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आज संस्थान का वातावरण कितना खुला-खिला था सिवाय मेरे दिल के!सारे संस्थान में गहमा-गहमी और लोगों के हाथों-पैरों में बिजलियाँ और चेहरों पर मुस्कान ! अम्मा की इच्छा थी कि उनकी बेटी कुछ तो सजे सँवरे लेकिन मैं अपने मन की टूट-फूट को कैसे रफ़ू करती भला ! जब से उत्पल के करीब हुई थी मैं अपने आपको आईने में कुछ अधिक ही निहारने लगी थी| मैं सचमुच सुंदर थी ! मुझे महसूस होने लगा था और चेहरे की ललाई स्वाभाविक रूप से सबको दिखाई देने लगी थी| जब अम्मा-पापा मेरे खिले चेहरे को लाड़ से देखते, मैं और भी सकुचाने लगती| लेकिन मेरे जीवन में प्रकाश बनकर छाने वाले को तो मैंने अपने आप ही दड़बे में बंद कर दिया था| मेरे वश में साहस करना था ही नहीं फिर?
ये फिर क्या हुआ ?जो बोओगे, वही तो काटोगे| मैंने प्यार करने वाले सदाबहार उत्पल के मन में दूरी बोई थी और एक ठूंठ के साथ गठबंधन करने का फैसला कर लिया था तो मुझे क्या मिलता?वही न जो मिल रहा था| बहुत कुछ सोच-विचार और न जाने किस जादू के वशीभूत होकर अम्मा-पापा भी तो मानसिक रूप से तैयार ही हो चुके थे| भाई, भाभी को तो कुछ समझ में आया ही नहीं था और वे मेरी शहनाई बजवाने में इतने मशगूल थे किए उन्हें मेरे भीतर पसरा हुआ सपाट, सन्नाटा महसूस ही नहीं हो रहा था| बस, पैसे लुटा रहे थे मेरे लिए और मैं मन ही मन कुढ़ रही थी| सोच भी रही थी कि एक साड़ी में मुझे मांगने वाली प्रमेश की दीदी अब तक न जाने भाई-भाभी के कितना चूना लगा चुकी थीं| माना, भाई मेरे लिए बहुत उत्साहित था, वह दोनों भाई-बहन तो मना कर सकते थे लेकिन वे कुछ ऐसी बातें बनाकर भाई के सामने रखते कि उसे लगता कि जब वह कर सकता है तो क्यों न करे?
पहले कई बार शीला दीदी ने मुझसे बात करने की कोशिश भी की थी लेकिन उनके मुँह से अम्मा की मानसिक व्यथा सुनकर मैं उनसे बात करने में हिचक गई थी| अब कोई लाभ नहीं था और जहाँ तक मैं समझी थी सभी ने इस बात को स्वीकार कर लिया था कि अब देर हो चुकी थी| अब तो शादी करने के अलावा और कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था| अगर अब शादी रोकी गई तब तो अम्मा-पापा की और भी बदनामी ही होने वाली थी| समाज छोड़ता थोड़े ही है किसी को?वह बात और है कि कुछ दिनों के बाद कोई दूसरी कहानी उजागर होती है और समाज पुरानी को भूलकर नई कहानी, किस्से का मज़ा लेने लगता है| मैंने इन पलों में भी न जाने कितनी बार सोच था कि एक ही बातथी, अगर उत्पल को समर्पित हो जाती तब भी बात कुछ दिनों के लिए ही फैलती और कुछ दिनों में उस पर दूसरी बात का आवरण पड़ जाता|
रजिस्टर मैरेज का दिन आ चुका था| संस्थान से अम्मा-पापा, भाई-भाभी के साथ मुझे रजिस्ट्रार ऑफ़िस पहुँचना था| प्रमेश और उनकी दीदी सीधे वहीं पहुँचने वाले थे| अम्मा ने प्रमेश की दीदी से कई दिनों पहले कहा था कि कोई तो होना चाहिए शादी में वरना शादी जैसी तो लगेगी ही नहीं| उन्होंने प्रमेश की दीदी को यह भी बताया था को हमारी अमी यानि मैं इतने बड़े संस्थान में रहने की आदी है, उसके चारों ओर कोई न कोई घूमता रहता है, उसने कभी अकेलापन नहीं झेला, यहाँ वह कैसे मन लगाएगी?
