प्रेम गली अति साँकरी - 119 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 119

(अपने प्रिय पाठकों से दो शब्द )

मातृभारती के मेरे प्रिय पाठकों!आप सबसे बिछुड़कर मैं स्वयं को अकेला महसूस कर रही थी| मेरी आँख की सर्जरी की गई थी जो ईश्वर की कृपा, मेरे योग्य सर्जन के श्रम और आप सबकी दुआओं से बिलकुल ठीक हो गई थी आप सबका स्नेह व सम्मान मेरे जीवन जीने की शक्ति है और मातृभारती का सहयोग जीने की ऊर्जा!सब ठीक था किन्तु हम सब इस बात से भी वाकिफ़ हैं कि ‘जो भी होता है, आप होता है, यानि इसकी बिसात कुछ भी नहीं, हम जो अक्सर उदास रहते हैं, बात यह है कि बात कुछ भी नहीं’इतने बड़े जीवन में यदि कुछ बात न होती रहें तो ऐसा नहीं हो सकता न ! तो बस, सर्जरी के बाद भी लगभग 27/28 पुरानी एक छोटी सी पीड़ा ने सिर उठा लिया| उस समय ‘इसरो’की ओर से मैं एक सरकारी सीरियल बना रही थी तब कोई ‘फ़ॉरेन बॉडी’आँख में प्रवेश कर गई और न्यूरो से लेकर सारे टैस्टस होने के बावज़ूद डॉ.साहब के अनुसार 6 माह लेकिन ईश्वर के अनुसार डेढ़ माह में मेरी रोशनी लगभग डेढ़ पर्सेंट रोशनी को बाय करके मेरा लेखन शुरू हो गया| उस समय कई बड़े प्रोजेक्ट्स चल रहे थे, देर से ही सही लेकिन वे पूरे हो सके| 

अब लगभग दो वर्ष से आँख की सर्जरी पैंडिग थी लेकिन लेखन ने मुझे सर्जरी करवाने की इजाज़त नहीं दी और मैंने गड़बड़ कर ली लेकिन फिर भी उस अदृश्य की व माँ वीणापाणि की कृपा ने मुझे फिर से आप लोगों से मिलवा दिया| कल शाम को ही मुझे मेरे दोनों डॉक्टर्स ने हरी झंडी दिखाई लेकिन अभी कुछ समय के लिए ही लेखन की आज्ञा मिली है| अब अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए मैं आप सबसे जुड़ी रहूँ, बस मेरे लिए इतनी प्रार्थना करते रहिएगा जो मैं जानती हूँ, आप कर रहे हैं | 

मित्रों!मेरे इतना सब बयान करने का एक अर्थ यह भी है कि अपने स्वास्थ्य के प्रति सदा ध्यान रखें| स्वास्थ्य है तो सब काम देर-सवेर हो जाएंगे| प्रिय पाठकों को पुन:साधुवाद भेज रही हूँ कि मेरी अनुपस्थिति में भी मेरे पाठक बरकरार बने रहे| 

संभव है कुछ त्रुटियाँ रह जाएं, आप सब मेरे लेखन से परिचित हैं, पूर्ण विश्वास है। आप सब समझ लेंगे | 

मिलते हैं, मिलते रहेंगे !! आप सबकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी | 

प्रेम गली अति साँकरी के 119 अध्याय से इस भिन्न प्रकार के प्रेम-उपन्यास के अंत तक आपको पहुंचाना और उस पर आप सबके स्नेह की वर्षा, बस----एक लेखक के लिए स्नेह ही तो है| 

सदा स्नेह

डॉ.प्रणव भारती

 

119

प्रेम गली अति साँकरी

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‘पीड़ा ! महाठगिनी मैं जानी !’किन्तु, परंतु से अनेकों प्रश्नवाचक चिन्ह मेरी इस पीड़ा से डगमग, डगमग होने लगे| यह पीड़ा एक लहर की तरह लहराती रहती है| कभी उछलती है, कभी डूबती है, कभी तारती है, कभी गालों पर बहकर बिना बात ही किसी अजनबी से गुफ़्तगू करने लगती है| जितना रोकने का प्रयास हो। उतनी धारदार। ज़ोरदार बहती है| तात्पर्य है कि किसी भी स्थिति में इससे छुटकारा नहीं| अब?

कोर्ट-मैरेज का समय हुआ, बिना किसी सुगबुगाहट के जैसे एक अधूरे दिन सा सब कुछ हो रहा थ| क्या? क्यों? किसलिए? किसके लिए ? | ऐसी स्थिति में भी तुम कहाँ थे उत्पल? सामने बिना किसी भावहीन चेहरे के मेरी ज़िंदगी का सपाट साथी था जिसने और जिसके साथ मिलकर मेरी सब वे फॉर्मल रस्में तो हुई हीं जो करनी थीं| स्पंदनहीन सब कुछ और सामने प्रमेश!ये क्या हो रहा था? लेकिन हो रहा था और हम सभी मूक दर्शक थे | 

