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सुग्रीव मित्र हनुमान

हनुमान का स्मरण करने वाला विख्यात हो जाएगा और उसे बुद्धि, बल और साहस की प्राप्ति होगी, वह भय और रोग से मुक्त हो जाएगा तथा वाक्पटुता में पारंगत हो जाएगा। —हनुमन स्तोत्र

सुग्रीव, हनुमान को अपने साथ लेकर किष्किंधा पहुँच गया। वहाँ उसने हनुमान को बाली से मिलवाया और बताया किस प्रकार हनुमान ने वन्य पशुओं से उसकी रक्षा की थी। उसने बाली से हनुमान की महानता का उल्लेख भी किया। पहले तो बाली को हनुमान पर संदेह हुआ क्योंकि उसने हनुमान को बचपन में मारने का प्रयास किया था जिससे वह बड़ा होकर बाली से उसका सिंहासन न छीन ले, परंतु जब बाली को पता लगा कि हनुमान अच्छे गायक हैं तो उसने हनुमान को गाने के लिए कहा। हनुमान ने वीणा उठाई और गाना आरंभ कर दिया। उनका संगीत सुनकर सारा दरबार परम आनंद में खो गया। संगीत के सुर जब दरबार से बाहर पहुँचे तो सभी वानर अपना काम छोड़कर हनुमान की आवाज़ से मंत्रमुग्ध होकर वहाँ आ गए। बाली भी बहुत प्रसन्‍न हुआ और उसने हनुमान को हमेशा के लिए वहाँ रहने की अनुमति दे दी।

सुग्रीव हनुमान को किष्किंधा दिखाने ले गया। जब वे ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे तो हनुमान उस स्थान के शांतिपूर्ण वातावरण से स्तब्ध रह गए और उन्होंने सुग्रीव से कहा कि वह स्थान निश्‍चय ही बहुत पवित्र है। सुग्रीव ने सहमति जताई लेकिन दुखी स्वर में यह भी बताया कि उसके भाई बाली के लिए वहाँ जाना वर्जित है। हनुमान द्वारा इसका कारण पूछने पर सुग्रीव ने उन्हें पूरी कथा सुनाई।

एक बार दुंदुभि नाम का दैत्य ब्रह्मा से बहुत-से वरदान प्राप्त करने में सफल हो गया। उनमें से एक वरदान यह था कि वह किसी भी शस्त्र से नहीं मारा जाएगा। अनेक वरदान मिलने के बाद वह देवताओं को परास्त करने तथा पृथ्वी के राजाओं व ऋषियों को परेशान करने के लिए निकल पड़ा। उसके हाथ हमेशा लड़ने के लिए उतावले रहते थे और उसे कभी कोई अपने बराबर का प्रतिद्वंद्वी नहीं मिल पाता था। जब लड़ने की उसकी उत्कट इच्छा, उसके लिए असहनीय हो गई तो वह पाताल लोक से बाहर निकलकर, समुद्र को चीरता हुआ तट पर आ गया। उसने अपने सींग रेत में गड़ा दिए और सागर की लहरों को देखकर चिल्लाया, “मुझसे लड़ो!” परंतु लहरें पहले की तरह सिर्फ़ आती-जाती रहीं। उन्हें दुंदुभि के वहाँ होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता था।

समुद्र के लंबे गीले हाथ फुफकारते हुए दुंदुभि के पैरों को घेर रहे थे, मानो उसे चेतावनी दे रहे हों कि वह लौट जाए अथवा डूब जाएगा। इसके बाद एक बड़ी-सी उफनती झागदार लहर धीरे-धीरे उसके निकट आ गई। दंदुभि ने सोचा कि पीछे हट जाने में ही उसकी भलाई थी।

