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आआइइ

1.
उसने कहा,
"हृदय में जब पीड़ा उठे
और आँसू सूख जाएँ..
तब देखना..कविता बनेगी..।
ऐसे लिखने बैठोगी..
तो नहीं लिख पाओगी..।
तो अपने जीवन में
भाव उत्पन्न करो..।
पीड़ा लाओ..।
आक्रोश जगाओ..।"

मैंने पूछा,
कैसे..?

वह बोला,
बह्मांड में..
किसी के भी.. प्रेम में पड़ जाओ..
पीड़ा स्वयं ही समझ आ जाएगी।
आक्रोश स्वयं ही उत्पन्न हो जाएगा ।

मेरे पास...
अब कोई...
प्रश्न ही नहीं बचा था।
शायद...
मैं भयभीत थी,
प्रेम से..
आक्रोश से...
पीड़ा से...

2.
तुम अपने प्रेम के उन्माद से,
क्या सम्भल पाओगे?

मैं तुम्हें ना मिलूँ, दैहिक रुप से
क्या तब भी मुझसे प्रेम कर पाओगे?

मेरा समर्पण तो ऐसा ही रहा सदा से
क्या मुझमें समर्पित ऐसे हो पाओगे?

3.
मैं जानती हूं मेरा ये निस्वार्थ प्रेम तुम्हारी समझ से बाहर है,
क्योंकि प्रेम कभी सरल नही होता ...

और कठिनाइयो के उस पार जाकर प्रेम के उस
अद्वितीय रूप से सामना करना तुम्हारे बस की बात है ही नही...

इतना आसान होता यदि ये सब तो फिर प्रेम इतना पवित्र इतना मनमोहक ,इतना कठिन थोड़े ना रहता ,
व्याकुलता,अकुलाहट,क्रोध,त्याग , निष्ठा एवम समर्पण इन सबका मिला जुला स्वरूप ही तो प्रेम की पूर्ति करता है,

हम नहीं है सक्षम ये बताने में कि प्रेम को आखिर कैसे परिभाषित किया जाए जो सबको आसानी से समझ आ जाए,
और जब हम ही विफल हैं जिसने किया है तुमसे अथाह प्रेम बिना किसी स्वार्थ के तो बताओ ....
क्या तुम..तुम समझ पाओगे इस प्रेम को कभी ,

क्या तुम कभी इसकी गहराई में खुद को समर्पित कर पाओगे ,

नही तुम नही सह पाओगे विरह की वेदना कभी भी,
तुम व्याकुलता से बहुत जल्दी भयभीत हो जाओगे ,तुम खो दोगे अपना नियंत्रण खुद पर से शीघ्र ही तुम नही अपने क्रोध को पी पाओगे ....
छोड़ो ये प्रेम नही हैं तुम्हारे बस का ,
तुम इस प्रेम को कभी भी न समझ पाओगे ...

4.
सुनो ना.....
मैं अक्सर तुम्हारे प्रेम को,
अपने शब्दों में पिरो लेती हूं,
तुम जो नही कहते ,
मैं उसकी भी कल्पना कर लेती हूं,
मैं तुम्हारे चेहरे से ,
तुम्हारे मन के भावों को पढ़ लेती हूं,
फिर उन्हे ढाल लेती हूं,
अपने शब्दों के सांचे में,
अक्सर तुम्हारी आंखों में,
देखती हूं ,
अपना वो स्वरूप,
जो कभी मुझे आईने में भी
दिखाई नही देता,
और न जाने क्यूं मुझे,
अपना वो स्वरूप
इतना मोहक लगता है कि,
मानो संसार में मुझसे ,
भाग्यशाली कोई है ही नही
कभी लिखते लिखते,
सोच में गिर जाती कि,
कुछ न होते हुए भी ,
मुझे कितना अनमोल बना देता है,
तुम्हारा ये निश्चल प्रेम....

5.
तुमसे प्रेम होना
मानो मन का वृंदावन हो जाना

तुमसे एहसासों का जुड़ जाना
मानो रूह का बनारस हो जाना

तुमसे मौन का मुखरित होना
मानो अल्फाजों का काशीमय हो जाना

तुमसे जज़्बातों का मिलना
मानो तन का मणिकर्णिका हो जाना....

6.
तुम्हारी प्यारी सी हँसी
मेरी हर परेशानी का इलाज बन जाती है प्रिए

तुम्हारी ढेर सारी बातें
मेरी ख़ामोशी को भी मात दे जाती हैं

तुम्हारी हर परवाह
मेरी ख़ुद की अहमियत बता जाती है

तुम्हारी बेइंतहा मोहब्बत
मेरी ज़िंदगी को ख़ूबसूरत
मुक़ाम दे जाती है...

7.
सुनो ना ....
जो भागे प्रेम के पीछे
वो रह गए तन्हा,
उन्हे नही मिला प्रेम
जिन्होंने खाई ठोकरे,
जो एक आश में बैठे रहें
तमाम दिन और रात
उन्हे नही मिला प्रेम,
जिन्होंने देखे सपने
कई जन्म साथ रहने के
एक साथ और तमाम
उम्र
उन्हे प्रेम मिला ही नहीं
प्रेम उन्हे मिला
जिन्हें नही रही
उसकी कद्र
प्रेम उन्हे मिला
जिन्हें कभी प्रेम हुआ ही नहीं...

8.
सुनो
तुम्हें पता है
तुम्हारे बात करने भर से
शांत हो जाता है
अंतस का कोलाहल
क्या इसी को कहते हैं प्रेम?
शायद कहते होंगे
कहीं पढ़ा था
गर किसी की आवाज सुन
मन की उथल पुथल
शांत होने लगे
तो समझना वो ही
तुम्हारा आत्मिक साथी है
उसे कभी खोना नहीं
दूर जाए भी तो
पास बुलाना बार बार
तुम्हारे साथ हमें ऐसा ही
होता है महसूस
जैसे कोई मल्हार गूंज
उठी हो हृदय में
जैसे जल तरंग सी हिलोरें
इसीलिये हम कहते हैं
ये प्रेम अलग है
जो रहने वाला है
युगों युगों तक...

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