Asamartho ka bal Samarth Rmadas - 20 books and stories free download online pdf in Hindi

असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 20

निर्वाण की समझ

पूरा जीवन समाज जागृति और धर्म प्रचार का कार्य करने के पश्चात, कई ग्रंथों का समाज को उपहार देते-देते, आयु अनुसार समर्थ रामदास की काया थक चुकी थी। उन्हें ज्ञात हो चुका था कि अब कुछ समय पश्चात इस काया को त्यागने का क्षण आनेवाला है।

जीवन का संध्या समय नामजप के साथ, विश्राम करते हुए बिताने के लिए उन्होंने सज्जनगढ़ को चुना। प्राचीन समय में आश्वलायन ऋषि का यहाँ निवास था इसलिए उसे आश्वलायन गढ़ कहा जाता था। हस्तांतरित होते-होते उसके नाम भी बदलते गए। शिवाजी महाराज ने इसे आदिलशाह से जीत लिया तब वहाँ काफी भालू पाए जाते थे इसलिए उसका नाम अस्वलगढ़ था।

समर्थ रामदास वहाँ कायम निवास के लिए आ गए और उस स्थान का नाम पड़ा 'सज्जनगढ़' यानी जहाँ सज्जनों का निवास है, ऐसा गढ़। उन्होंने वहाँ जीवन के अंतिम छ: साल बिताए। जो देवी की मूर्ति उन्हें अंगापुर ग्राम के पास कृष्णा नदी में मिली थी, उस ‘अंगलाईदेवी' की स्थापना सज्जनगढ़ पर एक मंदिर में की गई है। जब तक समर्थ रामदास के निवास के लिए वहाँ मठ की इमारत नहीं बनती, उनकी रहने की व्यवस्था उस मंदिर में की गई। इमारत बनते ही उनका बसेरा उस स्थान पर किया गया। वहाँ वे ज़्यादा से ज़्यादा समय ध्यान और नाम जप में बिताते। इस तरह साल बीतते गए।

अंतिम समय आने से पहले कुछ दिन चाफल में रामनवमी उत्सव मनाकर, वे सज्जनगढ़ लौटे तब अपने कमरे में प्रवेश करते हुए उन्होंने कहा, 'अब यहाँ बसेरा बहुत कम समय के लिए है।'

अब तक छत्रपति शिवाजी महाराज का देहांत हो चुका था और उनके पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज ने स्वराज्य की बागडोर सँभाली थी। धीरे-धीरे उन्होंने कमरे से बाहर आना और लोगों से मिलना लगभग बंद कर दिया। उनके कक्ष में सिर्फ उद्धवस्वामी और उनकी शिष्या अक्काबाई ही बिना अनुमति के प्रवेश कर सकते थे।

वहाँ पहाड़ी पर ठंडी हवा चलती थी इसलिए उनके स्वास्थ्य की चिंता करते हुए अक्काबाई ने उन्हें कुछ समय चाफल में जाकर रहने का सुझाव दिया। लेकिन उनके वहाँ जाने से उपासकों का राम उपासना से ध्यान हटकर, उनकी तरफ ही लगा रहेगा यह सोचकर, 'अब इस काया के साथ जो भी होना है, सज्जनगढ़ में ही हो,' ऐसा कहते हुए उन्होंने जाने से मना कर दिया।

उद्धवस्वामी ने उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंता जताई और उनके लिए अनुष्ठान करके किसी वैद्य को बुलाने की अनुमति माँगी। समर्थ रामदास ने हँसकर जवाब दिया, 'जीवनभर उन्होंने लोगों को देह की ममता त्यागने का उपदेश दिया, क्या उद्धवस्वामी ने उसे इस प्रकार ही समझा है?'