एक-दूसरे के गले में माला डालकर, कोर्ट के रजिस्टर पर हस्ताक्षर करके, मिठाई खिलाकर, आस-पास के लोगों की हर्ष-युक्त अथवा हर्ष-मुक्त की तालियों को सुनकर बिना किसी बीन-बाजे के हम ‘पति-पत्नी’जैसे कठोर बंधन में बंध चुके थे| अब भाई बड़े अचरज में था और उसे मुझसे इस बारे में अधिक जानना चाहता था| उसने एक-दो बार मेरे साथ कुछ बात करने की कोशिश की लेकिन नहीं हो सका| वैसे भी अब वह सब कुछ व्यर्थ ही तो था, काम से कम उस समय! मुझे महसूस हो रहा था कि इतने वर्षों से प्रेम के लिए जुनूनी भाई, पापा-अम्मा को मेरे भीतर उस प्रेम की संवेदना का आभास क्यों और कैसे नहीं हुआ था? प्रेम की त्वचा का निखार आज भी उन सबमें मैं स्वयं महसूस कर पा रही थी| बेशक! मुझे अब त्वचा कुछ सिकुड़ी हुई महसूस हो रही थी, कुछ रूखी!यह भी तो एक कठोर वास्तविकता ही है न कि यह प्रेम की त्वचा सबको भिन्न आभास देती है| 

शाम को बहुत बड़ा कार्यक्रम भाई पत्नी के साथ पहले ही तैयार कर चुका था| प्रमेश की दीदी कुछ ऐसे मेरे साथ चिपटी रहीं मानो ‘कोहेनूर’की रखवारी कर रही हों| यदि सच में देखा जाता तो एक वे ही थीं जो चुलबुलाती घूम रही थीं जो कम से कम उस समय तो बेहद अजीब व बचकाना व्यवहार कर रही थीं | अम्मा-पापा अपने ही मन को विस्तार करते, संकुचित व्यवहार से अपने चारों ओर सबकी ओर एक झूठी मुस्कान को ऐसे फेंक रहे थे, मानो यह एक आवश्यक तकाजा था| 

कहा गया था कि अमी की शादी के बाद एक फॉर्मल पार्टी होगी, कुछ लोग ही सम्मिलित किए जाएंगे जिनमें कुल मिलाके वे प्रतिष्ठित या कहें वे महत्वपूर्ण अतिथि सम्मिलित किए जाएंगे जिन्हें विवाह में उपस्थित होना इतना ही आवश्यक होगा जितना ग्रीष्म के मौसम में आजकल ‘ए.सी’ का होना| कहाँ कुछ ऐसा हुआ था। न जाने कितने अतिथि थे जिनको देखकर मैं तो कम से काम हतप्रभ रह गई थी| विरोध करने की स्थिति में तो मैं कभी भी नहीं थी तब इस समय?

हाँ, शृंगार करवाते हुए मेरे मन ने मुझे फिर से मन की लहरों के पीछे आ पटक दिया था| क्यों? क्या मैंने अपने यौवन के समय में कितने ही प्रस्ताव करने वालों को मन नहीं किया था? बाद में श्रेष्ठ---और---यहाँ आकर अटक जाना| मुझे आभूषण पहने जा रहे थे और मैं अपनी मन की गुफ़ा में अंधकार में भटक रही थी| 

प्रमेश की दीदी मुझे शृंगार करते समय भी छूट देना संभवत: उचित नहीं समझ रही थीं| वहीं तो अड़ी पड़ीं थीं जैसे मानो मैं उनका कोहिनूर लेकर वहाँ से भाग जाने वाली थी| जब कि पापा, अम्मा और परिवार के सब ही सदस्य जिनमें शीला दीदी का व रतनी का परिवार सब ही तो शामिल थे, सब बाहर संस्थान में पधारने वाले अतिथियों में व्यस्त थे| सब जानते ही थे कि संस्थान के कर्ता-धर्ता अब सब वे ही लोग थे| अम्मा का तो बस ठप्पा लगना ही रहता था और दादी के नाम को अमर करने वाला संस्थान इतने वर्षों बाद भी उसी शानो-शौकत से प्रसिद्ध व ठाठ-बाठ से अपनी ध्वज लहर रहा था| 

मैं भी कहाँ से कहाँ उत्तुंग लहरों के बीच अधमरी सी पड़ी थी| 

“हाय!दीदी---”अचानक रतनी की प्यारी सी आवाज़ ने आकर मुझे दबोच लिया| 

“देखिए तो कितनी प्यारी लग रही हैं!”उसने ड्रेसिंग का दरवाज़ा खुलवाकर ज़बरदस्ती प्रवेश किया था वरना प्रमेश की दीदी---बस चलता, उसे कच्चा ही चबा जाती| उसके सामने उनको भी बोलती बंद ही करनी थी, यह वे अच्छी प्रकार समझती थीं| 

“कैसा प्यारी दुल्हिन है न रतनी!”कुछ बोलना जरूर था, मैंने उनकी ओर एक तरेरी दृष्टि डाली और अपनी नम आँखों को नीचे कर लिया| जिनमें से कुछ गर्म आँसू की बूंदें उसकी हथेली पर पड़ीं और उसने उन्हें अपनी मूठी में बंद करके अपनी हथेलियों में उन्हें समय लिया| 

“दीदी!सब ठीक हो जाएगा| थोड़ी सी मुस्कुराहट तो चेहरे पर ले आइए| आप तो सब जानती, समझती हैं न, इस जीवन का रहस्य—”वह मेरे गले लगकर फुसफुसाई| 

“पति का प्रेम मिलेगा तब अमी का चेहरा खिल जाएगा---”कमाल !प्रमेश की कलाकार दीदी और कमाल प्रमेश!

उस समय रतनी कुछ न बोली और केवल एक दृष्टि उन पर फेंककर कहती हुई निकल गई—

“अम्मा के पास जाती हूँ, बेटा डॉली, दिव्य दीदी को लेकर आ जाना| बाहर सब मेहमान इनसे मिलन चाहते है| ”

दोनों बच्चे पास के पार्टीशन में ही बैठे थे, उनके होने से मैं कुछ रिलेक्स थी |