महावीर लचित बड़फूकन - पार्ट - 4 Mohan Dhama द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

महावीर लचित बड़फूकन - पार्ट - 4


राजदूत ने दिल्ली लौट कर सारी बातें औरंगजेब को बता दीं। वह क्रोधाग्नि से जल उठा। उसने निश्चय किया कि वह घमंडी असमियों को सबक सिखायेगा । औरंगजेब बहुत धूर्त व कपटी राजा था। उस समय शिवाजी आगरा से भागने में सफल हो गये थे। औरंगजेब को राम सिंह पर संदेह था कि उसने शिवाजी को भाग जाने में मदद की है।

फिर भी उसने राम सिंह को बुलाया और उसे असम पर आक्रमण का संचालन व नेतृत्व सौंप दिया। असम में जाना ही एक भयभीत करने वाली बात थी। असम काले जादू का गढ़ माना जाता था। वहाँ का वातावरण भी स्वास्थ्य के लिये अच्छा नहीं था ।

कपटी औरंगजेब ने सोचा कि यदि रामसिंह असम विजय में असफल हुआ तो मारा जायेगा और यह अच्छा ही होगा। एक काफिर को सबक मिलेगा। यदि वह असम विजय में सफल हो जाता है तो यह भी अच्छी बात होगी। इसमें मूर्ख असमियों का आदर व प्रतिष्ठा - दोनों मिट्टी में मिल जायेंगी।

उधर रामसिंह भी यह जानता था कि असम आक्रमण का दायित्व उसे दण्ड के तौर पर दिया जा रहा है। उसने वहाँ जाने के लिए एक शर्त रखी - 'जहाँपनाह, असम की भूमि जादूगरों से भरी है। इसलिए मुझे अपने साथ एक साधु को ले जाने की आज्ञा दी जाये क्योंकि वह दैवी शक्ति से युक्त होगा और काले जादू से निपटने के लिए मेरी सहायता कर सकेगा। '

औरंगजेब इसके लिए राजी हो गया। रामसिंह ने सिक्खों के नौवे गुरु तेगबहादुर को साथ भेजने की प्रार्थना की। राम सिंह यह जानता था कि औरंगजेब गुरु तेगबहादुर का शत्रु है और वह उन्हें मार डालने के लिए किसी बहाने की तलाश में है। गुरु तेगबहादुर राम सिंह का साथ देने के लिये तैयार हो गये। राम सिंह ने त्रेसठ हजार सिपाहियों को अपने साथ लिया। उसके सैन्य बल में शूरवीर घुड़सवार एवं तोपों का भरपूर समावेश था। रामसिंह ने ढाका पहुँच कर वहाँ के नवाब से मदद माँगी। नवाब ने इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया। राम सिंह की सेना में धीरे-धीरे तीन लाख सैनिक हो गये। इस विशाल सैन्य दल-बल को लेकर वह हिन्दू राज्य पर आक्रमण करने के लिये निकल पड़ा।

अगले दिन लचित को अहोम दरबार में बुलाया गया। लचित दरबार में उपस्थित हुआ। वह जैसे ही घुटने के बल राजा के समक्ष बैठा, एक रक्षक ने उसका शिरस्राण निकाल लिया और दूर भाग गया। लचित को उस पर बहुत क्रोध आया। उसने यकायक रक्षक का पीछा किया और सिंहासन के पीछे उसे जा पकड़ा। वह रक्षक का सिर उड़ा देना चाहता था, परन्तु राजा ने उसे रोका। लचित तिलमिला कर बोला- 'मेरा शिरस्राण इस रक्षक ने निकाल लिया। किसी भी योद्धा के लिये यह अपमान असहनीय है। यह मेरे आत्मसम्मान का प्रश्न है। '

राजा ने मुस्कुराते हुये उसे यह कहकर शांत किया कि यह सब उसके ही आदेश पर हुआ था। वास्तव में, वह ऐसे व्यक्ति की खोज में था जो स्वाभिमानी हो और अपने सम्मान को अपने जीवन से भी श्रेष्ठ मानता हो उसे ऐसे ही व्यक्ति की तलाश थी और वह इस परीक्षा में सफल हुआ। इस प्रकार, लचित को प्रमुख सेनापति (बड़फकन) के पद पर नियुक्त किया गया। लचित को यह जानकर हर्ष हुआ। उसे एक अवसर मिल गया था जिससे वह मुगलों से अपनी पिछली हार का बदला ले सके ।

