गुलाबो - भाग 15 Neerja Pandey द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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गुलाबो - भाग 15

भाग 15

आपने अभी तक पढ़ा की शहर जाने की तैयारी हो चुकी है और सुबह विजय देर तक नही जागता। जगत रानी उसे जगाती है। फिर जल्दी तैयार होने को बोलती है। अम्मा की बात सुन विजय रात की बात याद दिलाता है उन्हें की उन्होंने ही तो मना किया है जाने से ये कह कर की तू यहीं रह।

अम्मा विजय की बात सुन बहुत नाराज हो गई। वो बोली, "तेरा दिमाग खराब है..? मैने तुझे जाने से रोका..? अरे..! वो तो मैने व्यंग किया था तुझे। और तू सच मान बैठा…? अरे …! बावरे एक बच्चे का बाप बन गया तू..! पर तुझे मेरे कहने का मतलब ना समझ आया..? कोई बात नही जा जल्दी तैयार हो जा।" जगत रानी ने उसे समझाते हुए कहा।

अम्मा की बात सुन गुलाबो के कान खड़े हो हुए। वो परेशान हो गई की कहीं अम्मा की बात मान कर सच में ही न विजय चला जाए। वो खांसी जिससे विजय उसकी ओर देखे। और अपनी और विजय के देखने पर अपनी बड़ी बड़ी आंखों को और बड़ी कर घूर कर के विजय को देखा। "ना …" में अपना सर हिलाया। विजय की स्थिति एक घड़ी के पेंडुलम की भांति हो गई थी। जो दोनो तरफ झूल रहा था। एक तरफ अम्मा थी तो दूसरी तरफ पत्नी गुलाबो।

अब उसे अम्मा को किसी भी तरह मनाना ही एक मात्र चारा नजर आया। वो अपनी आवाज में बचपने वाली ठुनक लाते हुए अम्मा के पास आ कर उनके गले से झूल गया और दुलारते हुए बोला, "अम्मा..! अम्मा अब तुम जानो की तुमने मुझे व्यंग में रोका था या सच में। पर अब मैं नहीं जाने वाल अपनी अम्मा को अकेला छोड़ कर। मेरा दिल नही करता जाने को।"

जगत रानी क्या कहती..? क्या करती..? उसका कहा हो इसके गले की हड्डी बन रहा था। पर कोई बात नही। आखिर घर में भी इतने सारे काम होते है खेती - बाड़ी के। उन्हे दूसरे की सिफारिश करनी पड़ती है। अब विजय रहेगा तो वही ये सब कुछ संभालेगा। पर जगत रानी की अनुभवी आंखे देख रही थीं की वो कह तो रहा है अम्मा तुम्हारी खातिर मैं नहीं जाऊंगा। पर निगाह उसकी गुलाबो की ओर थी। कोई बात नही पत्नी और बच्चे का मोह कोई गलत बात नही। ये तो होना ही चाहिए। चलो रुकेगा तो कुछ जिम्मेदारी ही उठाएगा। यही सोच कर जगत रानी ने विजय के रुकने पर अपनी सहमति दे दी।

जगत रानी विजय को खुद से अलग करते हुए बोली, "अच्छा ..! चल ठीक है। तू नही जायेगा। पर जा अपने बाबूजी, भाई भाभी को स्टेशन तो छोड़ आ।"

विजय प्रसन्नता से बोला, "हां ..! अम्मा जाता हूं ना। वो अंदर जा कर जल्दी से कपड़े पहनने लगा।

रज्जो जाने लगी तो गुलाबो ने रज्जो के पांव छुए और बोली कुढ़ते हुए बोली, "दीदी तुम्हारे ही तो मजे है। जाओ तुम शहर। मेरे नसीब में तो गांव में ही रहना लिखा है।"

रज्जो ने गुलाबो को उठा कर गले से लगा लिया और समझाते हुए बोली, "मेरा यकीन कर छोटी.. मुझे जरा भी खुशी नही शहर जाने की। मुझे तो गांव में, अपने घर में अपनो के बीच ही अच्छा लगता है। अब वो तो अम्मा ने कहा है इस लिए जाना ही होगा। मेरा वश चलता तो मैं तुझे ही भेजती। पर ये भी तो देख अम्मा तुझे क्यों रोक रही है..? तू नसीबों वाली है जो तेरी गोद भरी है। शहर का क्या है? जैसे यहां रहना बनाना खाना है, वैसे ही वहां।"

रज्जो की आंखे नम हो आईं। मातृत्व से वंचित रज्जो को कुछ नही चाहिए था। उसे तो बस किसी भी तरह मां बनने का सुख चाहिए था।

तभी इक्का वान आ गया। विजय सामान रखने लगा उस पर। रज्जो ने सास के पांव छुए, वो असीसते हुए सर पर हाथ रखते हुए चेतावनी भरे अंदाज में बोली, "दूधो नहाओ.. पूतों फलो, अबकी आना तो खुश खबरी ले कर ही आना।"

