प्रेम गली अति साँकरी - 103 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 103

103----

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   मैं ढीठ की तरह प्रमेश के सामने बैठी रही |उसने एक बार मेरी ओर नज़र उठाकर देखा फिर एक सैंडविच उठाकर दूसरी क्वार्टर प्लेट में रख लिया और एक प्लेट मेरी ओर बढ़ाई|

“प्लीज़ हैव,ऐट लीस्ट वन पीस---”शायद वह समझ चुका था कि मैं उसके लिए आया या केयरटेकर बनने वाली नहीं थी|मैंने महसूस किया उसके चेहरे पर एक खिसियाहट सी पसर गई थी और वह बोल रहा था,

“सॉरी डिड यू माइंड इट ?”मैं फिर भी चुप बनी रही |

“अमी जी प्लीज़ गिव कंपनी---”

    मुझे महसूस हुआ वह काफ़ी भूखा है,शायद मैं न खाऊँ तो वह भी भूखा रह जाएगा|मैं अपने ऊपर पाप क्यों चढ़ाऊँ?

“बट आई एम नॉट हंगरी ,यू आर हंगरी सो हैव---”मैंने कहा|

“एट लीस्ट गिव कंपनी टू मी---”उसने इतनी आजिज़ी से कहा कि मैंने कुछ सोचते हुए सैंडविच का एक चौथाई भाग उठा लिया | 

    कंपनी का मतलब समझता भी है ये आदमी?मेरे मन में उसका पूरे रास्ते चुप्पी ओढ़कर बैठे रहना और रेस्टोरेंट के बाहर से आगे-आगे अकेले चले आना मुझे कितना-कितना असहज बना रहा था!मैं इतनी रूड नहीं हो सकती थी इसलिए उसने कहा तो मैंने उसे कंपनी देने के लिए वन-फ़ोर्थ पीस उठा लिया|सैंडविच चार भागों में विभाजित करके सर्व किया गया था|मैं उसके लिए ताउम्र कंपनी बनने के लिए ही तो आई थी|हम कोई बच्चे या टीन एजर नहीं थे फिर भी हम परिपक्व ,व्यवहारिक रूप से बातें कहाँ कर पा रहे थे?मैं धीरे-धीरे उसकी इस बात से खीजने लगी थी जब वह कहता था;

“आई डोन्ट बिलीव इन रिलेशनशिप बिफ़ोर मेरेज---”क्यूँ बार-बार ?बड़ी स्वाभाविक सी बात थी उसके कहने पर शक होना लेकिन उसके चेहरे पर इतना सपाट भाव होता कि उसे समझ पाना ही मुश्किल लग रहा था|

    उसने सैंडविच के दो पीस खाए ,प्लेट में चार सैंडविच के भागों में से मैंने एक छोटा सा  भाग ही लिया था और कॉफ़ी सिप करने लगी थी|उसने भी न जाने क्यों खाना छोड़ दिया और कॉफ़ी का प्याला उठा लिया|इसे तो भूख लगी थी,मैंने बेकार में ही सोचा और अपनी ठंडी होती हुई कॉफ़ी को गले में उतार लिया|

“क्या कुछ देर के लिए हम दीदी के पास चल सकते हैं?”ऐसा कोई प्रोग्राम तो नहीं था|

“अगर आपका मूड नहीं है तो ---”वह चुप हो गया|

“नहीं ,ऐसी कोई बात नहीं है---जैसा आपको ठीक लगे--|” 

“दीदी आपको मिलने को संस्थान में आना माँगती थी---शी वॉन्टेड तो कम टू संस्थान टू मीट यू---”प्रमेश ने दोनों भाषाओं में बोलकर जैसे अपनी बात या कहें कि अपने संदेश को वज़न दिया|पता नहीं भीतर से लगता रहता था कि यह आदमी आज तक लड़कियों से इतना अछूता रहा होगा क्या कि बात करना ही नहीं जानता या बात करने के लिए इसके पास शब्दों का अकाल पड़ जाता है क्या?क्या बंगाली ऐसे होते हैं?फिर खुद पर ही हँस पड़ती मैं,बरसों से बंगालियों के संसर्ग में थी|मौसी के परिवार को देखकर कहीँ से भी अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता था कि वह हमारे परिवार से कहीं से भी अलग था,थोड़ी-बहुत बातों को छोड़कर !और उत्पल ?अरे बाबा! उसका तो कहना ही क्या था! फुल ऑफ़ लाइफ़! इसीलिए कोई उसके बारे में कुछ अनुमान भी नहीं लगा पाता था,ऐसा खिलौना सा व्यवहार उसका कि बस! समय व समाज का प्रभाव मनुष्य पर कम-ज़्यादा पड़ता ही है, लेकिन एक ये महान विभूति ही ऐसे दुर्लभ प्राणी दिखाई दिए थे जो संभवत:दुनिया में गिने-चुने ही होंगे|