इस समय में जब कोई उनके पास कुछ शंका लेकर आता तो वे कहते, 'सब पहले ही बताया गया है। अब बताने के लिए कुछ बाकी नहीं है। अब जो बुद्धि प्रभु राम दें, उस अनुसार करो।'

अंत के कुछ महीने उन्होंने अन्नग्रहण लगभग बंद कर दिया और सिर्फ अल्प सा दूध प्राशन जारी रखा। अन्न के बिना काया कमज़ोर हो गई। ऐसी अवस्था में भी कल्याणस्वामी डोमगाँव से दासबोध की हस्तलिखित प्रतिलिपि (कॉपी) लेकर आए थे, उसे जाँचकर अनुमोदन दिया।

वे अपने काया त्याग का समय निश्चित कर रहे थे। तब उनके एक अधूरे श्लोक को पूर्ण करते हुए उद्धवस्वामी के मुख से 'आनेवाली नवमी का दिन' ऐसा उच्चार निकला। समर्थ समझ गए कि अब उस काया का जीवन मात्र पाँच दिन का बचा है।

उस क्षण से उन्होंने अखंड रामनाम का घोष शुरू किया। अष्टमी को आधी रात में जागकर एक श्लोक द्वारा बताया, 'देवद्रोही यानी जो ईश्वर से घृणा करते हैं, उनका विनाश निश्चित है' और राम नाम का जाप जारी रखा।

नवमी के दिन उनके दर्शन हेतु बहुत भीड़ जमा हो गई। लेकिन उन्होंने किसी को भी अपने पास आने की अनुमति नहीं दी। पद्मासन में बैठकर अपनी नज़र रघुवीर के मुख पर टिकाकर ध्यान किया। फिर पलंग से उतरकर, पादुका पहनकर उत्तर की तरफ मुख करके जमीन पर बैठ गए। भक्तों ने उन्हें पलंग पर ही बैठने की विनती की और उन्हें वहाँ से उठाने की कोशिश करने लगे। लेकिन एक साथ दस लोगों की कोशिश के बावजूद उन्हें वहाँ से हिला नहीं पाए।

यह देखकर अक्काबाई घबरा गईं। समर्थ ने उनसे कहा, इतने दिन जो आध्यात्मिक बातें सुनी हैं, क्या उनसे यही समझ ली है? क्या इस देह से ममत्व छूट नहीं रहा है? अक्काबाई ने जवाब में हाथ जोड़कर रोते हुए कहा, 'यह देह से लगाव नहीं है लेकिन आज के बाद आपका सगुण दर्शन नहीं होगा, इस बात का अति शोक हो रहा है।

तब सबके समाधान के लिए समर्थ रामदास के मुख से अपने देहांत को लेकर एक श्लोक निकला, जिसका आशय भीमस्वामी ने संक्षेप में बताया है –

माझी काया आणि वाणी। गेली म्हणाल अंतःकरणी । परी मी आहे जग्जीवनी | निरंतर ॥
आत्माराम दासबोध। माझे स्वरूप स्वतः सिद्ध। असता न करावा खेद | भक्त जनी ॥

भावार्थ- मेरी काया नहीं रही देखकर यह न समझना कि मैं चला गया। मैं निरंतर सर्वत्र हूँ। दासबोध मेरी आत्मा है। वही मेरा सिद्ध स्वरूप है। जब तक वह है, किसी को कोई खेद करने की आवश्यकता नहीं है

दरअसल निर्वाण शरीर का होता है। शरीर त्यागकर जानेवाली चेतना अपनी यात्रा आगे जारी रखती है, इस समझ अनुसार शरीर की मृत्यु अंत नहीं, मात्र एक पड़ाव है। उसके आगे मृत्यु उपरांत जीवन जारी रहता है।

भक्तों का दुःख हरने के लिए यह समझ देकर, उन्होंने तीन बार अति उच्च स्वर में 'जय जय रघुवीर समर्थ' का उच्चारण किया। गगन भेदनेवाली वह आवाज सुनकर उपस्थित भक्त थर्रा गए। एकाएक निःशब्द शांति पूरे परिसर में छा गई। मानो उस शांति ने पूरा ब्रह्मांड व्याप लिया।

