असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 18 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 18

भक्ति के आदर्श कल्याण स्वामी

एक बार कोल्हापूर में समर्थ रामदास का कीर्तन चल रहा था। तब नाशिक के कृष्णाजीपंत कुलकर्णी की पत्नी रखुमाबाई अपने भाई पाराजीपंत और बच्चे अंबाजी व दत्तात्रेय के साथ कीर्तन सुनने आई थीं। पूरे परिवार ने वहाँ समर्थ रामदास से अनुग्रह किया और उनके साथ तीर्थयात्रा पर चल पड़े।

तीर्थयात्रा करते हुए वे शिरगाँव पहुँचे। वहाँ एक मठ स्थापित करके, उसका उत्तराधिकारी दत्तात्रेय को बनाकर रामदास और शिष्य आगे चल पड़े। उनकी माता रखुमाबाई दत्तात्रेय के साथ वहीं रुक गईं लेकिन अंबाजी सबके साथ आगे चल दिए। समर्थ रामदास के साथ ही वे हर पल रहने लगे।

एक बार मसूर ग्राम में रामनवमी की शोभायात्रा चल रही थी। तब प्रभु राम के रथ मार्ग में एक पेड़ की बड़ी शाखा रुकावट बन गई। समर्थ रामदास ने अपने उपस्थित शिष्यों को वह शाखा तोड़ने की आज्ञा दी। लेकिन जो वह शाखा तोड़ेगा, उसका नीचे गहरे कुएँ में गिरना निश्चित था।

अंबाजी ने एक पल का भी विलंब न करते हुए कुल्हाड़ी उठाई और उस शाखा को तोड़कर रथयात्रा का मार्ग खोल दिया। स्वाभाविक ही अंबाजी कुएँ में गिर पड़े और शोभायात्रा आगे चली गई।

शाम को जब शोभायात्रा संपन्न हुई तब सबको याद आया कि अंबाजी कुएँ में गिर पड़े थे और उसके बाद उन्हें कहीं देखा नहीं गया है। समर्थ रामदास और सभी शिष्य कुएँ की तरफ दौड़े। वहाँ चलकर समर्थ रामदास ने कुएँ में झाँककर पुकार लगाई, 'अंबाजी, कल्याण है?' कुएँ के अंदर से जवाब आया, 'हाँ स्वामी, आपकी कृपा से कल्याण है।' उस दिन से अंबाजी 'कल्याण' बन गए। गुरु के आदर्शों पर चलते हुए, कठोर साधना करते हुए आगे वे ‘स्वामी’ पद पर पहुँचे।

समर्थ रामदास ने, कल्याण स्वामी की स्वामीनिष्ठा की कई बार परीक्षा ली। हर बार वे कसौटी पर खरे उतरे। उनकी परीक्षा की कई कथाएँ बताई जाती हैं। कहीं वे अपने स्वामी का हवा से उड़ा हुआ गमछा (कंधे पर ओढ़ा जानेवाला वस्त्र) पकड़ने पहाड़ से कूद पड़े तो कहीं गुरु आज्ञा का पालन करते हुए अंधेरी रात में जंगल पहुँचे, जहाँ वे नाग दंश से मूर्छित हो गए। अगली सुबह समर्थ रामदास ने उनका विष उतारकर उन्हें सचेत किया।

कल्याण स्वामी ने अपना सारा जीवन समर्थ सेवा में अर्पित किया था। जिनके आराध्य प्रभु श्रीराम थे, वे समर्थ रामदास स्वयं कल्याण स्वामी के आराध्य थे। जैसे रामभक्त हनुमान वैसे ही समर्थ भक्त कल्याण!

कल्याण स्वामी के हस्ताक्षर बहुत सुंदर थे। उनकी लिखावट मोतियों की खूबसूरत माला की याद दिलाती थी। समर्थ रामदास की तरह कल्याण स्वामी की भी काया मज़बूत थी। नदी की बाढ़ में छलाँग लगाना उनका पसंदीदा खेल था। कहा जाता है कि सज्जनगढ़ पर पहाड़ी की चोटी से वे नीचे खाई में भी छलाँग लगाते थे।

पातंजल योग का विशेष अभ्यास होने की वजह से उन्हें 'योगीराज' कहा जाता था। वे एक निपुण चित्रकार भी थे। उनकी झोली में हमेशा लेखन साहित्य तैयार रहता था। लेखन के लिए कागज और स्याही वे स्वयं ही तैयार करते। समर्थ वाणी से निकले हुए प्रवचनों से सैकड़ों श्लोक वे एक दिन में लिख देते। उनकी लिखावट में समर्थ रामदास का साहित्य और उनके द्वारा बनाए गए चित्र आज भी उपलब्ध हैं।

एक उत्तम कीर्तनकार, प्रतिभावान कवि, महान योगी और निष्ठावान शिष्य कल्याण स्वामी एक आदर्श गुरुभक्त थे। अपने इन्हीं गुणों की वजह से वे समर्थ रामदास के पट्टशिष्य थे।