उसके बाद वह शिव के समान श्‍वेत बर्फ़ीले हिमालय पर्वत पर गया। वह बर्फ़ से ढँकी पहाड़ियों पर तेज़ी से ऊपर चढ़ता हुआ अपने सींगों से पर्वत के किनारे तोड़ता गया। पर्वतराज हिमवान ने अपना कठोर चेहरा उसकी ओर मोड़ा और दुंदुभि को चमकदार आँखों वाले गु़स्सैल भैंसे की तरह दौड़ते हुए देखा। हिमवान ने बर्फ़ और बहते पानी से बने श्‍वेत वस्त्र धारण किए हुए थे तथा बर्फ़ का कमरबंद बाँधा हुआ था। वह दहाड़ती हुई आवाज़ में बोला, “इस पवित्र प्रदेश पर लड़ाई मत करो। मेरे शांतिप्रिय लोगों को क्यों क्षति पहुँचा रहे हो? शक्तिशाली लोग क्रोध नहीं करते क्योंकि हमें पता है कि शांति ही हमारा कवच है। अब यहाँ से जाओ और मुझे चैन से रहने दो।”

उसका इतना कहना था कि तभी, धुंध और बर्फ़ के एक विशाल बादल ने उसे ढँक लिया और वह अदृश्य हो गया। हिमवान के साथ मानो वह पर्वत भी ग़ायब हो रहा था। हिम और बर्फ़ीली वर्षा ने दुंदुभि को काटना और मारना आरंभ कर दिया। वह चिल्लाता हुआ वहाँ से भागा तथा किष्किंधा के गुफा-दुर्ग पर पहुँचने के बाद ही रुका।

उसने दुर्ग के आस-पास के वन के सभी फलदार वृक्षों को उजाड़ दिया। फिर उसने अपने विशाल सिर से नगर पर टक्कर मारी और गुर्राया। बाली ने बुर्ज में आकर दुंदुभि से कहा कि अपने प्राण गँवाने से पूर्व उसके पास समय है कि वह लौट जाए। दुंदुभि ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। बाली ने अपनी स्वर्णिम माला पहनी और दौड़ता हुआ द्वार से बाहर आ गया। फिर उन दोनों के बीच भीषण द्वंद्व हुआ जिसमें कोई किसी को पराजित नहीं कर सका। अंत में, जैसे ही दुंदुभि उसकी ओर सींग लेकर दौड़ता हुआ, बाली ने अपने अलौकिक बल से उसके सींग पकड़ लिए। उसने दुंदुभि को ऊपर उठाया और गोल घुमाकर, उसे धरती पर पटक दिया। दैत्य के मुँह से कुछ देर रक्त की उल्टी होती रही और फिर अंत में उसकी मृत्यु हो गई। परंतु बाली का ग़ुस्सा शांत नहीं हुआ। उसने दैत्य के मृत शरीर को उठाया और बहुत दूर उछाल दिया। दुंदुभि का शव जाकर एक पहाड़ पर गिरा, जहाँ मतंग मुनि का आश्रम था। दैत्य का शरीर मुनि के ऊपर से गुज़रा जिसके कारण उसके तन से बहता रक्त मुनि के ऊपर भी गिर गया। ध्यान भंग होने के कारण मुनि को क्रोध आ गया। वे आश्रम से बाहर आए तो देखा कि वृष रूपी दैत्य का विशाल एवं रक्तरंजित शरीर सामने पड़ा था।

उन्होंने चेतावनी भरे स्वर में घोषणा कर दी, “जिसने भी यह घृणित कृत्य किया है, यदि उसने इस पावन स्थल से चार मील के भीतर प्रवेश किया तो उसके सिर के हज़ार टुकड़े हो जाएँगे! जितने भी वानर इस स्थान पर रहते हैं और उसकी जाति के हैं, वे सब भी तुरंत इस स्थान को छोड़ दें अन्यथा वे पत्थर बन जाएँगे!”