“जब शादी हो जाता है, प्यार मिलता है, सबका मन लग जाता है---”उन्होंने अम्मा से कहा था|
“फिर, इनको तो कितना दिन खाली रहना है, संस्थान का चार्ज तो अमी के पास रहना है| ”अम्मा चुप हो गई थीं| कुछ था ही नहीं कहने के लिए—
“दीदी ! आपके लिए---”रजिस्ट्रार ऑफ़िस में जाने से पहले डॉली भागी हुई आई थी और बड़ी खूबसूरत, जामदानी साड़ी और बिलकुल ताज़ा गजरा लेकर प्रगट हो गई थी|
“ये कहाँ से ले आई और इस पर क्या किया तुमने डॉली?” मैं चौंक उठी थी| जामदानी कोई ऐसी, वैसी हल्की-फुल्की चीज़ तो होती नहीं है और उस पर क्या काम था!इतनी मंहगी साड़ी!वैसे मेरे पास स्टॉक में कई जामदानी साड़ियाँ थीं और वह सारी अम्मा की करामात होती थी | कौनसा ऐसा राज्य नहीं था जिसकी वेराइटी मेरे कपबोर्ड की शोभा न हो | मैं कहाँ पहनती थी और मुझे दुख भी होता था कि बिना पहने ही कई मंहगी साड़ियाँ मैं डान्स प्रोग्राम की पोशाक बनाने के लिए रतनी को दे देती थी| मुझे अच्छा नहीं लगता था और अम्मा से कितनी बार मना करती रहती थी लेकिन अम्मा तो अम्मा थीं |
बीच के ही किन्ही दिनों में कभी अम्मा प्रमेश की दीदी से बात कर बैठी होंगी कि इतने मन से मेरे लिए कपड़े बनवाती हैं लेकिन उनकी लड़की को तो हाथ ही लगाने नहीं होते| बस, देखकर खुश हो जाएगी और फिर किसी कार्यक्रम में ज़बरदस्ती विनोदिनी से कहकर मुझे पहनवा देगी|
“शादी हो जाएगी तो सब सजना का शौक होगा---”प्रमेश की दीदी ने कितने हल्के में अम्मा को लिया था| बस, उन्हें आफ़त थी कि किसी प्रकार उनके प्रमेश की शादी हो जाए|
शादी के लिए अम्मा ने हाथ करधे की प्योर सिल्क की ऐसी सूफियानी साड़ी मेरे लिए बुनवाई थी कि मैं उसे देखकर खुश तो हो ही गई थी, जैसे पगला गई थी| अम्मा ने बनारस से कारीगरों को बुलवाकर रतनी की देख रेख में साड़ी बुनवाई थी और मुझे गंध तक न आने दी थी| मेरी अम्मा भी कमाल ! अचानक मेरे चेहरे पर फीकी सी मुस्कान तैर गई|
“क्या हुआ दीदी? आपको पसंद आई? इसे पहनिए न और देखिए मैं आपके लिए अपने हाथों से गजरा बनाकर लाई हूँ| ” उसने बड़े उत्साह से कहा|
“बेटा!डॉली, मैं कहाँ लगाती हूँ गजरा---?” मैंने उसे प्यार करते हुए कहा|
“आज तो लगाना चाहिए न, दिस इज़ स्पेशल डे ---”उसने हँसकर कहा| कितना बदलाव आ गया था अब दिव्य और डॉली में!मुझे बहुत अच्छा लगता था| जगन के सामने पिता होते हुए भी ये बच्चे अनाथ से लगते, बेचारे, सहमे हुए और अब दूसरे पिता के द्वारा इनकी सूखी जड़ों को जो खाद-पानी दिया जा रहा था, कैसे निखार आ गया था इनमें !जैसे धूल भरे हुए पत्तों पर बरसात की टप टप यानि की बूंद बूंद से पत्ता पत्ता हरा हो जाता है|
‘पत्ता-पत्ता क्यों डरा होता है, पेड़ का खून हर होता है| ”मुझे उत्पल की लिखी हुई एक खूबसूरत गज़ल की याद आ गई थी जो वह कई बार मुझे सुनाता था| यानि कोई भी बात हो या न हो उसका दिल के द्वार में प्रवेश करना लाज़मी था|
“कहाँ हो तुम? आई बैडली नीड़ यू---“मेरे मुँह से अचानक निकले अस्फुट शब्दों को शायद आधा पकड़ पाई डॉली|
“क्या हुआ दीदी?आर यू ओके ?”उसने तुरत मुझसे पूछा |
बेचारी बच्ची मेरे लिए इतना कुछ लाई थी और मैं उसकी प्रशंसा भी नहीं कर पा रही थी| खुद पर अफसोस हुआ मुझे|
“अरे ! कुछ नहीं डॉली बेटा—बहुत सुंदर है| इतना एक्सपेन्स कहाँ से करके आ गई?यह कोई छोटी चीज़ नहीं है?”सच कहूँ तो मुझे चिंता भी हुई|
“दीदी ! चिंता मत करिए। बड़ी समझदार हो गई है आपकी डॉली---”मेरे कमरे का दरवाज़ा खुला था और जीवन में पहली बार कोई मेरे कमरे में बिना नॉक किए आया था| ये डॉली जब आई होगी तब दरवाज़ा खुला रह गया होगा| मैंने सोचा, वैसे भी मुझे इन लोगों को न तो कभी कुछ समझने की ज़रूरत महसूस हुई थी और न ही कुछ कहने की !
