असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 9 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 9

सशक्त सैनिकीकरण का प्रारंभ

लंबी और निरंतर पैदल यात्रा के पश्चात भी समर्थ रामदास के साहस और उत्साह में कोई कमी नहीं थी। शरीर पर थकान का नामोनिशान तक नहीं था। जितना वे आगे बढ़ते, प्रभु राम की कृपा से उनका मनोबल उतना ही अधिक गहरा होता जाता।

उत्तर भारत के बाद वे पूर्व दिशा की ओर चल पड़े। जगन्नाथपुरी में जब उन्होंने भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का मनोरम दृश्य देखा तो उन्हें विचार आया कि वे भी अपने प्रभु श्रीराम को पालकी में बिठाकर उनकी शोभायात्रा निकालेंगे।

जगन्नाथपुरी में उनकी भेंट एक ब्राह्मण से हुई, जो रामदासजी से काफी प्रभावित हुआ और उसने रामदासी पंथ की दीक्षा ले ली। वहाँ भी समर्थ रामदास ने मठ की स्थापना की और अपनी कार्यशैली अनुसार उस मठ को ब्राम्हण को सौंपकर आगे प्रस्थान किया।

समुद्र तट से होते हुए वे दक्षिण में रामेश्वरम् पहुँचे। स्वयं प्रभु श्रीराम के पावन हाथों से स्थापित शिवलिंग के दर्शन से वे धन्य हो गए। इस शिवलिंग की पूजा के बाद ही रामसेतु निर्माण का प्रारंभ हुआ था।

अपने प्रभु के पदचिन्हों पर चलना उनके लिए बड़ा ही रोमांचभरा अनुभव था। रामेश्वरम् से आगे वे लंका पहुँचे और उन सभी स्थानों के दर्शन किए, जिनका रामायण में वर्णन किया गया है।

वापसी के रास्ते पर उन्होंने तिरुपति बालाजी देवस्थान और महाबलेश्वर के दर्शन किए। वहाँ से कोल्हापुर आकर महालक्ष्मी के दर्शन से वे कृतार्थ हो गए।

कोंकण प्रांत में चिपळुण जाकर भगवान परशुराम के भी दर्शन किए। उनके चरित्र से समर्थ रामदास को हमेशा प्रेरणा मिलती थी। क्योंकि भगवान परशुराम ने महान तपस्वी होते हुए भी ज़ुल्मी और दुष्टों के विरुद्ध शस्त्र उठाया था। न सिर्फ;शस्त्र उठाया बल्कि कई बार उनका विनाश भी किया था। समर्थ रामदास का मानना था कि भगवान परशुराम भी चाहते हैं कि अब मुगलों के विरुद्ध उसी तरह शस्त्र उठाया जाना चाहिए ताकि उनके अत्याचार से समस्त जनता को मुक्ति मिल सके।

इस उद्देश्य पूर्ति हेतु वे जहाँ भी जाते, वहाँ किसी को रामदासी संप्रदाय से दीक्षित करते। मठ की स्थापना कर उसका उत्तरदायित्व उस दीक्षित को सौंपकर वे आगे बढ़ जाते। इस कारण समाज में एक संगठन शक्ति का निर्माण हो रहा था। वे दोबारा उस स्थान पर लौटेंगे या नहीं, उन्हें मालूम नहीं था लेकिन इन मठों द्वारा समाज जागृति और सेवा का कार्य आगे बढ़ रहा था।

ऐसा माना जाता है कि देशभर में उन्होंने लगभग ग्यारह सौ मठ स्थापित किए। उस समय की सामाजिक दशा को देखते हुए यह एक बड़ा ही असंभव लगनेवाला कार्य था। लेकिन ‘समर्थ’ रामदास ने प्रभु राम की भक्ति, दृढ़ इच्छा शक्ति और संकल्प के बल पर इसे संभव बनाया।

जब किसी अव्यक्तिगत लक्ष्य से प्रेरित होकर कुछ करने लगते हैं तो दैवीय शक्तियाँ भी उस संकल्प को पूर्ण करने हेतु मदद करने आ जाती हैं। समर्थ रामदास भी यही अनुभव कर रहे थे।

उन्होंने खासकर महाराष्ट्र प्रांत में कई मठ बनाए। किसी योग्य व्यक्ति को मठाधिपति बनाकर वे आगे चलते गए। इस दौरान उस वक्त की सामाजिक प्रथाओं के विरुद्ध जाकर, उनके द्वारा दीक्षित कई विधवा महिलाओं को भी उन्होंने मठाधीश बनाया। उनके भक्तों में कुछ मुसलमान भी थे, जिनकी कब्रें आज भी सज्जनगढ़ में हैं।

देशाटन का मुख्य उद्देश्य देश की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थिति का आकलन करना, उनके द्वारा सफल हुआ। इस यात्रा में उन्होंने प्रवचन सुननेवालों को कथाओं द्वारा उनके कर्तव्य के प्रति जागृत किया।

इस दौरान अनेक साधु-संतों से वार्तालाप कर, अपने ज्ञान भंडार को भी समृद्ध किया। साथ ही उस ज्ञान भंडार को उन्होंने अपने रचित ग्रंथों द्वारा समाज के लिए खोल दिया। इन ग्रंथों में कहीं उन्होंने व्यावहारिक बातों का ज्ञान दिया है तो कहीं प्रकृति की सुंदरता का भी वर्णन किया है।