सुग्रीव ने हनुमान से कहा, “यही कारण है कि मेरा भाई इस मनोहर स्थान पर आने का साहस नहीं करता।” हनुमान ने एक क्षण के लिए सोचा और फिर सुग्रीव को कहा कि यही पर्वत एक दिन उसका घर बनेगा। सुग्रीव के ज़ोर देने के बाद भी, हनुमान ने इसके आगे कुछ भी कहने से मना कर दिया।

दुंदुभि का एक मित्र था। उसका नाम मायावी था और वह असुरों के शिल्पी मय दानव का पुत्र था। वह अपने मित्र दुंदुभि की मृत्यु का समाचार सुनकर क्रोधित हो गया तथा उसने उसकी मृत्यु का प्रतिशोध लेने का प्रण ले किया। एक दिन उसने किष्किंधा आकर बाली को युद्ध के लिए ललकारा। बाली ने उसे वहाँ से भगा दिया। उस समय सुग्रीव भी बाली के साथ था परंतु बाली ने सुग्रीव को वहाँ से चले जाने के लिए कहा। इस तरह मार्ग में, सुग्रीव की भेंट हनुमान से हुई थी।

बाली को विश्‍वास था कि मायावी सदा के लिए भाग गया था, लेकिन वह दैत्य इतनी सरलता से हार मानने वाला नहीं था। वह एक बार फिर अर्द्ध-रात्रि के समय रक्त जमा देने वाली भयंकर हुँकार करता हुआ किष्किंधा के द्वार पर आ गया। वानरों ने उसे भगाने का प्रयास किया लेकिन उसने, उन्हें मक्खियों की तरह वहाँ से भगा दिया। फिर वे वानर अपने राजा के पास गए। बाली बाँहें चढ़ाता हुआ द्वारा के बाहर आया लेकिन दानव वहाँ नहीं था। अपने पिता की जादुई कलाओं में पारंगत, वह दैत्य ओझल हो गया था। बाली ने चिल्लाकर प्रकट होने के लिए कहा। “तुम कायर हो! सामने आकर एक वीर की भाँति मुझसे युद्ध क्यों नहीं करते? छिपकर रहने से क्या लाभ होगा?”

यह सुनकर मायावी सामने आ गया। उसने देखा कि बाली के साथ सुग्रीव और हनुमान भी आए थे। वह हँसकर बोला, “तुम ऐसे कैसे वीर हो, जो मुझसे अकेले नहीं लड़ सकते और तुम्हें इसके लिए दो अन्य लोगों की सहायता चाहिए?”

बाली ने हनुमान और सुग्रीव को लौट जाने के लिए कहा और बोला कि यह लड़ाई, उसके और मायावी के बीच की है। हनुमान ने उसकी बात मान ली लेकिन सुग्रीव ने लौटने से मना कर दिया।

बाली ने मायावी से कहा, “यह हम दोनों के बीच निर्णायक युद्ध होगा। मैं तुम्हें यहाँ से जीवित नहीं लौटने दूँगा।”

यह सुनकर मायावी उपहास करता हुआ हँसा और बोला, “मैं तुम्हें पहले मार डालूँगा और उसके बाद तुम्हारे भाई और पुत्र को मारकर किष्किंधा का राजा बन जाऊँगा!”

बातचीत में समय नष्ट न करके, बाली ने पूरी शक्ति से मायावी के ऊपर छलाँग लगा दी। इसके बाद दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ। अंत में मायावी को समझ में आ गया कि उससे एक बार फिर अपने शत्रु के बल का आकलन करने में भूल हुई थी। वह जंगल की ओर भाग गया। बाली भी उसके पीछे चला गया। सुग्रीव को अपने भाई की चिंता थी, इसलिए वह भी उसके पीछे दौड़ा। बाली ने मायावी को पकड़ लिया और वन के अंदर उनकी एक और ज़बर्दस्त मुठभेड़ हुई। सुग्रीव को यह देखकर बहुत आश्‍चर्य हो रहा था कि दोनों वीर बिना थके एक दिन और एक रात तक लड़ते रहे। सुबह होते-होते, बाली ने देखा कि मायावी थकने लगा था। उसने लड़ाई जारी रखी। वह किसी भी तरह मायावी को मार डालना चाहता था। मायावी समझ गया कि उसकी पराजय होनी निश्‍चित है। वह भाग निकला तथा एक गुफा में घुस गया। बाली भी उसके पीछे अंदर चला गया लेकिन जाने से पूर्व उसने सुग्रीव से कहा, “तुम मेरी यहीं प्रतीक्षा करना। मैं उसे निश्‍चित रूप से मारकर लौटूँगा। परंतु यदि किसी कारण से उसने मुझे मार दिया तो फिर तुम प्रतीक्षा मत करना। तुम इस गुफा का द्वार शिला से बंद कर देना और अपने राज्य लौट जाना अन्यथा वह तुम्हें भी मार डालेगा। याद रखना, यदि वह मारा गया तो तुम्हें गुफा में से दूध बाहर बहता दिखेगा और यदि मैं मारा गया तो रक्त बाहर बहेगा। इसलिए, यदि तुम्हें रक्त बहता दिखे तो गुफा का मुँह शिला से बंद करके अपनी रक्षा करना। तुम किसी भी तरह उसका मुक़ाबला नहीं कर पाओगे!”

