सत्य व असत्य
अनिल और सुनिल दोनों बहुत ही घनिष्ठ मित्र व सहपाठी भी थे। वे कक्षा - सात में पढ़ते थे। अनिल एक बुद्धिमान लड़का था। वह सत्य में विश्वास करता था। वह कभी असत्य नहीं बोलता था, जबकि सुनिल असत्य बोलने में विश्वास करता था। वह मानता था कि असत्य बोलने से सारे काम बनते हैं। हम असत्य बोलकर, बहाना बनाकर कहीं भी जा सकते हैं। कोई भी काम - काज कर सकते हैं। इसी बात को लेकर एक दिन उन दोनों में तू - तू, मैं - मैं छिड़ गयी।
अनिल बोला-, "सत्य से कोई भी चीज बड़ी नहीं होती है। सत्य सभी जगह समाया हुआ है। जो सत्य की राह पर चलते हैं, वे कभी जीवन में असफल नहीं होंते हैं।" यह सुनकर सुनिल ने कहा कि-, "तुम जीवन का एक ही पहलू जानते हो। तुम्हें दूसरे पहलू का अनुभव नहीं है। जब कभी कोई बात नहीं मानता या कहीं जाने नहीं देता अथवा कोई चीज हमें नहीं मिलती तो असत्य का सहारा लेकर हम आसानी से इन कार्यों में सफल हो सकते हैं।" अनिल ने कहा कि-, "लेकिन जब असत्य पकड़ा जाता है तो फिर हम पर कोई भी विश्वास नहीं करता और सभी हमसे मुँह फेर लेते हैं।" सुनिल ने कहा कि-, "मैं ये नहीं मानता। मुझे तो असत्य बोलने से ही आज तक सफलता मिली है, इसलिए मैं असत्य को ही सर्वोपरि मानता हूँ।" अनिल ने जवाब दिया कि-, "यह तो समय ही बताएगा कि असत्य और सत्य में कौन बड़ा है?" यह कहकर दोनों अपने - अपने घर चले गये। कक्षा- दस की वार्षिक परीक्षा के बाद दोनों दोस्त अलग - अलग जगह जाकर आगे की पढ़ाई करने लगे। अनिल सत्यवादी होने के कारण सबका प्रिय बन गया और सुनिल असत्य बोलने के कारण सबकी नफरत का पात्र बना। अनिल उच्च शिक्षा पाकर शिक्षा विभाग में उच्च पद पर तैनात हुआ, जबकि सुनिल असत्य के आश्रय में पल - बढ़कर कुमार्ग पर चल पड़ा।
कई साल बाद आज अनिल अपने गाँव आया था। आते ही वह सबसे मिलकर अपने दोस्त सुनिल के पास गया। सुनिल उसे देखते ही गले मिला और एक ओर शान्त खड़ा हो गया। अनिल ने जब उसके मौन रहने का कारण पूछा और कहा कि-, "घर पर सब ठीक तो है?" सुनिल गहरी सांस लेकर बोला-, "भाई! कुछ मत पूछो! यह सब मेरी जिद और नासमझी का फल है। तुम जीते और मैं हारा। आज मैं समझा कि सत्य कड़वा जरूर होता है, लेकिन सभी को अपना बनाने और सुखकर जीवन देने में समर्थ है। असत्य के कारण मैं हर जगह पकड़ा गया और अब कोई भी मेरी बात पर विश्वास नहीं करता है। कोई मेरी सहायता नहीं करता है।" अनिल ने उसके कन्धे पर हाथ रखकर कहा कि-, "यूँ निराश नहीं होते मेरे दोस्त। मैं हूँ ना। तुमने समाज में जो मान - सम्मान खोया है, वह सत्य को अपनाकर तुम जरूर प्राप्त कर लोगे, ऐसा मुझे विश्वास है।" यह कहकर अनिल जब शहर गया तो सुनिल को अपने साथ ही ले गया। अनिल ने उसे एक छोटी सी दुकान किराए पर दिलवा दी और उधार सामान खरीदकर दिलवा दिया।
समय बदला। सुनिल सही सामान उचित मूल्य पर बेचता और ग्राहकों से प्रेमपूर्वक व्यवहार करता। इससे वह सभी का प्रिय बन गया और वह कुछ ही सालों में धनी व्यक्ति बन गया और अपनी पत्नी और बच्चों को भी वहाँ अपने साथ ले गया। धीरे - धीरे समाज में उसका खोया हुआ मान - सम्मान वापस लौटने लगा।
सीख : - हमारे सामने कितना ही बड़ा संकट हो, फिर भी हमें असत्य का सहारा नहीं लेना चाहिए।