असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 8 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 8

उत्तर भारत और हिमालय में भ्रमण

बिना किसी साधन-सुविधा के, अपने जाने-पहचाने स्थल को त्यागकर देशाटन के लिए निकल पड़ना कोई साधारण चुनौती नहीं थी। रास्ते में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता था।

उस समय यातायात के साधन सीमित थे। वनों से, पहाड़ों से होकर, अधिकतर यात्रा पैदल ही करनी पड़ती थी। कई बार तो प्राणों पर संकट भी आते थे। लेकिन राम के इस दास को कोई डर नहीं था। उनकी रक्षा करने के लिए, उन्हें मार्ग दिखाने के लिए उनका रघुवीर समर्थ था। गाँव-बस्तियाँ, पर्वत-नदियाँ पार करते हुए समर्थ रामदास की यात्रा चलती रही।

सबसे पहले वे काशी नगरी पहुँचे। वहाँ वे काशी विश्वनाथ का दर्शन करने मंदिर गए तब शिवजी का अभिषेक चल रहा था इसलिए उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई। इसे प्रभु की इच्छा मानकर वे शिवलिंग को द्वार से ही साष्टांग नमन कर लौट गए।

दूर से यात्रा करते आए हुए कोई तेजस्वी योगी, मंदिर के दरवाज़े से दर्शन किए बिना ही लौट गए, यह जानकर मंदिर के पुजारी में अपराध भाव जगा। उन्होंने स्वामी रामदास को वापस मंदिर बुला लिया और उनसे क्षमा याचना करके उन्हें दर्शन के लिए मंदिर के गर्भगृह में भेजा।

काशी में कुछ समय विद्वानों के साथ बिताते हुए उन्होंने लोगों से देश कल्याण पर चर्चाएँ कीं। फिर काशी से निकलकर भगवान बुद्ध की नगरी गया पहुँचे और वहाँ से प्रयाग जाकर त्रिस्थली यात्रा समाप्त की।

इसके बाद वे अपने आराध्य – प्रभु श्रीराम के जन्मस्थल अयोध्या नगरी पहुँचे। लगभग एक वर्ष तक वे वहाँ रहे। वहाँ के निवास में वे प्रभु राम के प्राचीन मंदिर में जाते और वहाँ ध्यानस्थ होकर अपने आराध्य से एकरूप होते।

यात्रा के दौरान वे देवदर्शन और धार्मिक कार्य के साथ ही अपने विचारों, और प्रवचनों से जनजागृति करते। संन्यासी बनकर, धर्मजागृति को निमित्त बनाकर जनशक्ति संगठित करने के उद्देश्य में उन्हें बड़ी सफलता भी मिल रही थी।

अयोध्या के बाद मथुरा, वृंदावन, गोकुल, नंदग्राम आदि स्थानों के भ्रमण करके, उन्होंने श्रीनाथ की नगरी द्वारिका प्रस्थान किया। वे जिस स्थान पर भी जाते, मठ और मंदिरों का निर्माण करते और उन्हें स्थानीय लोगों के अधीन करके आगे की यात्रा में चल पड़ते। यह रामदासी संप्रदाय की नींव थी, जो आगे दक्षिण भारत में भी पहुँची।

भारत देश के हर कोने में जाकर जनजागृति करने के उद्देश्य से वे पंजाब के कई प्रांतों से होकर आगे श्रीनगर पहुँचे। वहाँ उनकी मुलाकात कुछ नानकपंथी साधुओं से हुई। उन्होंने समर्थ रामदास के बारे में काफी सुना था इसलिए उनके आने की वार्ता पाकर साधुओं ने अपनी आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान पाने हेतु उनसे भेंट की इच्छा जताई।

उनसे भेंट के दौरान समर्थ रामदास ने सीधी और सरल भाषा में उनके प्रश्नों के उत्तर दिए, जिससे वे साधु मोहित हो गए। उन्होंने स्वामी रामदास को कुछ समय तक उनके साथ ही रहने का आग्रह किया।

नानकपंथी साधु भी यवनों के अत्याचार के विरुद्ध लड़ रहे थे इसलिए समर्थ रामदास को उनसे विशेष स्नेह था। बाबा नानक में अद्भुत योगबल था, जिसके बल पर उन्होंने यवनों के मुख से भी 'राम-राम' कहलवाया था, ऐसा समर्थ रामदास का मानना था।

श्रीनगर के निवास में उन्होंने आदिगुरु शंकराचार्य के मंदिर में जाकर दर्शन किए। वहाँ उनकी भेंट सिक्खों के छठे धर्मगुरु गुरु हरगोविंदसिंह जी से हुई। उनके साथ वे आगे अमृतसर गए और स्वर्ण मंदिर में निवास किया। इस दौरान उन्होंने सामाजिक स्थिति पर गहरी चर्चा की।

गुरु हरगोविंदसिंह अपने साथ हज़ारों शस्त्रधारी सैनिक रखते थे ताकि यवनों के आक्रमण से समाज की रक्षा की जा सके। वे खुद अपने पास दो तलवारें रखते थे। एक धर्मरक्षा के लिए और दूसरी स्त्रियों के शील रक्षण के लिए।

उनके साथ रहते हुए समर्थ रामदास भी शस्त्रधारी हो गए। रोज़ सूर्यनमस्कार का अभ्यास कई वर्षों तक होने की वजह से वज्रदेही तो वे थे ही, अब हाथ में ऐसा शस्त्र भी आ गया, जो किसी को दिखाई न दे लेकिन ज़रूरत पड़ने पर आसानी से उपयोग में लाया जा सके।