“जैसा आपको ठीक लगे---”मैंने कहा |सोचा,चलो देख लेते हैं घर भी लेकिन मुझे पहले अम्मा से पूछना बेहतर लगा|साथ ही मन में कहीं यह भी चलने लगा कि जहाँ तक होगा मैं इस बात को आगे बढ़ाने से रोक ही दूँगी|क्या फ़ायदा था ऐसे आदमी पर अपना पूरा जीवन न्योछावर कर देने का?वह बेशक मेरे उसकी दीदी से मिलने की बात से खुश हो गया लेकिन मुझे अपनी खुशी भी तो देखनी थी जो अब तक की मुलाकातों में तो दूर-दूर तक भी नज़र आ नहीं रही थी|कितनी---कितनी पशोपेश में थी मैं !ऐसी क्या थी मैं कि उम्र के इस कगार पर आकर भी----ऐसी असाधारण थी मैं?नहीं,या एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी बेहतर शब्द था क्या ----क्षण भर बाद ही दोनों में से कोई भी शब्द अपने लिए मुझे जमे नहीं----मन ही मन मैंने हँसकर अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया|कहीं प्रमेश पूछ ही न ले मेरी मुस्कान का राज !वैसे यह जंगल में मोर नाचने जैसा ही था---- 

अम्मा से बात की तो अम्मा ने कहा चली जाऊँ,प्रमेश की दीदी का बी.पी ठीक हो जाएगा|बड़े दिनों से फ़ल्कचुएट हो रहा है|अम्मा हँसकर बोलीं थीं और मेरे चेहरे पर फिर से कुछ मुस्कान सी पसरने लगी थी|

“समथिंग हैप्पन्ड--?” वह कॉफ़ी का मग टेबल पर रख चुका था|

“नहीं कुछ नहीं,अम्मा सैड यस---”

“दैट्स ग्रेट—”जैसे अचानक उसके चेहरे पर निखार आ गया|

     इतने दिनों से प्रमेश को देख रही थी लेकिन आज तक उसका चेहरा कभी ऐसा खिला हुआ नहीं देखा था|     क्या बात है !मन सोचने लगा,यह जादू सा कैसे हो गया?थोड़ा सा अच्छा लगा सोचकर कि प्रमेश को मेरा उसके घर ले जाने में ऐसी क्या बड़ी बात थी|हम शुरू से ही अपने दोस्तों के घर आते-जाते रहते ही थे|हाँ,लेकिन यह बात भी ठीक है कि वह मेरा दोस्त तो था नहीं,मुझे बार-बार लगा है कि वह हमेशा मुझसे कटता क्यों रहा होगा?

“लेट्स मूव---?”उसने जल्दी से अपनी कॉफ़ी भी खत्म कर ली|

     बिल आ गया था,उसने जल्दी से कार्ड निकालकर पेमेंट किया और सर्विस ब्वाय को सौ रुपये का नोट थमाकर खड़ा हो गया|फिर से वह आगे-आगे कदम बढ़ाकर चलने लगा और फिर से मैं बेबस सा महसूस करने लगी|उसका स्वभाव समझने में मुझे काफ़ी संघर्ष होने वाला था|ऐसा मुझे महसूस हो रहा था|हद है,क्या मैं इतनी कमज़ोर थी?

    हम रेस्टोरेंट के काँच के बड़े से खूबसूरत ‘सिंहद्वार’मेन गेट पर आ गए थे|प्रमेश आगे था,वहाँ खड़े गार्ड ने उसे देखकर सलाम ठोकी और प्रमेश का हाथ तुरंत अपनी जेब में पहुँच गया|उसने गेट पर खड़े बंदे को क्या दिया, मैं देख नहीं पाई,वैसे मेरी रुचि भी नहीं थी उसमें लेकिन उस गार्ड की मुस्कान से मैंने अनुमान लगा लिया था कि ज़रूर उसे बड़ा नोट मिल गया था क्योंकि उसने फिर से एक ज़ोरदार सलाम ठोका था और आगे बढ़कर‘सर’बोलते हुए दरवाज़ा खोला था ,एक संतुष्टपूर्ण मुस्कान भी उसकी ओर फेंकी थी| 

    प्रमेश पहले की तरह ही गाड़ी में जा बैठा और मैं भी पहले की तरह उसके पीछे जाकर दूसरी ओर का दरवाज़ा खोलकर बैठ गई और दरवाज़ा बंद करके एक दृष्टि उसके चेहरे पर डाली|उसके चेहरे पर पहले जैसा ही कुछ बदलाव सा था यानि वह जितना चुप व उदासीन रहता था,आज उसमें काफ़ी बदलाव महसूस कर रही थी मैं!हम दोनों अपनी सीट-बैल्ट बाँध चुके, उसने एक महीन सी मुस्कुराहट से मेरी ओर देखा;

“शैल वी?”

“हम्म,चलिए---”

“आइ टोल्ड दीदी ,शी इज़ वेटिंग----” 

कमाल है,इसने कब अपनी बहन से बात कर ली?अचानक जाने मुझे क्यों लगा कि यह उसकी व उसकी बहन की पहले तैयार की गई प्लानिंग थी|ऐसे गुपचुप प्लानर्स के साथ वैसे भी मेरी कभी नहीं पटी थी|अब ??