सुग्रीव एक वर्ष तक गुफा के द्वार पर खड़ा उत्सुकता से अपने भाई के लौटने की प्रतीक्षा करता रहा। अंत में एक दिन उसे गुफा के भीतर से एक भीषण गर्जना सुनाई पड़ी और उसके तुरंत बाद, अंदर से रक्त की धारा बहने लगी। सुग्रीव को विश्‍वास हो गया कि वह गर्जना उसके भाई बाली की अंतिम पुकार थी और दैत्य ने अवश्य ही उसके भाई को मार डाला है। रक्त की धारा ने उसके संदेह की पुष्टि कर दी। अपने भाई की मृत्यु के दुख में सुग्रीव बहुत रोया, फिर उसने एक विशाल शिलाखंड रखकर गुफा का द्वार बंद कर दिया। इसके बाद वह अपने राज्य आ गया जहाँ सब लोग उनके विजयी होकर लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। पूरी कथा सुनकर सभी वानर बहुत रोए। सुग्रीव विषाद में ऐसा डूबा कि वानरों को लगा कि उनका राज्य नष्ट हो जाएगा। मंत्रियों ने सुग्रीव से अनुरोध किया कि वह राजा बन जाए और अंत में सुग्रीव को उनकी बात माननी पड़ी।

इस घटना का पूर्ण सत्य यह था कि बाली ने मायावी दैत्य को मार डाला था किंतु उस दुष्ट दैत्य ने मरते समय भी अपनी माया से अपने शरीर से निकली दूध की धारा को रक्त में बदल दिया, जिससे दोनों भाइयों में फूट पड़ गई। जब बाली गुफा के मुख तक पहुँचा तो उसे गुफा का द्वार बंद देखकर बहुत आश्‍चर्य हुआ। उसे विश्‍वास नहीं हुआ कि उसके भाई ने इतनी निर्ममता से उसके साथ विश्‍वासघात किया। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि सिंहासन पाने के लालच में सुग्रीव ने यह क्रूर कृत्य किया होगा। अपने अदम्य बल से वह शिला को धक्का देकर, तूफ़ान की भाँति गुफा से बाहर निकल आया। उसका मन अपने भाई के प्रति अनियंत्रित क्रोध से भरा हुआ था। वह किष्किंधा के द्वार पर पहुँचा और क्रोध में भरकर ज़ोर से गरजा। वहाँ के नागरिक उसकी गर्जना को सुनकर काँप उठे। वे भागकर सुग्रीव के पास गए और उसे बताया कि राज्य के द्वार पर बाली खड़ा था! सुग्रीव को अपने कानों पर विश्‍वास नहीं हुआ। उसने अवश्य ही गुफा से रक्त को बहते देखा था! क्या यह उस मायावी दानव की कोई चाल थी? इससे पहले कि वह द्वार तक पहुँच पाता, बाली स्वयं दौड़ता हुआ दरबार के भीतर आ गया। उसके मुँह से झाग निकल रहे था। उसने बिना कुछ कहे, सिंहासन पर बैठे सुग्रीव को तिनके की तरह उठाया और सैकड़ों गज़ दूर फेंक दिया।

“कृतघ्न! दुष्ट!” वह चिल्लाया। “तूने सोचा कि तू मुझे मारकर राज्य स्वयं हड़प लेगा। तू उस मायावी से भी सौ गुना अधिक दुष्ट है। यदि अपने प्राण बचाना चाहता है तो यहाँ से चला जा। यदि मैंने तुझे फिर कभी आस-पास देख लिया तो तेरा अंत निश्‍चित है!”

