मेरी मुस्कान DINESH KUMAR KEER द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरी मुस्कान

1. स्त्रियां

बाथरूम मे जाकर कपड़े भिगोती है।
बच्चो और पति की शर्ट की कॉलर घिसती है।
बाथरूम का फर्श धोती है ताकि चिकना न रहे।
फिर बाल्टी और मग भी मांजती है। तब जाकर नहाती है।
और तुम कहते हो कि, स्त्रियां नहाने में कितनी देर लगातीं है।
स्त्रियां किचन में जाकर सब्जियों को साफ करती है।
तो कभी मसाले निकलती है । बार - बार अपने हाथों को धोती है
आटा मलती है। बर्तनों को कपड़े से पोंछती है।
वही दही जमाती घी बनाती है। और तुम कहते हो
खाना में कितनी देर लगेगी।
स्त्रियां बाजार जाती है।
एक - एक सामान को ठहराती है।
अच्छी सब्जियों फलों को छाट ती है, ।
पैसे बचाने के चक्कर में पैदल चल देती है।
भीड में दुकान को तलाशती है।
और तुम कहते हो कि
इतनी देर से क्या ले रही थी;
स्त्रियां बच्चो और पति के जाने के बाद
चादर की सलवटे सुधारती है;
सोफे के कुशन को ठीक करती है
सब्जियां फ्रीज में रखती है;
कपड़े घड़ी प्रेस करती है;
राशन जमाती है;
पौधों में पानी डालती है
कमरे साफ करती है;
बर्तन सामान जमाती है;
और तुम कहते हो कि
दिनभर से क्या कर रही
स्त्रियां :::
जाने के लिए तैयार होते समय
कपड़ो को उठाकर लाती है:
दूध खाना फ्रिज में रखती है
बच्चो को दिदायते देती है:
नल चेक करती है
दरवाजे लगाती है ::
फिर खुद को खूबसूरत बनाती है ताकि तुमको अच्छा लगे:
और तुम कहते हो कितनी देर में तैयार होती हो :
स्त्रियां
बच्चो की पढ़ाई डिस्कस करती:
खाना पूछती :
घर का हिसाब बताती:
रिश्ते नातों की हालचाल बताती :
फीस बिल याद दिलाती
और तुम कह देते कि
कितना बोलती हो
स्त्रियां दिनभर काम करके थोड़ा
दर्द तुमसे बाट देती है:
मायके की कभी याद आने पर
दुखी होती है:
बच्चों के नंबर कम आने पर :
परेशान होती है
थोड़ा सा आसू अपने आप आ
जाते है :
मायके में ससुराल की इज़्ज़त
ससुराल में मायके की बात
को रखने के लिए
कुछ बाते बनाती
और तुम कहते हो की
स्त्रियां कितनी नाटकबाज
होती है
पर स्त्रियां फिर भी तुमसे ही
सबसे ज्यादा प्यार
करती है।

2 मेरी मुस्कान

लोग जल जाते हैं मेरी मुस्कान पर क्योंकि,
मैंने कभी दर्द की नुमाइश नहीं की।
ज़िंदगी से जो मिला कबूल किया,
किसी चीज की फरमाइश नहीं की।
मुश्किल है समझ पाना मुझे क्योंकि,
जीने के अलग अंदाज हैं मेरे।
जब जहाँ जो मिला अपना लिया,
जो ना मिला उसकी ख्वाहिश नहीं की।
माना कि औरों के मुकाबले,
कुछ ज्यादा पाया नहीं मैंने।
पर खुश हूँ की खुद को गिराकर,
कुछ उठाया नहीं मैंने।।


3. मेरे पापा जी

एक़ अक्ष सा दिखता है,

एक़ ही शख़्स सा दिखता है,

जहाँ जाता हूँ,

लोग मुझमें आपको देखतें हैं,

आपकी पहचान बताते हैं,

तुम पापा जैसे दिखते हो,

वैसे ही बात करते हो,

वैसे ही इज़्ज़त करते हो,

तुम्हारे अल्फ़ाज़ों में उनकी झलक है,

ग़ुरूर में उनका नूर है,

तुम्हारे व्यक्तित्व का कुछ वही सुरूर है,

पर ये वक़्त कैसे बदलता है,

एक़ पिता ही है; जो इस तरह ज़ीता है

कि ना होकर भी अपने बच्चों में ज़िंदा रहता है,

और ख़ुदा भी देखो कैसे ख़ेल ख़ेलता है,

कैसी तक़दीरें लिखता है,

वैसे भी क़ोई फ़र्क नहीं पड़ता उसके इरादों से,

मुझमें तों बस एक़ अक्ष दिखता है,

अब एक़ ही शख़्स दिखता है...


हँसते रहते हो “कीर साहब ज़ी” क्या बात है...

बस कुछ ख़ास नहीं, बच्चों को मिठाई देकर आया हूँ...

कल से एक अलग नया साल शुरू हो जाएँगा...


मेरे प्यारे पापा जी...