गगन--तुम ही तुम हो मेरे जीवन मे - 16 Kishanlal Sharma द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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गगन--तुम ही तुम हो मेरे जीवन मे - 16

सन1974 में पत्नी गर्भवती हो गयी थी।मैने उसे लेडी लॉयल अस्पताल में दिखाया था।आगरा में औरतों के लिए वो अच्छा अस्पताल माना जाता था।फिर जैसा अस्पताल समय देते हम दिखाने के लिए जाते थे।उन दिनों मेरे ससुराल के साल में चार या पांच चक्कर हो जाते थे।
पत्नी मझले कद की लेकिन छरहरे शरीर की थी।वह साड़ी इस तरह पहनती थी कि उसके गर्भवती होने का पता नही चलता था।दो बार मै उसके साथ गया।लौटते समय मैंने पूछा,"तुमने अपनी मम्मी को प्रेगनेंसी के बारे में बताया
"नही,'
"तो कब बताओगी?"
मेरे श्वसुर पहले खान भांकरी स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे।फिर उनका ट्रांसफर आसलपुर जोबनेर हो गया था।तीसरी बार उस साल हम गए तब मैं पत्नी से बोला था,"अगर इस बार तुमने अपनी pregnency के बारे में नही बताया तो मैं बता दूंगा।
अक्सर औरत जब गर्भवती होती है तो कुछ महीने बाद दुसरो को भी उसका पेट देखकर गर्भवती होने का पता चल जाता है पर मेरी पत्नी इस तरह कपड़े पहनती थी कि दो बार अपनी माँ से मिल आयी थी।पर मा को भी पता नही चला।
उन दिनों छोटी लाइन थी।3 अप दिल्ली से अहमदाबाद चला करती थी।इस ट्रेन से मैं पत्नी के साथ गया था।ये ट्रेन करीब छः बजे जोबनेर स्टेशन पहुचती थी।
उन दिनों जोबनेर में सास श्वसुर और सबसे छोटा साला रहता था।श्वसुर साहब को स्टेशन पर ही क्वाटर मिला हुआ था। मैने वही पत्नी से पूछा था,"बता दिया
"हा
और करीब 5 महीने बाद उसने अपने गर्भवती होने के बारे में अपनी माँ को बताया था।
उस समय आगरा मे पत्नी और मै अकेले रहते थे।आज की तरह बेड रेस्ट वाली बात तो थी नही।पत्नी सब काम करती थी।बाद में गाँव से मेरी माँ आगरा आ गई थी।
8 जनवरी 1975
मेरी ड्यूटी2बजे से रात के 10 बजे तक थी।उस समय मे छोटी लाइन बुकिंग में काम कर रहा था।उस समय तीन खिड़की होती थी।एक खिड़की की ट्रेन 7 बजे चली जाती थी।हिसाब लगकर 8 बजे तक फ्री हो जाते थे।मैं उस दिन करीब 830 रात को घर आया तो कमरे में पत्नी खाट में लेटी थी।नीचे वाली किरायेदारणी भी कमरे में थी।वह मुझे देखते ही बोली,"बहु के पेट मे दर्द हो रहा है
"दवाई लाऊँ
नही।वह बोली,"
मैं समझ गया डिलीवरी का समय आ गया है।आजकल तो गाँव हो या शहर ज्यादतर अस्पताल मे ही लोग जाते है।उन दिनों घर पर भी दाई को बुला लेते थे।मेरी माँ और पड़ोसन ने दाई वाली बात कही लेकिन मैं रिक्शा ले आया और पत्नी को लेडी लॉयल अस्पताल ले गया था।मेरी माँ भी साथ गयी थी।पत्नी को भर्ती कर लिया गया था।
अस्पताल की दुर्व्यस्था/लापरवाही और कर्तव्यहीनता---
उन दिनों को मैं भूल नही सकता।मेरी पत्नी के शर्माने और दुख दर्द को पीने की क्षमता को भी दोष देना पड़ेगा।
उन दिनों आज की तरह जगह जगह निजी अस्पताल नही हुआ करते थे।आगरा में भी यही हाल था। उन दिनों सुभाष पार्क के पास डॉ मल्होत्रा का अस्पताल ही नामी था
जनवरी सर्दी का महीना।उन दिनों आगरा में सर्दी भी खूब पड़ती थी।इतना कोहरा की कई कई दिनों तक सूरज ही नही निकलता था।पत्नी अंदर वार्ड में और हम बाहर।हमारे बाद में औरते आती और कुछ देर बाद ही सूचना आती डिलीवरी हो गयी
लेकिन