असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 19 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 19

समर्थ रामदास का अनदेखा रूप

समर्थ रामदास के शिष्य धर्मप्रचार के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में भ्रमण कर रहे थे। उस वक्त महाराष्ट्र का अधिकतर प्रदेश मुगलों के वश में था। सातारा क्षेत्र विज़ापुर के आदिलशाह के नियंत्रण में था।

आदिलशाह का एक दरबारी अधिकारी संगम माहुली में रहता था। वहाँ की हिंदू प्रजा से वह बड़ी बेरहमी से पेश आता। उन्हें प्रताड़ित करता । ब्राह्मण, गोसावी, बैरागी, संन्यासियों को पीड़ाएँ देता। उसने उस क्षेत्र में स्नान-संध्या, पूजा-पाठ, होम-हवन, कथा-कीर्तन आदि धार्मिक कर्म करने पर पाबंदी लगा दी।

उद्धवस्वामी और कुछ अन्य शिष्य उस क्षेत्र में कुछ दिन अपने कार्य हेतु गए थे। उन्होंने कृष्णा नदी में स्नान करके पूजा-संध्या प्रारंभ की। वहीं कृष्णा नदी के घाट पर प्रवचन भी आरंभ किया।

आदिलशाह के अधिकारी को इस बात की खबर मिली। उसने उद्धवस्वामी और अन्य शिष्यों को अपने धर्म प्रचार के अपराध में पकड़कर कोठरी में डाल दिया। उद्धवस्वामी के साथ काफी मारपीट भी की गई। उनमें से एक शिष्य अवसर पाकर वहाँ से भाग निकला और समर्थ रामदास को सारी खबर पहुँचा दी।

समर्थ रामदास तब चाफल में थे। अपने शिष्यों के साथ हुए दुर्व्यवहार की वार्ता सुनकर वे क्रोधित हो गए। कल्याणस्वामी से बाँस की छड़ी मँगवाकर वे तुरंत माहुली की तरफ चल पड़े। बिना रुके चलते हुए, सूर्यास्त के समय वे माहुली पहुँचे और उस अधिकारी का ठिकाना खोजने लगे। समर्थ रामदास के निरपराध शिष्यों को प्रताड़ित करने की भूल उस निर्दयी अधिकारी को बहुत भारी पड़नेवाली थी।

उसके घर का पता कर, समर्थ रामदास सीधे वहाँ जा पहुँचे। वह अधिकारी मज़े से बरामदे में बैठकर हुक्का पी रहा था। स्वामी जी ने जाकर एकाएक उसकी गरदन पकड़ी और उससे आँख मिलाए उसके सामने खड़े हो गए।

समर्थ के हाथ की पकड़ इतनी मज़बूत थी कि वह अधिकारी अपनी गरदन छुड़ा नहीं पा रहा था। उन्होंने अगले ही क्षण उसे ज़मीन पर गिराया और बाँस की छड़ी से उसकी पिटाई शुरू कर दी।

देखनेवाले लोग समझ ही नहीं पाए कि यह क्या हो रहा है। उसके रक्षक भी इस अचानक हुए हमले से सन्न रह गए। पिटाई इतनी तेज गति से शुरू हुई कि रोकने की कोशिश करनेवालों को भी मार सहनी पड़ी। उनका उग्र रूप देखकर कोई बीच-बचाव करने का साहस नहीं जुटा पाया।

समर्थ रामदास का ऐसा रूप पहले किसी ने नहीं देखा था। मानो भक्त प्रह्लाद को बचाने नारायण ने नरसिंह बनकर दोबारा अवतार लिया था।

अधिकारी के शरीर से रक्त बहने लगा। मार खा-खाकर उसकी चमड़ी उधड़ गई। समर्थ के वार से वह अधमरा सा हो गया। रहम की भीख माँगते हुए उसने समर्थ रामदास के चरण पकड़ लिए। 'रहम बाद में, पहले मेरे निरपराध शिष्यों को अपनी कोठरी से बाहर निकाल!' समर्थ की आवाज गूंजी।