लचित अब बड़फूकन अर्थात् प्रमुख सेनापति था। उसने राजा को वचन दिया कि वह मुगलों को देश से बाहर निकाल कर ही रहेगा। अहोम सेना लचित के नेतृत्व में हथियारों से लैस नावों में ब्रह्मपुत्र नदी पर चल पड़ी। सेना सराई घाट पहुँची। रास्ते में छोटे-बड़े प्रदेशों को जीतते हुये सेना आगे बढ़ती गई । इटाखुली (गुवाहाटी के निकट) के किले में मुगल सरदार सैय्यद फिरोजखान पड़ाव डाले हुए था। उसे अपने गुप्तचरों से यह समाचार मिला कि अहोम सैनिकों का बड़ा आक्रमण किसी भी समय हो सकता है।

मुगल सरदार युद्ध की तैयारी करने लगा। लचित के सैनिकों का स्वागत उसने अपनी तोपों से ही किया। उसकी तोपें आग उगल रही थीं। अहोम सेना के लिये तोपों के मुँह बंद कराये बिना युद्ध में जीत संभव नहीं थी।

बहुत सोच-विचार कर लचित ने उसी रात्रि को अपने गुप्तचरों को एकत्रित किया और अपनी योजना बनाई। गुप्तचरों को दो दलों में बाँटा गया तथा उन्हें अलग-अलग दिशाओं से इटाखुली की ओर भेजा गया।

मध्यरात्रि के समय अचानक एक ओर से गोलियाँ चलने की आवाज सुनकर मुगल सेना चकित रह गई। मुगल सरदार अपने साथियों को लेकर उस ओर भागा। इसी अवसर की ताक में रहे लचित के गुप्तचरों के दूसरे दल ने तोपों का मुँह पानी से भर दिया और वहाँ से भाग गये।

दिन निकलते ही लचित बड़फूकन की सेना ने किले पर आक्रमण कर दिया। अहोम सैनिकों को किले पर चढ़ते देख मुगल सरदार को आश्चर्य हुआ। उसने तोपों से शत्रुओं का नाश करने की आज्ञा दी। परंतु यह क्या ? एक भी तोप नहीं चली।

लचित के बहादुर सैनिकों का आक्रमण इतना भीषण था कि मुगल सेना के होश उड़ गये। चारों ओर खलबली मच गई। लचित के सैनिकों ने आगे बढ़कर किले का दरवाजा खोल दिया।

लचित के अंदर प्रवेश करते ही उसकी जयजयकार से पूरा वातावरण गूँज उठा ।

लचित बड़कन की यह अद्भुत विजय गाथा सुनकर राजा को अपार आनंद हुआ।

कुछ समय बाद मुगल सेना पश्चिमी असम में प्रविष्ट हो गई। पहले उसने धुबड़ी में पड़ाव डाला । गुरु तेगबहादुर धुबड़ी में गुरुद्वारे का निर्माण करने के लिये रुक गये। धुबड़ी में वह गुरुद्वारा आज भी है। रामसिंह ने आगे कूच किया और हाजों में पड़ाव डाला जो कि गुवाहाटी से 22 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में है।

राम सिंह ने हाजों में हयग्रीव माधव मंदिर और केदार पहाड़ी के केदारनाथ मंदिर में पूजा अर्चना की। उसके बाद युद्ध की रणनीति बनाने में का विचार किया। शीघ्र ही वर्षाऋतु आ गयी।

मुगल सेना आसाम की मूसलाधार वर्षा की अभ्यस्त नहीं थी। बड़े पैमाने पर मलेरिया फैलने लगा। लचित होशियारी से गुवाहाटी किले की सुरक्षा कर रहा था। उसने अपना पड़ाव शुक्रेश्वर पहाड़ी के पास डाला । यहीं से उसने अपनी रणनीति बनायी।