प्रेम गली अति साँकरी - 104 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 104

104---

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गाड़ी न जाने किन-किन रास्तों से गुज़र रही थी और हम दोनों गुमसुम से बैठे थे| 

“यू नो, दीदी लाइक्स यू सो मच----” अचानक प्रमेश जैसे बड़ा खुश होकर बोला| शायद वह मेरे साथ थोड़ा-थोड़ा खुलने की कोशिश कर रहा था| अरे ! खुद की बात करता तो थोड़ा समझ में आता, उसकी दीदी से शादी करनी थी क्या मुझे? मैंने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया, क्या देती कहाँ कुछ समझ पा रही थी? मैंने महसूस किया, वह कनखियों से मुझे देख रहा था| उसके चेहरे पर थोड़ी मुस्कान भरा सुकून सा भी दिखाई दे रहा था| 

गाड़ी आगे बढ़ती गई और लगभग 35/40 मिनटों में एक खूबसूरत कॉलोनी के सिंहद्वार यानि मेन गेट पर पहुँच गई | वह एक शानदार कॉलोनी दिखाई दे रही थी, प्रमेश ने उस गेट के अंदर गाड़ी ले ली थी| वह एक बहुत सुंदर कॉलोनी थी, ब ड़ी नहीं लेकिन प्रभावित करने वाली कॉलोनी थी| आजकल जहाँ एपर्टमेंट्स, फैलैट्स के जमाने आ गए हैं वहीं दिल्ली के बाहर सटे हुए गाँवों में अभी भी ज़मीनें थीं जो उच्चवर्गीय लोगों ने खरीदकर उनमें सुंदर बंगले बना लिए थे| वातावरण में नयापन और ताजगी थी और थी शांति ! इस शांति ने मुझे खासा प्रभावित किया| ओह! तो प्रमेश की शांति का यह कारण तो नहीं? फिर मन में ही खूब हँसी आने लगी मुझे!कैसी होती जा रही थी? कहाँ का दिमाग कहाँ और क्यों घूमता है?

प्रमेश ने एक बंगले के आगे गाड़ी खड़ी कर दी और अपनी सीट बैल्ट खोलने लगा था| उसने मुझसे कुछ नहीं कहा लेकिन स्वाभाविक था कि वह उसका घर ही होना चाहिए था जिसके सामने उसने गाड़ी खड़ी की थी और उतरने की प्रक्रिया में था| उसकी देखा देखी मैंने भी सीट बैल्ट खोल दी और गाड़ी से बाहर निकल आई| बाहर खड़े होकर मैंने चारों ओर दृष्टि फिराई , जहाँ सुंदर, बड़े पेड़ों की कतारें पंक्तिबद्ध थीं | हरे पल्लव आपस में कानाफूसी करते हुए प्रतीत हो रहे थे | कॉलोनी के बीच की सड़क पेड़ों के लगाने की खूबसूरती के कारण एक असीम खूबसूरती से भरी थी | गेट के अंदर आते हुए मैंने देखा था कि दोनों ओर के पेड़ एक-दूसरे की ओर झुके जा रहे थे और उनके सिरे आपस में लगभग मिलने की चेष्टा करते दिखाई दे रहे थे| न जाने कौनसे पेड़ थे वे किन्तु बहुत ही खूबसूरत व आकर्षक थे और कनबतियाँ करते हुए महसूस हो रहे थे| ऐसा लग रहा था मानो दो प्रेमी आपस में गले मिलने के लिए झुके जा रहे हों | कितना सजीव चित्र था मानो प्रेमी-प्रेमिका के लिए एक वातावरण सजाया गया हो| मन में जैसे रोमांस सिर उठाने के लिए मचलने लगा लेकिन उसमें प्रमेश कहीं नहीं था, उसमें तो कोई और ही चित्र था जिससे दूर भागकर मैं प्रमेश के साथ डेट के लिए राज़ी हो गई थी| 

