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घर बड़ी खूबसूरती से सजाया गया था| यह ऐसी कॉलोनी में था जो बड़ी व प्रतिष्ठित कॉलोनियों में शामिल थी यह जगह! प्रतिष्ठित लोग रहते थे यहाँ| कुछ तो बड़े व्यापारी वर्ग के लोग थे और कुछ बड़े आई.ए.एस, आई.पी.एस जैसे ऑफ़िशियल्स ! माहौल में एक नफ़ासत तो थी जो मुझे पसंद आ रही थी| जितना मैं देख और समझ पाई थी लोगों का लिविंग-स्टेंडर्ड डिसेन्ट लग रहा था हमारी कॉलोनी के अन्य बंगलों की तरह,लेकिन उनमें भी कितने लोगों के भीतर की बात जब हमें मालूम चली थीं, कभी ऐसा भी महसूस होता कि सड़क पार के मुहल्ले में से कुछ लोगों का समावेश तो नहीं हो गया था इनमें| अरे ! सब जगह सब तरह के लोग रहते हैं न! कोई पुराने शिक्षित और खानदानी रईस होते हैं तो कोई नए शिक्षित व नए रईस भी तो होते हैं| मेरा दिमाग तो खराब था जो बेकार की ऐसी अनर्गल बातें सोचता ही रहता था जो सच कहो तो अर्थहीन ही होती हैं|
प्रमेश मुझे अपना पूरा घर घुमा लाया था,हर कमरे में एक दीवार पर लगी सुंदर पेंटिंग्स,कोने में कहीं बड़े सुंदर वॉज़ या कहीं स्टेंडिंग लंबे लैंप शेड्स थे,किसी में बुद्धा की बड़ी सी ब्रास की सोने सी चमकदार स्टेच्यु तो किसी कमरे में कटग्लास की बड़ी सी मॉडर्न मूर्ति!बरामदे में फूलों के गमलों के साथ रखी हुई खुदाई में से निकली हुई बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ भी मैं देखकर आई थी| पूरे घर की सजावट में कोई कचर-पचर नहीं थी | इतना वैल-डेकोरेटेड स्टेंडर्ड घर देखकर मैं विस्मित थी| इस घर को मेन्टेन करने में काफ़ी पैसे की भी ज़रूरत थी---मेरे सामने प्रश्न भी आ खड़े हुए थे लेकिन मैं प्रमेश से कुछ नहीं पूछना चाहती थी| घर दिखाते हुए उसने ,मुझे पेंटिग्स से परिचय भी कराया था जिसे शायद मैं एक कान से सुनकर दूसरे से निकालती जा रही थी| सब देखते हुए हम किचन की ओर आ गए थे| मन में मैं सोच रही थी कि इतना पैसा है लोगों के पास?मैं अपने परिवार व दूसरे परिवारों की तुलना नहीं कर रही थी लेकिन मन में कुछ ऊहापोह सी तो हो रही थी| सब कुछ ठीक होते हुए भी मैं प्रमेश से बिलकुल प्रभावित नहीं हुई थी|
रसोईघर में आकर देखा,जितनी सुंदर किचन,उतना ही खूबसूरत डाइनिंग स्पेस!आधुनिक घरों में इस प्रकार के किचन को ‘मॉड्यूलर किचन’ कहा जाता है| हमारे संस्थान का रसोईघर बहुत बड़ा और आधुनिक बन चुका था लेकिन हमारे डाइनिंग से दूर था और यह किचन के अंदर ही था| खुला हुआ स्पेस ! डाइनिंग टेबल पर इतने सारे व्यंजन सजे हुए थे कि मुझे महसूस हुआ जैसे कोई दावत का इंतज़ाम किया गया हो|
“लो,अम्मा-बाबा भी आ गए----”अचानक प्रमेश की दीदी चहककर बोलीं| उन्होंने किचन की खिड़की में से बाहर देखकर कहा था जहाँ से उनका मेन गेट दिखाई देता था|
“अम्मा-बाबा?” मैं चौंकी| ये क्यों और कैसे ?