इस नामघोष के साथ चैतन्य ने देह का त्याग किया। समर्थ रामदास - रामस्वरूप हो गए... रघुवीर चैतन्य में विलीन हो गए। प्रभु राम भक्ति के ग्रंथ का एक अध्याय समाप्त हुआ। वह दिन था, माघ वद्य नवमी, सन 1681। इस दिन को आज 'दासनवमी' के रूप में मनाया जाता है।

जहाँ उन्होंने कायम समाधि ली, उसके पासवाले कक्ष में एक गड्ढा बनाकर उनके देह का अंतिम संस्कार किया गया। इसके तीन दिनों बाद उनके देह की राख से एक पाषाण उभरकर आया। यह समर्थ रामदास की स्वयंभु (जो स्वयं प्रकट हुआ) समाधि है। इस समाधि पर छत्रपति संभाजी महाराज ने भव्य मंदिर बनवाया।

यह माना जाता है कि सज्जनगढ़ में समर्थ रामदास आज भी जागृत अवस्था में स्थित हैं। उनके दर्शन की सच्चे दिल से अभिलाषा करनेवाले को वे अपनी भक्ति में समा लेते हैं। दुर्जन भी उनके स्थान के दर्शन से सज्जन बन जाते हैं इसलिए इस स्थान को सज्जनगढ़ कहा जाता है। रोज़ाना कई भक्त इस स्थान के दर्शन करके, गुरु कृपा की अनुभूति पाते हैं।

जय जय रघुवीर समर्थ...!


भुते पिंड ब्रह्मांड हे ऐक्य आहे। परी सर्वही स्वस्वरूपी न साहे॥
मना भासले सर्व काही पहावे । परी संग सोडूनि सूखी रहावे ॥187 ॥

अर्थ - पंच महाभूत, जीव (जीवन) और ब्रम्हांड तीनों एक हैं लेकिन शाश्वत परम सत्य इन सबसे अलग है। इसलिए हे मन, जो भी दिखाई दे उसे देखो लेकिन उससे अलिप्त रहकर देखो।

अर्क - परम सत्य सर्वत्र होकर भी सबसे निर्लिप्त है। जीव, जीवन, पंच महाभूत आदि का वही आधार है। पिंड (शरीर) से लेकर ब्रम्हांड तक वही चैतन्य समाया है। जो-जो स्थूल है वह आभास है क्योंकि वह नश्वर है। इसलिए समर्थ रामदास कहते हैं, जो भी आँखों से दिखाई देता है उसे साक्षीभाव से देखो। इसी में खुशी समाई है।

नव्हे जाणता नेणता देवराणा। न ये वर्णिता वेदशास्त्रां पुराणां ।।
नव्हे दृश्य अदृश्य साक्षी तयाचा। श्रुती नेणती नेणती अंत त्याचा॥ 193॥

अर्थ - परमात्मा न ज्ञानी है और न ही अज्ञानी । वेद और पुराण भी उसका सही वर्णन करने के लिए अक्षम हैं। वह दिखाई भी देता है और वह अदृश्य भी है। सारे। दृश्यों में वह अदृश्य साक्षी बनकर उपस्थित है। वेद-श्रुति भी उसकी सीमाओं को जान नहीं पाते (क्योंकि वह असीम है।)

अर्क - ईश्वर, ज्ञान-अज्ञान-विज्ञान के परे की अवस्था है। वेद-पुराण और ईश्वर का वर्णन करनेवाले सारे शब्द उसी से उत्पन्न हुए हैं। इसलिए शब्दों में उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उस अवस्था में होकर ही उसे जाना जा सकता है। वह अदृश्य होकर भी हर दृश्य में है क्योंकि सारे दृश्य भी उसी से उत्पन्न हुए हैं। ईश्वर निराकार है, असीम है। सीमित बुद्धि से उसे नहीं जाना जा सकता।

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