इस गुप्त शस्त्र को वे 'गुप्ति' कहते थे। बाहर से दिखने में वह जाप करते हुए, हाथ सीधा रखने के उपयोग में लाई जानेवाली छड़ी थी, जिसे 'कुबड़ी'* कहते थे। जाप के दौरान कलाई पर सूर्यनाड़ी और चंद्रनाड़ी पर उचित दबाव बनाने के लिए वह उपयोग में लाई जाती थी। लेकिन समर्थ रामदास की कुबड़ी के अंदर एक छोटी तेज़ तलवार छिपाई गई थी, जो जरूरत पड़ने पर एक क्षण में उपयोग में आ सकती थी।

कभी इसी कुबड़ी में लेखन साहित्य भी होता था। वनों- पहाड़ों से गुज़रते अगर कोई श्लोक मन में बने तो रुककर वे तुरंत उसे लिख दिया करते थे।

स्वर्ण मंदिर में दो माह बिताने के पश्चात गुरु हरगोविंदसिंह ने उन्हें गढ़वाल की रानी कर्णावती से मिलवाया। समर्थ रामदास के साथ वार्तालाप के दौरान रानी कर्णावती उनके देशाटन का असली उद्देश्य समझ गई और उन्हें आश्वस्त किया कि इस पुण्य काम में गढ़वाल का राज्य आपके साथ हमेशा कमर कसके तैयार रहेगा।

इस भेंट के समापन में रानी ने उनसे आशीर्वाद लिया तब समर्थ रामदास ने उन्हें पुण्य कार्य में सफलता के लिए 'तथास्तु' कहकर आशीर्वाद दिया, जो आगे सच साबित हुआ। मुगल कभी गढ़वाल को जीत नहीं सके।

यात्रा में आगे वे हिमालय के पवित्र प्राकृतिक स्थलों की ओर चल पड़े। हिमालय की पवित्र आध्यात्मिक तरंगों नें उन्हें मोहित कर दिया। वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर, उस पवित्र स्थल को छोड़कर वहाँ से निकल जाना उन्हें कठिन लगने लगा।

किंतु जो किसी बड़े लक्ष्य से बँधे होते हैं, ऐसे छोटे प्रलोभन उनका रास्ता रोक नहीं सकते। हिमालय में रहकर आध्यात्मिक साधना द्वारा मोक्ष प्राप्त करना उन्हें उस वक्त एक स्वार्थी विचार लगा। क्योंकि उस वक्त उनके सामने अव्यक्तिगत लक्ष्य था– धर्म जागृति और जन जागृति द्वारा देश कल्याण!

हिमालय की गोद में बद्रीनाथ और केदारनाथ जाकर वहाँ भी उन्होंने मठ की स्थापना की। हिमालय को प्रणाम करके वे उस स्थान से मोह त्याग कर, हिमालय की तलहटी में उतरे और हरिद्वार-ऋषिकेश यात्रा की।

लक्ष्य दमदार है और उससे प्रेम है तो कठिन रास्ता भी आसान लगने लगता है। जो अव्यक्तिगत लक्ष्य के साथ चलते हैं, उन्हें कुदरत स्वतः मदद करती है।


दिसे लोचनीं ते नसे कल्पकोडी। अकस्मात आकारलें काळ मोडी॥
पुढें सर्व जाईल कांहीं न राहे। मना संत आनंत शोधूनि पाहें ॥146॥

अर्थ - जो आँखों को दिखाई देता है, वह चिरंतन नहीं, अस्थायी है। जो-जो आकारमय है, समय के साथ सब नष्ट हो जाता है। कोई भी इससे बच नहीं सकता। इसलिए हे मन, जो शाश्वत है, अनंत है (जिसका कोई अंत नहीं), तुम उसकी खोज करो।

अर्क - इंसान का शरीर अस्थायी है, जो समय के साथ मिटता है। इस शरीर के रहते सत्य की खोज करना, आत्मज्ञान द्वारा स्थितप्रज्ञ अवस्था तक पहुँचना, इस शरीर का बेहतरीन उपयोग है। मानव जन्म इसी लिए मिला है ताकि ईश्वर की खोज उसके द्वारा हो सके क्योंकि यह संभावना सिर्फ मानव के साथ है। इसलिए समर्थ रामदास मन को सत्य की, अनंत, शाश्वत सत्य की खोज करने का उपदेश देते हैं।

फुटेना तुटेना चळेना ढळेना। सदा संचलें मीपणें तें कळेना ॥
तया एकरूपासि दूजें न साहे। मना संत आनंत सोधूनि पाहे ॥147॥

अर्थ - जो शाश्वत सत्य है, वह कभी टूटता फूटता नहीं है। न वह ढलता है और न विचलित होता है। जो उसके साथ एकरूप होता है, उसका द्वैतभाव समाप्त होता है। इसलिए हे मन, तुम उस अनंत की खोज करो।

अर्क - सत्य (ईश्वर) निराकार है। सत्य ही शाश्वत है। उस निराकार को न तोड़ा जा सकता है और न वह ढलता है। वह स्थिर है इसलिए वह विचलित भी नहीं होता। जिसने सत्य को अनुभव से जान लिया, उसे ज्ञात होता है कि उसके अलावा कुछ है ही नहीं और वह द्वैतबुद्धि से मुक्ति पाता है। इसलिए समर्थ रामदास मन को सत्य की खोज करने का उपदेश देते हैं।

* अंदर तलवार लगी हुई कुबड़ी आज भी सज्जनगढ़ पर देखने को मिलती है।