वे अपना अधिकतर समय गुरु सेवा में व्यतीत करते। अन्य शिष्य उनकी यह दिनचर्या देखकर हैरान होते थे कि कल्याण न तो कभी ध्यान लगाते हैं, न ही श्लोक याद (पाठ) करते हैं। अध्यात्म से जुड़ा कोई भी कार्य उनसे नहीं होता। बस सारा दिन पानी भरना, सफाई करना, गुरु के वस्त्र धोना, उनके चरण दबाना आदि कार्यों में वे अपना समय व्यतीत करते थे।

इस वजह से बाकी शिष्य उनका मज़ाक उड़ाते हैं, यह बात एक दिन समर्थ रामदास को पता चली। गुरु न सिर्फ शिष्यों की परीक्षा लेते हैं बल्कि कठिन समय में उनका आश्रय भी बनते हैं। समर्थ रामदास ने कल्याण सहित सभी शिष्यों को बुलाया और एक श्लोक का उच्चारण आरंभ करके उसे अधूरा छोड़ दिया। कल्याण स्वामी ने तुरंत उस आधे श्लोक को पूरा कर दिया। एक-एक करके समर्थ रामदास ने अनेक श्लोक पढ़े और कल्याण स्वामी उन्हें पूरा करते गए। सभी शिष्य यह देखकर हैरान रह गए कि कल्याण के पास इतना ज्ञान कहाँ से आया!

समर्थ रामदास ने संसार से जुड़े अनेक विषयों पर अनमोल ज्ञान दिया। कल्याण स्वामी अपनी दिनचर्या का बड़ा हिस्सा उनके प्रवचनों को लेखनबद्ध करने में व्यतीत करते। वर्तमान में समर्थ रामदास द्वारा कथित जितना भी साहित्य उपलब्ध है, उनमें से बड़ा हिस्सा कल्याण स्वामी की लेखनी की ही देन है।

लगभग 30 वर्षों तक कल्याण स्वामी समर्थ रामदास के सान्निध में रहे। फिर गुरु की आज्ञा से ही रामदासी संप्रदाय का प्रचार-प्रसार करने हेतु उनसे अलग हो गए। उन्होंने लगभग 250 रामदासी मठों की स्थापना की। अपने गुरुमुख से निकले श्लोकों को अक्षरबद्ध करने की उनकी कला ने ही समाज को 'दासबोध' जैसा महान ग्रंथ दिया। एक अतुलनीय गुरु की उसके अप्रतीम शिष्य के द्वारा की हुई सेवा, साहित्य रूप में आज भी समाज का उद्धार कर रही है।

गुरुआज्ञा के प्रति समर्पण शिष्य का बेहतरीन गुण है।
जो अहंभाव रहित है उसके लिए गुरु आज्ञा पर चलना सहज है।


स्फुरे वीषयी कल्पना ते अविद्या । स्फुरे ब्रह्म रे जाण माया सुविद्या॥
मुळी कल्पना दो रुपे तेचि जाली। विवेके तरी स्वस्वरूपी मिळली ॥172 ।।

अर्थ - जिस कल्पना से विषयों को उत्तेजना मिलती है, वह कल्पना अविद्या है। जिस कल्पना से परब्रह्म का आकर्षण बढ़ता है, वह सुविधा है। ये एक ही कल्पना के दो रूप हैं। विवेक के साथ कल्पना करते हैं तो वह स्वस्वरूप से मिलवाती है।

अर्क - कल्पना यदि सत्य से दूर ले जाती है तो वह अभिशाप है। कल्पना सत्य की ओर ले जाती है तो वह आशीर्वाद है। बड़े से बड़े निर्माण कार्य का आधार कल्पना है, यदि सही समझ है तो। वरना कल्पना गलतफहमी का मूल भी है। कल्पना करना मनुष्य के मन का गुण है। यह गुण जीवन में वरदान बने या अभिशाप, यह इंसान के विवेक पर निर्भर करता है।

स्वरूपी उदेला अहंकार राहो। तेणे सर्व आच्छादिले व्योम पाहो ॥
दिशा पाहता ते निशा वाढता हे। विवेके विचारे विवंचूनि पाहे ॥173 ॥

अर्थ - स्वरूप में जब अहंकार उत्पन्न होता है तो वह राहु यानी एक पाप ग्रह की तरह देखते ही देखते सारा आसमान व्याप लेता है। इससे असली स्वरूप ढक जाता है और उस पर अज्ञान का अंधकार छा जाता है। इसलिए हमेशा विवेक धारण करके स्वस्वरूप की खोज करो।

अर्क - अहंकारी इंसान आत्मज्ञान से बहुत दूर होता है। जिस तरह काले बादल आसमान को ढक देते हैं अहंकार का अंधकार भी इंसान को अपने असली स्वरूप का दर्शन होने नहीं देता। अहंकार की वजह से इंसान ‘मैं सब जानता हूँ’ इसी भ्रम में जीवन बिताता है। इसलिए समर्थ रामदास विवेक के साथ अहंकार का त्याग करने का उपदेश देते हैं।