असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 5 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 5

टाकली में साधना करना

टाकली में साधना करना नारायण के लिए आसान नहीं था। शुरुआत में उस गाँव के कुछ दुष्टों ने, शरारती लोगों ने उन्हें काफी परेशान किया। उनका मज़ाक उड़ाकर, उन्हें वहाँ से भगाने की कोशिश तक की।

जब कोई आपको जान-बूझकर परेशान करता है तो आपका परेशान होना सामनेवाले को और ऊर्जा देता है। आपको परेशान देखकर उसे मज़ा आता है। इसके विपरीत यदि आप परेशान नहीं होते तो उसका उद्देश्य सफल नहीं होता और उसकी ऊर्जा निकल जाती है। बिलकुल ऐसी ही स्थिति उत्पन्न हुई, जब नारायण ने अपना ध्यान लोगों की दी हुई परेशानी पर नहीं बल्कि साधना और जप-तप पर लगाया। जिससे धीरे-धीरे लोगों ने उन्हें परेशान करना बंद कर दिया।

पिताजी के देहांत के बाद अंदर जो मनन शुरू हुआ था, उसमें नारायण समझ गए थे कि चाहे संसार में रहकर भक्ति मार्ग पर चलना हो या संन्यासी जीवन जीकर कार्य करना हो, दोनों में शरीर का सामर्थ्यवान होना बहुत आवश्यक है। इस समझ के साथ, एक अटल इरादा लेकर उस गुफा में नारायण की तपश्चर्या शुरू हुई।

तपश्चर्या का मतलब सिर्फ ध्यान या मंत्र-जाप करना नहीं होता। इसमें शरीर को भी तपाना पड़ता है। कष्ट उठाने पड़ते हैं, शारीरिक-मानसिक क्लेश सहने पड़ते हैं। इसमें शरीर के साथ-साथ मन का भी प्रशिक्षण होता है। अपने शरीर पर पूरा नियंत्रण तपश्चर्या द्वारा पाया जा सकता है। यह ‘तप का आश्चर्य’ है, जो तपश्चर्या द्वारा जीवन में दिखाई देता है। इसके लिए अटल निश्चय की आवश्यकता होती है।

नारायण सुबह सूर्योदय से पहले उठते और स्नान करके 1200 सूर्यनमस्कार करते। शारीरिक सामर्थ्य पाने का इससे आसान तरीका और कोई नहीं था। इसके बाद गोदावरी के गहरे, ठंडे पानी में खड़े रहकर गायत्री मंत्र और राम नाममंत्र के जाप की शुरुआत होती।

सूर्योदय से लेकर मध्य तक यानी सूरज सिर के ऊपर आने तक (दोपहर का प्रहर) घंटों पानी में खड़े रहकर उनका जाप चलता। हर रोज़ इतनी देर पानी में खड़े रहने की वजह से पैरों की त्वचा सिकुड़ जाती। कई बार मछलियाँ आकर पैरों में काट लेती। इसके बावजूद पूरी श्रद्धा और लगन से वे अपनी साधना में लगे रहते। प्रभु श्रीराम के प्रति श्रद्धा में, यह करना उन्हें कभी श्रम नहीं लगा। बड़ी सहजता से वे यह करते थे। घंटों इस तरह जाप करने के बाद श्रीराम और हनुमान की पूजा होती, उसके बाद वे खाने के इंतजाम के लिए बाहर निकलते।

खाने के लिए वे टाकली गाँव में किन्हीं पाँच घरों में जाकर भिक्षा माँगते। अगर पाँचों घरों से कुछ भी न मिले तो छठवें घर कभी नहीं जाते। इसे प्रभु राम की इच्छा समझकर उस दिन उपवास कर लेते।

पाँच घरों से जो भी मिलता, उसे भी वे अकेले नहीं खाते बल्कि उसके तीन हिस्से होते थे। एक गौ माता का, दूसरा जलचरों का और बचा हुआ तीसरा हिस्सा अपने लिए रखते। भोजन से ज़ुबान को संतुष्ट करना कभी उनका उद्देश्य नहीं था। बस देह को ज़िंदा रखने के उद्देश्य से भोजन करते। भोजन पश्चात वे नाशिक जाते और वहाँ विद्वानों की संगत में ज्ञानचक्षु खुलने के लिए शास्त्राध्ययन करते।