लगभग बारह वर्ष तक देशाटन करने के बाद वे दोबारा पंचवटी पहुँचे। वहाँ प्रभु रामचंद्र के चरणों में लेटकर प्रणाम किया और कहा, ‘हे प्रभु, आपकी कृपा से देशभर के संतों से वार्तालाप हुआ, कई तीर्थस्थलों में स्नान भी हुआ। देवी देवताओं का दर्शन हुआ। आज मैं अपना सारा पुण्य आपके चरणों में समर्पित (तपर्पण)* करता हूँ। आपका दिया आपको ही लौटा रहा हूँ। अपने लक्ष्य पूर्ति के लिए मुझे क्या करना चाहिए, यह मार्गदर्शन मुझे आपसे ही मिला। आगे भी आप मेरे साथ रहेंगे, यह मुझे पूर्ण विश्वास है।'

आगे उनका यह जनजागृति का कार्य निरंतर चलता रहा। उन्होंने अपने देशाटन के दौरान रामभक्ति के साथ-साथ हनुमान भक्ति का भी प्रसार किया। उस वक्त देशभक्ति, जनजागृति, धर्मजागृति ये सब बातें करना, स्वयं के लिए मुगलों का संकट आमंत्रित करने जैसा था लेकिन बड़ी ही चतुराई से प्रवचनों द्वारा वे यह कार्य करते रहे।

समर्थ रामदास न सिर्फ एक संन्यासी थे बल्कि एक महान नीतिज्ञ भी थे। वे धर्मभक्तों को अपने प्रवचनों से आकर्षित करते और कीर्तन द्वारा उन्हें उनके कर्तव्यों के प्रति सचेत करते ।

मठ और हनुमान मंदिरों के निर्माण कार्य के साथ-साथ उन्होंने मल्लविद्या सीखने के लिए अखाड़े भी बनवाए। उस परिस्थिति में लोगों को शारीरिक कसरत द्वारा मज़बूत बनाना बहुत आवश्यक था ताकि मुगलों का प्रतिकार करने हेतु एक सशक्त सेना खड़ी हो सके। मुगलों के खिलाफ महाराष्ट्र में सैनिकीकरण की यह शुरुआत थी।

अहंभाव रहित भक्ति में समर्पण आसान है।
समर्पित भक्त ईश्वर के सबसे नज़दीक होता है,
जिसके द्वारा ईश्वर अपने कार्य पूर्ण करता है ।


निराकार आधार ब्रह्मादिकांचा। जया सांगतां सीणली वेदवाचा।
विवेकें तदाकार होऊनि राहें। मना संत आनंत शोधूनि पाहे ॥148॥

अर्थ - परमतत्व निराकार है लेकिन ब्रह्मादि देवताओं का वही आधार है। उसका वर्णन करने के लिए वेद भी कम पड़ते हैं। इसलिए हे मन, तुम विवेक के साथ उस निराकार के साथ एकाकार (उसके आकार में ढला हुआ) हो जाओ, उस शाश्वत परमतत्व की खोज करो।

अर्क - ब्रह्मांड की उत्पत्ति जिससे हुई वह परमतत्व है। वही शाश्वत सत्य है। सभी देवी-देवता, सारी सृष्टि उसी निराकार से उत्पन्न हुई है। उसे जानना, उसके साथ एकरूप होना ही मोक्ष है। लेकिन मन आकार में अटकता है, जब कि वह खुद उस निराकार का ही हिस्सा है। इसलिए समर्थ रामदास मन को विवेक के साथ (आकार से ध्यान हटाकर) निराकार, शाश्वत तत्व की खोज करने का उपदेश देते हैं ताकि यह मन मोक्ष की यात्रा में रुकावट न बने।

जगीं पाहता चर्मचक्षीं न लक्षे। जगीं पाहतां ज्ञानचक्षीं न रक्षे ॥
जगीं पाहतां पाहणें जात आहे। मना संत आनंत शोधूनि पाहें ॥ 149॥

अर्थ - परमतत्व चर्मचक्षु (शारीरिक आँख) से नहीं दिखाई देता। ज्ञानचक्षु द्वारा ही उसे देखा जा सकता है। जब ज्ञानचक्षु द्वारा वह दिखाई देता है तब देखना समाप्त हो जाता है। हे मन, उस अनंत परमतत्व की खोज करो।

अर्क - सत्य, ज्ञानचक्षु (आंतरिक आँख) द्वारा देखा जा सकता है। बाहरी आँखों का दृश्यों में अटकना बंद होता है तो आंतरिक आँख खुलने की शुरुआत होती है। आंतरिक आँख से जब ईश्वर (सेल्फ) को देखा जाता है तो देखनेवाला (दृष्टा), दृश्य और देखने की क्रिया (दर्शन) तीनों एक होकर अद्वैत अवस्था प्रकट होती है। वहाँ देखनेवाला (मैं) विलीन हो जाता है। यह समाधि की परमोच्च अवस्था है। इसलिए समर्थ रामदास मन को उस परमतत्व (ईश्वर) की खोज करने का उपदेश देते हैं।

* जिनकी आज्ञा से तप हुआ, उन्हें ही तप अर्पण करके, उस तप का श्रेय देना। यह भाव जगना भक्त की समर्पित और मासूम भक्ति का लक्षण है।