“तुम एक बात जानता है अमी,यहाँ से मुश्किल से तुम्हारा संस्थान का रास्ता बीस मिनिट का है शॉर्ट कट से?”मुझे क्या और क्यों जानना चाहिए था| उनकी गोल-गोल कई बातें मेरी समझ में बिलकुल नहीं आ रही थीं| उन्होंने अम्मा-पापा को कब और क्यों बुला लिया?वह भी बिना मेरे से पूछे या मेरे नॉलिज के बिना| मेरा मन अजीब सा तो हो रहा था लेकिन न जाने क्या हुआ था कि मैं न तो उनसे कुछ पूछ पा रही थी और न ही विरोध कर पा रही थी?वे प्रमेश को इशारा करके सिटिंग रूम की ओर आ गईं| प्रमेश अपनी बहन के इशारे के पीछे चला तो मैं पागलों की तरह उनके पीछे-पीछे चलकर वहाँ आ गई जहाँ सब थे|
अम्मा-पापा अंदर आ गए थे,पीछे उनका खास ड्राइवर भी था जिसके हाथ में कुछ मिठाई के डिब्बे और एक सजी हुई फ़लों की टोकरी थी| ’ये सब क्या था?’अब मेरा माथा ठनकने लगा| ये हो क्या रहा था?लेकिन मुँह से शब्द क्यों नहीं निकल रहे थे जैसे किसी ने कोई बाँध लगा दी हो और वह बाँध इतनी मजबूत थी कि उसके बाहर जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था|
“आइए---”प्रमेश की दीदी ने अम्मा को गले लगा लिया| क्या था यह सब?जैसे ही अम्मा-पापा बैठे उनके सामने उसी वाले शर्बत के ग्लास आ गए जो शर्बत हमने कुछ देर पहले पीया था|
“लीजिए,हम खास तौर पर सामने बनवाता हाय----केवल घर वालों का वास्ते---”उनके कुछ-कुछ शब्द मुझे तब से ही भ्रमित कर रहे थे जब से मैं यहाँ आई थी| जब तक प्रमेश ने मुझे दीदी से मिलने के लिए नहीं कहा था,सब नॉर्मल था लेकिन जैसे ही प्रमेश ने मुझसे अपनी दीदी से मिलने के लिए कहा और मैं अम्मा से पूछकर उनसे मिलने के लिए तैयार हो गई सब कुछ अजीब सा हो रहा था| पहली बार किसी के घर जाने पर कैसे कोई अचानक इतना घुल-मिल सकता है जितना ये दीदी दिखा रही थीं | इनके कुछ शब्दों व व्यवहार ने जैसे मेरे सिर पर कुछ प्रहार सा करना शुरू कर दिया था लेकिन क्या अम्मा-पापा की इनके साथ कोई मिली भगत थी?मेरे अम्मा-पापा हमेशा दूसरों के लिए अच्छा करने वाले रहे थे,उन्होंने कभी किसी पर किसी बात के लिए ज़ोर डाला ही नहीं था| हम बच्चे तो ठीक,उन्होंने कभी किसी एम्पलॉइ को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध काम करने के लिए बाध्य नहीं किया था| आज क्या हो गया था इन लोगों को ---
अम्मा-पापा नॉर्मल लग रहे थे,उन्होंने शर्बत के ग्लास हाथों में लेकर सिप करना शुरू कर दिया था और उनके चेहरों पर मुस्कान थी| क्या चल रहा था?लेकिन हो रहा था कुछ बहुत अलग, बहुत अजीब सा जिसे रोकने के लिए कोई चीज़ आड़े नहीं आ रही थी| मन कर रहा था कि उठकर बाहर भाग जाऊँ,मगर-अगर था सब कुछ| साहस ही नहीं हो रहा था कुछ भी करने, बोलने का! क्यों भला?
शर्बत क्या था जादू था जैसे कोई!अम्मा-पापा के सिर पर चढ़कर जैसे कोई जादू बोलने लगा था|
“बहुत प्रतीक्षा हो गया,हमको लगता है प्रोमेश आऊर अमी का संबंध बहूत अच्छा रहेगा| ”प्रमेश की बहन ने कहा और कोई कुछ नहीं बोला| मेरी तो खुद भी बुद्धि से परे था सब कुछ| मैं खुद भी एक आज्ञाकारी की तरह बैठी रही थी| प्रमेश की बहन जो सुंदर शनील का डब्बा लिए बैठी थीं, उसमें से उन्होंने उस डिब्बे को खोलकर बंगाल की नक्काशी के सुंदर मोटे-मोटे कड़े निकाले और उन्हें लेकर मुझ तक आ गईं|
“लो अमी,तुम्हारे लिए---”उन्होंने मेरे हाथ पकड़कर मुझे कड़े पहनाने शुरू किए जिनका सिरा मछली के आकार का था| क्या हो रहा था यह सब? हम सब ऐसे बैठे थे जैसे हमारी गर्दन में डोरियाँ हों और हम सब उसी ओर गर्दन घुमा रहे थे जिधर प्रमेश की दीदी घुमवा रही थीं|
“बट व्हाई ?”मैंने प्रमेश की बहन से पूछने की कोशिश की फिर अपने अम्मा-पापा की ओर देखा जो न जाने किस मुद्रा में बैठे थे| मेरी बात का कोई उत्तर नहीं मिला और मैंने देखा मेरे हाथों में वे भारी कड़े थे| मैं अपने हाथों में कड़े देख रही थी और कोई कुछ नहीं कर पा रहा था न कोई कुछ बोल पा रहा था?
क्या था यह सब?अचानक मुझे वे कड़े ऐसे लगने लगे मानो मेरे हाथों में हथकड़ी पहना दी गई हों| अजीब से पशोपेश में दीदी हम सबको खाने की मेज़ तक ले आई थीं जहाँ गरमागरम खाना परोसा जा रहा था| हम सब आराम से बैठकर खाने लगे थे जैसे कुछ भी अजीब नहीं हुआ था| हम वाकई एक ऐसी कठपुतली बन चुके थे जिनका अपना मानो कोई अस्तित्व ही नहीं था|