“सॉरी दीदी ! दरवाज़ा खुला था आपका और नॉक मैंने जानबूझकर नहीं किया---”
“अरे ! कोई बात नहीं रतनी---”रतनी दरवाज़ा बंद करके आई थी, मेरी दृष्टि उस ओर उठ गई थी|
“ये क्या पहनकर खड़ी हैं ?”रतनी को मुझ पर नाराज़ होने का अधिकार था|
“ठीक तो है---”मैंने अपनी प्योर शिफॉन की सी-ग्रीन साड़ी पर हाथ फिराते हुए कहा| यहीं तक तो जाना है|
“आपको एक बात बताऊँ?यह जामदानी आपकी डॉली की अपनी पसंद है और जो यू.के में इसे पाउंड्स में हर दिन के पैसे मिलते थे उसमें से बचाकर इसने आपको गिफ़्ट देने के लिए संभालकर रखे थे| हम सबको तो ऐसी चीजें खरीदने का सलीका कहाँ है, मैडम से ही मँगवाई है इसने| अभी तो उन्हें पूरे पैसे भी नहीं दिए इसने पर वायदा किया है कि अपने प्रोग्राम से मिलने वाले पैसे देकर उन्हें पूरे पैसे देगी| ”रतनी के चेहरे पर उत्साह और गर्व दोनों छलके पड़ रहे थे| जो भी हो, शादी तो हो ही रही थी संस्थान की लाड़ली की !
मेरी आँखों में आँसु भर आए, मैंने डॉली को अपने गले से लगा लिया|
“मैडम ने जल्दी बुलाया है आपको, सब तैयार हैं| प्रमेश जी की दीदी के फोन्स कई बार आ चुके कि ठीक समय पर पहुँच जाएँ| आप प्लीज़ जल्दी से यह पहन लीजिए—”
उन दोनों माँ बेटी के सामने मेरी एक न चली और मुझे वह साड़ी पहननी पड़ी और डॉली ने मुझे बिठाकर अपने हाथों से गजरा भी मेरे बालों में अटका दिया|
“अमी ! अभी से ही इतने नखरे---”बोलते हुए भई अमोल और एमीना कमरे का दरवाज़ा ठेलकर अंदर आ गए|
“आहा ! गजरा !! सो ब्यूटीफुल डार्लिंग सिस---”भई ने लाड़ में आकर मुझे अपने गले से चिपका लिया|
“अम्मा-पापा आर वेटिंग यार, अब चल भी----”उसने जैसे मुझे रेल का इंजन बना लिया जैसे हम बचपन में किया करते थे और कमरे की तरफ़ ले चला| पीछे-पीछे सब रेल के डिब्बे बनकर दरवाज़े की ओर बढ़ रहे थे| मुझे हँसी भी आ रही थी और रोना भी|
“सच बता, क्यों इतनी परेशान है?”बाहर निकलकर जैसे ही उसने मुझे ध्यान से देखा, उसे महसूस हुआ कि कुछ तो गड़बड़ है|
“जल्दी आओ, या मैं आऊँ अपनी लाड़ली को लेने---?”अम्मा का फ़ोन था भाई पर|
“कमिंग अम्मा---”
उसने जो पूछा था, वह बात बीच में ही अटकी रह गई और मेरे मन में एक लंबी साँस उभरी जो पीड़ा से भरी थी, उसमें यह बात भी शामिल थी कि भाई ने आज मेरी मायूसी महसूस की थी|
“क्या ये बहुत जल्दी नहीं है भाई ?”मेरा मन हुआ कि पूछूँ लेकिन----कोई लाभ था क्या?
Special Note : Pranava Bharti ji is unavailable to write due to health condition, she will resume to write by April 2024