टाकली के रहिवासी अब इस बालयोगी की साधना देखकर पिघलने लगे थे। वे उन्हें पहचानने और उनका आदर करने लगे थे। कभी वे आते-जाते मिलते तो उनसे फिज़ूल की बातें करने की बजाय धर्म-कर्म की बातें करते। अपनी परेशानियों का हल पूछते।

जब कोई नारायण से उनका नाम पूछता, वे हँसकर जवाब देते- “मैं तो रामदास हूँ, जैसे उनकी हज़ारों वानरों से बनी सेना थी, वैसा ही मैं भी एक।” माता-पिता का रखा ‘नारायण’ नाम मानो वे भूल ही गए थे। अब वे केवल ‘रामदास’ थे। लोग उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे थे।

पूरे बारह वर्ष उनका तप चला। उन्होंने ‘श्रीराम जयराम जय जय राम’ इस तेरह वर्णों वाले मंत्र का तेरह करोड़ बार जाप किया, साथ ही गायत्री मंत्र भी सिद्ध किया। बालक नारायण अब एक तेजस्वी नौजवान 'रामदास स्वामी' के रूप में उभरे थे। इस दौरान प्रभु श्रीराम (स्वबोध चेतना) ने उन्हें कई बार दर्शन दिए। इस तपश्चर्या के दौरान उन्हें पहला शिष्य भी मिला– ‘उद्धव’ इसके मिलने की कहानी बड़ी रोचक है, जिसे हम आगे जानेंगे।

तप पूर्ण होने के बाद अपनी कुटिया में उन्होंने हनुमान जी की मूर्ति स्थापित की और उसका उत्तरदायित्व उद्धव पर छोड़कर, वे अपने असली उद्देश्य ‘विश्व कल्याण’ के लिए टाकली छोड़कर आगे निकल पड़े।

जय जय रघुवीर समर्थ ..

निरंतर प्रयास सफलता पाने का मार्ग है। निरंतर साधना से जीवन की परम सफलता ‘आत्मबोध’ भी पाया जा सकता है।

गतीकारणें संगती सज्जनाची। मती पालटे सूमती दुर्जनाची॥
रतीनायिकेचा पती नष्ट आहे। म्हणोनी मनातीत होऊनी राहे॥129॥

अर्थ - सज्जन की संगत में दुर्जन की मति भी शुद्ध होती है। रति का पति (मदन*) नष्ट (हीन, दुष्ट) है, जिसकी संगत में मति भ्रष्ट हो जाती है। इसलिए हे मन, उसका संघ छोड़कर सज्जनों की संगत में रहो।

अर्क - संगत, इंसान का चरित्र बताती है। अगर जीवन में सद्गति चाहिए तो सही संगत में रहना आवश्यक है। आप किस तरह की संगत में हैं या आप खुद किस प्रकार की संगत हैं, इस पर सोचें। मन की वासनाओं को बढ़ावा देनेवाली संगत शुरू में अच्छी लगती है लेकिन वह अंततः पतन की ओर ही ले जाती है। इसलिए सदा सत्संग में रहें और मन को नामस्मरण की संगत में लगाएँ ताकि वह विकारों से मुक्त हो पाए।

नसे गर्व आंगी सदा वीतरागी। क्षमा शांति भोगी दया दक्ष योगी॥
नसे लोभ ना क्षोभ ना दैन्यवाणा। यहीं लक्षणीं जाणिजे योगिराणा॥134॥

अर्थ - जिसके अंदर गर्व/अहंकार नहीं है, जो सदा वैराग्य भाव में रहता है, जो दया और क्षमा करने में तत्पर और शांत वृत्ति में स्थित है, जो कभी लोभ और क्षोभ (क्रोध) नहीं करता, जो कभी हीनभाव में नहीं रहता ऐसे लक्षण दिखानेवाला पुरुष योगीराज है।

अर्क - स्व के साथ योग होने (स्व-स्वरूप जानने) के बाद दया, क्षमा, शांति आदि गुण स्वतः ही उभरते हैं। लोभ, क्रोध, अहंकार जैसे विकार समाप्त हो जाते हैं। जिसका स्वयं के साथ योग है, जो आत्मप्रज्ञा में स्थित है, वह योगिराज (महायोगी/ युगपुरुष) है।

*मदन- पुराण शास्त्रों में कामवासना का प्रतीक, जिसने भगवान शिव पर कामास्त्र छोड़ने की कोशिश की थी, जिस कारण शिव ने उसे जलाकर भस्म कर दिया था।