गेट खोलते ही एक सफ़ेद सुंदर, स्वस्थ लैब्राडोर भागता हुआ आया और पूँछ हिलाते हुए प्रमेश के पैरों में अपना मुँह रगड़ने लगा| दो-तीन मिनट तक प्रमेश उसके शरीर पर हाथ फेरता रहा, उसे पुचकारता रहा| 

“ओके–ओके माय डीयर ब्रूनो—इट्स ओके---”ओह !तो इसका नाम ब्रूनो है?कुछ देर बाद वह मेरी तरफ़ आकर पूँछ हिलाने लगा| हमारे यहाँ हमेशा से अलग-अलग जाति के कुत्ते रहे थे| सबको बहुत प्यार था उनसे फिर स्वस्थ, सुंदर, साफ़ कुत्ते हों तो अपने आप ध्यान आकर्षित करते हैँ| ब्रूनो अब मेरे पास आ गया था, पहली नज़र में ही उसने मुझे जैसे अपने दोस्त की हैसियत से पहचान लिया था| मेरे पास खड़ा होकर वह अपनी भोली आँखों से मुझे देखते हुए पूँछ हिलाने लगा था| 

“चलो, ब्रूनो यहाँ आओ ---”घर का एक सेवक बरामदे से निकलकर उस छोटे से सुंदर गार्डन में उतर आया जिसमें हम खड़े थे| 

“सोमू ! दीदी को बोलो अमी जी आया हैं करके----”प्रमेश ने अपने उस सेवक से कहा जो ब्रूनो को पकड़कर ले जाने आया था| 

“जी---”वह अंदर की ओर भाग गया| 

अरे !ऐसी क्या आफ़त थी, अंदर ही तो जा रहे थे| मुझे क्यों सोचना चाहिए था लेकिन मैंने सोचा फिर खुद को मन ही मन मूर्ख भी कहा| 

प्रमेश मुझे लेकर आगे बढ़ गया था और ब्रूनो गार्डन में पड़ी बड़ी सी रबर की बॉल की तरफ़!गार्डन पगडंडी के दोनों ओर था और दोनों ओर मेहंदी की सुंदर कटिंग वाली छोटी छोटी एज वाली झाड़ियाँ थीं जिन्हें सुंदरता से कटिंग किया गया था| गार्डन की रख-रखाव से लग रहा था कि माली बहुत सुगढ़ होगा| अन्यथा आजकल माली के नाम पर कैंची पकड़े लोग आ जाते हैं जिनका पौधों के नाम तक से भी परिचय नहीं होता| 

गार्डन पर भरपूर दृष्टि डालते हुए मैं प्रमेश के साथ बरामदे में पहुँच गई जिसमें जाने के लिए दो सीढ़ी थीं| सामने ही बड़ा सा सिटिंग-रूम दिखाई दे रहा था| सोमू ने जाकर सिटिंग रूम का दरवाज़ा खोल दिया था| मैं प्रमेश के साथ उस बड़े से सिटिंग रूम में प्रवेश कर चुकी थी| मैं पहली बार इस घर में आई थी जो शायद मेरा घर बनने वाला था| मालूम नहीं था हमारा प्रारब्ध क्या था| कुल मिलाकर मुझे वातावरण प्रभावित कर रहा था| 

हमारा संस्थान खूब बड़ा था, खूब लंबा-चौड़ा !अंदर जैसे एक नगर बस हुआ था| हम कभी भी अकेलापन महसूस न करते लेकिन मेरा कमरा जहाँ था और मेरी वह प्यारी खिड़की जिसके पास जमी हुई मेरी दो कुर्सियाँ और मेज़ मुझे जैसा सुकून देती थीं , मुझे वैसा सुकून कहीं मिलेगा, यह मेरे मन में एक प्रश्नवाचक चिन्ह ही था| यह सब कुछ सोचना मुझे अजीब लग रहा था और यह भी कि मैं संस्थान के अतिरिक्त कहीं और रह सकती हूँ क्या?