ऐसा कहकर वह सुग्रीव की ओर दौड़ा तथा इससे पहले कि सुग्रीव अपने स्थान से खड़ा हो पाता, बाली उसके ऊपर कूद गया तथा सभासदों तथा अधिकारियों के सामने उसे मारने लगा। सुग्रीव ने उसे समझाना चाहा कि वह निर्दोष है लेकिन बाली ने उसे बोलने का अवसर नहीं दिया। बाली को इतना क्रोधित देखकर, किसी ने उसे रोकने का साहस नहीं किया। उसने सुग्रीव को गर्दन से दबोच लिया और वह उसका सिर पत्थर पर मारने वाला था कि सुग्रीव उसकी पकड़ से छूट निकला और वहाँ से भाग गया। बाली ने उसका पीछा किया। अंत में, सुग्रीव ऋष्यमूक पर्वत पर चला गया जो उसने कुछ समय पूर्व हनुमान को दिखाया था। बाली को अब इस बात पर क्रोध आ रहा था कि वह उस पर्वत पर नहीं जा सकता था। उसने ग़ुस्से में पेड़ उखाड़ लिए और उन्हें अपने भाई पर फेंकने लगा। सुग्रीव दुख और ग़ुस्से से बुरी तरह त्रस्त था। वह एक गुफा में छिप गया तथा अपने घाव भरने तक यह सोचता रहा कि उसे क्या करना चाहिए।

बाली, लौटकर किष्किंधा आ गया और फिर से शासन करने लगा। सुग्रीव को दंड न दे पाने के कारण हताश बाली ने सुग्रीव के बच्चों को मार डाला और सुग्रीव की पत्नी रूमी को बलपूर्वक अपने पास रख लिया। इस तरह सुग्रीव अपना राज्य और अपनी पत्नी दोनों गँवा बैठा!

जिस समय सुग्रीव, अपने भाई के पीछे उस गुफा तक गया था, उस समय हनुमान ने किष्किंधा छोड़ने का निर्णय किया और वन में तपस्या करने चले गए। उन्हें शीघ्र ही पता लग गया कि उनका मस्तिष्क शांत और नियंत्रित था। वे सचमुच किसी मुनि जैसे दिखने लगे।

उस दौरान बाली, सुग्रीव का पीछा कर रहा था। परंतु सुग्रीव ने ऋष्यमूक पर्वत पर शरण ले ली, जहाँ बाली का प्रवेश वर्जित था। बाली उसे पकड़ न पाने के कारण इतना क्रोधित हो रहा था कि उसने वहाँ के वृक्ष उखाड़कर सुग्रीव पर फेंकने शुरू कर दिए। उनमें से एक वृक्ष हनुमान के सामने आकर गिरा। उस समय हनुमान ध्यान में लीन थे। पेड़ गिरा तो हनुमान ने आँखें खोल लीं। उन्होंने कुछ पल सोचा और फिर उन्हें लगा कि जो कुछ हो रहा था, वह सब उन्होंने पहले ही जान लिया था! उनके मित्र को किष्किंधा से बाहर निकाल दिया गया था और उसने ऋष्यमूक पर्वत पर शरण ली थी। वे बिना समय गँवाए, तुरंत सुग्रीव से मिलने पहुँचे और उसे दिलासा दी।

“चिंता मत करो सुग्रीव! सत्य की जीत होगी। अभी आपका समय ठीक नहीं है, लेकिन अच्छा समय आने वाला है। ईश्‍वर का ध्यान करो तथा अपने भाई के प्रति मन में द्वेष की भावना मत रखो। सब ठीक हो जाएगा।”

सुग्रीव ने हनुमान की बात मान ली और वे दोनों अपना समय उसी पर्वत पर बिताने लगे। जल्दी ही, उनके कुछ अन्य मित्र भी वहाँ उनके पास रहने लगे।