उदास रज्जो भारी मन में इक्के पर पीछे की ओर जा बैठी। उसके बैठते ही इक्का वान एक पुरानी चादर से इक्के को चारो तरफ से बांधने लगा। (वो ऐसा वक्त था जब बिना परदे के भले घर की बहू बेटियां बाहर नही निकलती थीं। जब वो बाहर जाती थी तो इक्के को चारो तरफ से घेर कर पीछे की तरफ परदा कर दिया जाता जिससे कोई उन्हें देख ना सके।)

रज्जो उस परदे के भीतर बैठी मन ही मन सोच रही थी। क्या ये उसके वश में है..? उसके वश में होता तो क्या वो इतनी देर करती..? भला कौन सी औरत होगी जो मां बनने का सुख नही पाना चाहेगी..? पर ये खुद के हाथों में थोड़े ही ना निर्भर होता है…? ये तो ईश्वर की इच्छा पर निर्भर होता है। अब इस बात को क्या अम्मा नही जानती…? अब तो बस ईश्वर का ही आसरा था। वही चाहें तो मेरी गोद हरी हो। रज्जो झूलते हुए इक्के पर बैठी इन्ही सब ख्यालों में खुद भी गोंतें लगा रही थी। घोड़े के कदमों के टापों के साथ उसके मन में ख्याल भी दौड़ रहे थे।

जब स्टेशन आने पर इक्का रुका तब वो भी इन ख्यालों के भंवर से बाहर आई। आंखो में आए आंसू को साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए इक्के से उतर गई। गनीमत था की घूंघट से चेहरा छुपा हुआ था। वरना रज्जो की आंखों के आंसू देख कर जय का दिल दुखता। फिर जय के सवालों का जवाब देना रज्जो के लिए मुश्किल होता। रज्जो अपनी इस पीड़ा को अपने हृदय में ही समेटे हुए थी। वो अपने इस दर्द की आंच से पति जय को दूर रखना चाहती थी। रज्जो सोचती वो ही तपे इस आंच में। जय को भी क्यों दर्द दे ?

रेल गाड़ी का समय हो गया था। उनके स्टेशन आने के तुरंत बाद ही गाड़ी आ गई। विजय ने फुर्ती के साथ सब सामान लदवा दिया गाड़ी में। पिता जी और भाई भाभी के पांव छू कर उनसे विदा ले लिया। विश्वनाथ जी ने चलते चलते विजय को समझाया, "घर, अम्मा, बच्चे और गुलाबो का ध्यान रक्खे।" साथ ही बोले जब मन करे तो वो आ भी जाए।

विजय ने सर हिला कर पिता की बातों का समर्थन किया।और हाथ हिलाता हुआ घर वापस लौट चला।

ट्रेन में बैठते ही समान व्यवस्थित कर विश्वनाथ जी ऊपर की सीट पर चले गए जिससे बहू रज्जो बिना घूंघट के आराम से बैठ सके। उनके कहने पर रज्जो ने पल्ला सरका कर चेहरा खोल लिया। आंखो से बहे आंसू की लकीरें चुगली कर रही थी की रज्जो रोई है। पर जय ने समझा घर, अम्मा और गुलाबो से बिछड़ने का दुख होगा रज्जो को इसलिए रोई होगी। असल बात वो नही समझ पाया।

विजय अपने धुन में मगन था की अब उसे किसी की नौकरी नहीं करनी पड़ेगी। जगत रानी मगन थी की भले ही बेटे को तनख्वाह ना मिले पर वो मेरे आंखों के सामने तो रहेगा काम से कम। हर सुख दुख में साथ तो देगा। विश्वनाथ जी मगन थे की इस बार जाते ही उनकी तरक्की और तबादला दोनो हो जायेगा। और तबादले की अर्जी उन्होंने अपने घर के करीब ढाई तीन सौ किलो मीटर दूर बनने वाली नई फैक्ट्री के लिए दे दी थी। जहा तक था उस नई फैक्ट्री में वो अपने अनुभव के आधार पर मुख्य मैनेजर बन कर आते। जगत रानी से ये बात उन्होंने नही बताई थी। वो सब कुछ होने के बाद ही ये सब बताना चाहते थे। बंबई बहुत दूर था। वहां से साल भर में एक बार ही घर आ पाते थे। जब पास के शहर में तबादला हो जायेगा तो फिर वो हर महीने भी घर आ सकते थे।


अगाले भाग में पढ़े क्या जो सोच कर जगत रानी ने विजय को रुकने की इजाजत दी थी उस पर विजय खरा उतरा..? क्या रज्जो की मां बनने की लालसा पूरी हो सकी…? क्या विश्वनाथ जी का तबादला और तरक्की हुई..? वो अपने घर के पास के शहर में आ सके..? इन सब सवालों के जवाब पाने के लिए पढ़े गुलाबो का अगला भाग।