“ये लीजिए---”प्रमेश के हाथ में पकड़ा हुआ बैग सोमू कब ले जा चुका था और अब न जाने किन क्षणों में वह फिर आ गया था | अब उसके हाथ में ट्रे थी जिसमें कट-ग्लासेज़ में कोई शर्बत था जिसे उसने लाकर सिटिंग रूम की सुंदर, चमकदार काँच की सेंटर-टेबल पर रख दिया था| 

“फ़ालसा का शर्बत है , एकदम नेचुरल----दीदी अपने सामने बनवाती हैं| ”प्रमेश की आवाज़ खासी ज़ोर से सुनाई दे रही थी आज तो !

मेरा ध्यान तो अभी सिटिंग रूम की खूबसूरत पेंटिग्स पर अटका था| किसी कलाकार का घर था, वह तो गेट, गार्डन, बरामदे में लटके हुए पीतल के बड़े से घंटे और पत्थर की बड़ी मूर्तियों को देखकर ही अहसास हो रहा था| 

“बैठिए तो अमी जी, ये लीजिए---गरम हो जाएगा| अभी दीदी आती होंगी | ”प्रमेश अब काफ़ी सहज दिखाई दे रहा था| साइड-वॉल पर तीन बड़ी पेंटिंग्स के कलाकारों के नाम पढ़ने के लिए मैं अब तक खड़ी थी लेकिन प्रमेश ने कई बार कहकर मुझे सोफ़े पर बैठने के लिए विवश कर दिया| ट्रे में तीन शर्बत के ग्लास थे | अभी तक दीदी तो आई नहीं थीं | मैं बैठ तो गई थी लेकिन प्रमेश के कई बार कहने के बावज़ूद भी मैंने शर्बत के ग्लास को हाथ नहीं लगाया था | तीन ग्लास थे तो तीनों के लिए शर्बत था, प्रमेश की दीदी की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता थी| 

“दीदी को आने दीजिए ---”मैंने बैठते हुए कहा जबकि मेरी इच्छा थी कि मैं उन खूबसूत पेंटिग्ज़ के पास ठहरकर उन्हें अच्छी तरह से देखूँ लेकिन बंदा मेरे पीछे ही पड़ा था कि मैं शर्बत का ग्लास उठा लूँ | मैं बैठ तो गई लेकिन कमरे में दृष्टि घुमाते हुए प्रमेश की दीदी की प्रतीक्षा करने लगी| 

“अरे !”मुझे आश्चर्य हुआ अपने फ़ोन पर आए नाम को देखकर| 

“समथिंग रॉग---?”प्रमेश ने मेरी ओर देखकर पूछा| 

“नो, आइ एम सरप्राइज्ड--- श्रेष्ट ऑन द लाइन ---”

“व्हाई---?”प्रमेश के मुँह से इतनी जल्दी निकला कि अचानक मेरी दृष्टि उसके चेहरे पर चली गई जिस पर मुझे एक अजीब सा भाव दिखाई दिया था| वह जानता था कि मेरी बात श्रेष्ठ के साथ शुरू हुई थी लेकिन फिर न जाने क्यों बंद हो गई| उसे श्रेष्ठ का फ़ोन आने पर ऐसे रिएक्ट करने की क्या ज़रूरत थी भला ?मेरे उलझे हुए मन ने सोचा जबकि मैं खुद भी उसका फ़ोन आने से आश्चर्य में तो थी ही लेकिन फ़ोन तो लेना ही था न ! कर्टसी भी कुछ होती है न!

“एक्सयुज़ मी---” कहकर मैं वहाँ से उठकर बाहर बरामदे में आने लगी, देखासामने के कमरे से निकलकर प्रमेश की दीदी आ रही थीं, उनके हाथ में कुछ मखमली डिब्बा सा था | 

मैंने उनको सिर नीचे करके विश किया और ‘एक्सकयूज़ मी’कहकर श्रेष्ठ से बात करने के लिए बाहर निकल आई थी|