बाली अपने भाई को क्षमा नहीं कर सका तथा प्रतिदिन वह ऋष्यमूक के सामने वाले पर्वत पर चढ़कर अपने भाई को अपशब्द कहता, उसे डराता-धमकाता और अपने बल का प्रदर्शन करता था। वह चीख़ता, चिल्लाता, अपनी छाती पीटता, दाँत किटकिटाता और अपने भाई को कोसता रहता था। जैसा कि पहले कहा गया है, बाली को संसार के सभी समुद्रों में स्नान करने की आदत थी। वह छलाँग लगाकर बहुत सहजता से एक समुद्र से दूसरे समुद्र तक चला जाता था और स्नान करता था। अपनी छलाँग के दौरान वह जब भी ऋष्यमूक पर्वत के ऊपर से गुज़रता और यदि सुग्रीव उसे नीचे खड़ा दिखाई दे जाता तो वह अवश्य ही उस बेचारे के सिर पर ठोकर मारकर निकलता था। हनुमान ने बाली की इस गंदी आदत को हमेशा के लिए रोकने का फैसला किया। एक दिन जब बाली पर्वत के ऊपर से गुज़रा तो हनुमान ने उछलकर बाली की पूँछ पकड़ ली और उसे नीचे खींचने लगे। उनकी मंशा बाली को पर्वत पर गिराने की थी ताकि मुनि के शाप से बाली की मृत्यु हो जाए। परंतु बाली अत्यंत बलशाली था और हनुमान के लिए वह मुक़ाबला कड़ा था। हालाँकि हनुमान के पास भी असीमित शक्तियाँ थीं किंतु उनके प्रयोग से पूर्व हनुमान को उन शक्तियों का स्मरण करवाया जाना आवश्यक था। बाली समझ गया कि उसकी पूँछ पकड़ने वाला अवश्य ही हनुमान है क्योंकि सुग्रीव में ऐसा करने का साहस नहीं है। उसने सोचा कि हनुमान को अपने साथ किष्किंधा ले जाकर वहीं मार डालना ठीक होगा। परंतु बाली और हनुमान दोनों ही बराबर के वीर थे और इसलिए दोनों में किसी की चाल सफल नहीं हो सकी। अंत में उन दोनों ने समझौता कर लिया। हनुमान ने बाली से कहा कि वे उसकी पूँछ तभी छोड़ेंगे जब बाली यह वचन दे कि फिर कभी सुग्रीव को परेशान नहीं करेगा। बाली ने हनुमान की बात इस शर्त पर मानी कि सुग्रीव भी फिर कभी किष्किंधा नहीं आएगा और न ही सिंहासन पर अपना दावा करेगा। इसके बाद हनुमान ने बाली को छोड़ दिया। बाली भी इस वचन से प्रसन्‍न हो गया क्योंकि उसे यह भी भय था कि कहीं हनुमान, किष्किंधा राज्य के दावेदार न बन जाएँ।

वाल्मीकि कृत रामायण में हनुमान का प्रवेश ‘किष्किंधा कांड’ में होता है। ‘कांड’ के आरंभ में, जहाँ राम के साथ उनकी महत्त्वपूर्ण भेंट होती है, हनुमान की भूमिका महत्त्वपूर्ण नहीं है। सुग्रीव को पता ही नहीं था कि हनुमान उसके भाई बाली से कहीं अधिक बलशाली थे। यदि सुग्रीव को यह पता होता तो वह सहायता के लिए राम के पास न जाकर, हनुमान को ही बाली से लड़ने के लिए कह देता। परंतु दोनों ही हनुमान की विलक्षण शक्तियों से अनभिज्ञ थे और इसीलिए सुग्रीव को राम के पास जाना पड़ा। वास्तव में, यदि ऋषियों ने हनुमान को शाप न दिया होता तो रामायण की पूरी कथा ही अलग होती, क्योंकि तब मारुति ने अकेले ही वह युद्ध लड़ लिया होता।

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