ गया था। अब वो एक वृक्ष का रूप ले चुका था। रज्जो चार दिन के लिए भी आती तो उससे सहन नही होता। उनके बीच का वो प्यारा रिश्ता समाप्त सा ही हो गया था। पर सिर्फ गुलाबो की ओर से रज्जो के लिए वो आज भी उसकी नादान, अल्लहड़ छोटी ही थी। रज्जो गुलाबो की हर बात को उसकी नादानी समझ कर माफ कर देती। रज्जो को लगता बच्ची है, नाराज है, कुछ समय बाद वो मान जायेगी। पर वो समय कब आएगा इसका कुछ पता नही था।
सब कुछ शुभ हो रहा था। जगत रानी ने सोचा घर की परंपरा के अनुसार बेटा हो जाने के कुछ समय बाद ही मां को शीतला सप्तमी का व्रत करना होता है। और फिर सात सप्तमी का व्रत पूरा होने के बाद आषाढ़ महीने की सप्तमी को शीतला माता को बरसोठा (बासी पूरी हलवे का) भोग लगाया जाता है। इसके लिए तड़के सुबह तीन बजे ही उठा जाता है और भोग बना कर महारानी मां के थान ( मंदिर) पर जा कर सूर्योदय के पहले पहले भोग लगा कर पूजा अर्चना की जाती है।
अब वो अपने खानदान की परंपरा के अनुसार सारे रीति रिवाज गुलाबो को भी सिखा दे।
इस लिए गुलाबो को सप्तमी का व्रत करवा दिया। आषाढ़ के महीने में पूजा होनी थी। जगत रानी ने विश्वनाथ जी को भी पूजा में समलित होने को कहा था। पूजा से एक दिन पहले वो पत्नी की बात को मान आने की तैयारी करने लगे।
जगत रानी ने जय और रज्जो को आने की नही बोला था। विश्वनाथ जी भी पत्नी की सारे व्यवहार से वाकिफ थे। पर घर की शांति बनाए रखने के लिए मूक दर्शक ही बने रहना उचित समझते थे।
उन्हे शीतला माता की कृपा पर बड़ा भरोसा था। वो जय और रज्जो से बोले, "तुम लोग भी क्यों नही चलते घर पूजा में शामिल होने..? मुझे पूरा विश्वास है शीतला माता बहू की गोद जरूर भरेंगीं।"
ससुर की बात सुन रज्जो के मन में आशा की किरण ने जन्म ले लिया। जय तो नही चाहता था की वो और रज्जो घर जाए और फिर रज्जो अम्मा के कटाक्ष से आहत हो। पर रज्जो का मन देख उसका दिल रखने के लिए तैयार हो गया।
विश्वनाथ जी बहू और बेटे को साथ ले घर पहुंच गए। रज्जो को देख सास जगत रानी को कोई प्रसन्नता नही हुई। बल्कि ये लगा की शुभ काम में इसका क्या काम..?
जगत रानी ने पूजा वाले दिन सुबह तीन बजे ही गुलाबो को जगा दिया भोग बनाने को। पर उसके तीन तीन बच्चे थे, सभी छोटे छोटे। उसके नहा कर रसोई में जाते ही रोने लगे। रज्जो भी उठ कर नहा चुकी थी। बच्चो को चुप कराने के लिए गुलाबो रसोई से बाहर निकली तो भोग जल न जाए इस लिए रज्जो रसोई में चली गई। रज्जो के रसोई में जाते ही गुलाबो निश्चिंत हो गई और बच्चों को भी मंदिर जाने के लिए तैयार करने लगी। रज्जो ने भोग बना कर सारी तैयारी कर ली जाने की। सूर्य की हल्की लालिमा आसमान में फैलने ही वाली थी। जगत रानी जोर से चिल्लाई, "गुलाबो मंदिर चलेगी या दोपहर को ही जायेगी…? सुबह होने वाली है और तेरी तैयारी ही नही हो पाई…?"
गुलाबो श्याम और रिद्धि को बाहर दादी के भेज कर खुद सिद्धि को गोद में लेकर बाहर आई।
जगत रानी ने सिद्धि को गुलाबो से अपनी गोद में ले लिया और बोली, "भोग की थाली कहां है..?"
तभी देखा रज्जो भोग की थाली ले कर खड़ी है।
उसे देखते ही जगत रानी नाराज हो गई और बोली, क्यों री गुलाबो तेरे हाथ टूट गए है..? जो इस बांझ के हाथों में पूजा की थाली दे दी..?"

अगले भाग मे पढ़े क्या रज्जो सब के साथ पूजा करने मंदिर जा पाई..? क्या जगत रानी का खुद को बांझ खा जाना रज्जो बर्दाश्त कर पाई..? पढ़े अगले भाग में।

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