अधिकारी ने तुरंत अपने सेवकों को आदेश दिया और कुछ ही समय में उद्धवस्वामी समेत बाकी शिष्यों को समर्थ रामदास के सामने लाकर कैद मुक्त किया गया। उद्धवस्वामी समेत सभी शिष्यों ने अपने गुरुदेव के चरण पकड़ लिए।

उस मुगल अधिकारी ने कुरान पर हाथ रखकर कसम खाई कि वह आइंदा कभी किसी संन्यासी या सर्वसामान्य जनता को प्रताड़ित नहीं करेगा और न ही अन्याय और जुल्म के बल पर किसी का ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन करवाएगा। इसके बाद वहाँ की पूजा-पाठ और हिंदू धार्मिक कृत्यों पर लगी पाबंदी भी हटा दी गई।

इसके पश्चात गुरुदेव ने विशाल हृदय से उस अधिकारी को क्षमा कर, अपने हाथों से उसके घावों का उपचार भी किया।

गुरु को ईश्वर का तारक रूप माना जाता है। वे आत्मज्ञान देकर लोगों को भवसागर पार करवाते हैं। लेकिन वही तारक परिस्थितिवश मारक रूप भी धारण कर सकता है। इंसान के उद्धार के लिए ईश्वर के ये दोनों रूप आवश्यक हैं। इसलिए इन दोनों रूपों की उपासना आज तक लोग करते आए हैं।

असली गुरु मन के हर विकार के पार होता है। शिष्यों के उद्धार में उन्हें क्रोध भी करना पड़े तो वह सात्विक क्रोध (क्रोध का अभिनय) है।

जया मानला देव तो पूजिताहे। परी देव शोधूनि कोणी न पाहे ॥
जगी पाहता देव कोट्यानुकोटी। जया मानली भक्ति जे तेचि मोठी॥178॥

अर्थ - इंसान जिसे भगवान मान लेता है उसी को पूजता रहता है। इस प्रकार दुनिया में करोड़ों भगवान बन गए हैं। इंसान जिस पर श्रद्धा रखता है उसी भगवान को सबसे ऊपर मान लेता है। लेकिन असली भगवान की खोज कोई भी नहीं करता।

अर्क - इंसान ईश्वर की मूर्ति को भगवान मानकर उसकी पूजा, अर्चना और कर्मकाण्ड करने को ही ईश्वर की भक्ति मान लेता है। जितने जाति-धर्म-पंथ, उतने भगवान लोगों ने बना लिए हैं और किसका भगवान श्रेष्ठ इस बात को लेकर वाद-विवाद करते हैं। जबकि ईश्वर तत्त्व एक ही है जो पूरे ब्रह्माण्ड को चलाता है। अपने हृदय स्थान से जुड़कर ईश्वर की खोज करना ही असली भक्ति है।

तिन्ही लोक जेथूनि निर्माण झाले । तया देवरायासि कोणी न बोले ॥
जगी थोरला देव तो चोरलासे । गुरूवीण तो सर्वथाही न दीसे।।179॥

अर्थ - जिस ईश्वर से जग का निर्माण हुआ है उसके बारे में कोई भी नहीं सोचता। वह सर्वश्रेष्ठ ईश्वर गुप्त (अव्यक्त) है। गुरुकृपा के बिना उसे जान पाना संभव नहीं है।

अर्क - लोग ईश्वर के बारे में कल्पना करते हैं कि वह दूर कहीं आसमान में बैठा हुआ है, जहाँ से वह जग को चला रहा है। जबकि यह कल्पना ही ईश्वर की खोज में बाधा है। दरअसल यह ब्रह्मांड जिसकी उपस्थिति से निर्मित है वह चैतन्य ईश्वर है। वह गुप्त, अव्यक्त नहीं है और न ही कहीं दूर आसमान में बैठा है। वह विश्व के कण-कण में समाया है। सारे देवी देवता, सारे वेद शास्त्र, सभी धर्मग्रंथ उसी से उत्पन्न हुए हैं। इंसान की सीमित बुद्धि से यह बात केवल जानी जा सकती है लेकिन इसकी अनुभूति होना केवल गुरुकृपा से ही संभव है।