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उजाले की ओर –संस्मरण

ज़िंदगी झौंका हवा का!

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स्नेहिल नमस्कार साथियों

संसार में आपाधापी हम सब देख ही रहे हैं| उम्र की इस कगार तक आते-आते न जाने कितने बदलाव, कितने ऊबड़-खाबड़, कितने प्लास्टर उखड़ते हुए देख लेते हैं हम! पल-पल में दुखी भी होने लगते हैं | जैसे कोई पानी का रेला बहा ले जाता है समुंदर पर बच्चों द्वारा बनाए गए रेत के घरों को और बच्चे रूआँसे हो उठते हैं, ऐसी ही तो है हम सबकी ज़िंदगी भी! कभी पानी के रेले से पल भर में जाने कितनी दूर जा पहुँचती है कि नामोनिशान भी नज़र नहीं आता| 

कभी बुलबुले सी क्षण भर में फट्ट से ऐसी फूट जाती है कि सब कुछ शून्य, केवल फट्ट की आवाज़ कुछ समय के लिए वातावरण में भर जाती है फिर वही सब शून्य ! चुप्पी ! हम सब केवल एक बात से सहमत हो सकते हैं, वह भी यदि समान चिंतन कर सकें तो तथा बीच में अहं को न आने दें !वह यह कि जन्मने और मृत्यु के बीच का जो समय है, वही केवल हमें मिला है जिसमें हम कुछ बेहतर कर सकें| शेष तो हममें से कोई नहीं जानता कि हम कहाँ थे और कहाँ जाएंगे ?

इस संसार में प्राणी तो विभिन्न प्रकार के हैं किन्तु चिंतनशक्ति केवल मनुष्य के पास ही है, हम सब इस सत्य से परिचित हैं इसीलिए हमारा कर्तव्य हो जाता है कि हम जीवन को कम से कम ऐसे तो गुज़ार सकें कि कहा जा सके कि हम जीवन में आए हैं| कहा व महसूस किया गया है कि मनुष्य जीवन प्राप्त होना कितना बड़ा उपहार है !

ईश्वर ने अनेक संवेदनाओं से जोड़कर मनुष्य नामक प्राणी को बनाया है, आशीर्वाद स्वरूप न जाने हमें क्या-क्या प्राप्त हुआ है| हमारे भीतरप्रेम, क्रोध, ईर्ष्या, करुणा, विवेक, सहनशीलता आदि अनेक गुणों का संचार किया गया है, प्रश्न यह होता है कि हम किस संवेदना को समय पर, सही प्रकार से प्रयुक्त कर सकते हैं? अथवा करते हैं? ज़िंदगी का एक दिन नहीं, हर दिन ही बल्कि सही प्रकार से सोचें तो प्रत्येक पल ही परीक्षा का पल होता है| ज़िंदगी हमारी परीक्षा लेती है और जब हम उसमें से खरे निकलते हैं तब वह भी आनंदित हो जाती है और हम पर  न जाने कितने अन्य आशीषों की बौछार करती है| 

जीवन है तो इसमें प्यार भी होगा, तकरार भी होगी, ईर्ष्या होगी तो करुणा भी होगी| तकरार तो ऐसी छोटी-छोटी बातों पर हो जाती है कि हम सोचते रह जाते हैं कि भई, हमारा ऐसा तो क्या बँट रहा था जो हम इतनी सी बात पर तनकर खड़े हो गए? कई बार तो हम बात को ठीक से समझते भी नहीं और अपनी बुद्धि का प्रदर्शन करने लगते हैं जिससे बात और भी बिगड़ जाती है| जहाँ किसी बात का क्षण भर में समाधान हो सकता है, वह घिसटती हुई इतनी लंबी होती जाती है जैसे कोई इलास्टिक हो और हम उसे और खींचते चले जाते हैं| इतना कि जब तक वह टूट ही न जाए!

छोटे बच्चों को तो किसी प्रकार समझा भी लें, वैसे आज के बच्चों की पीढ़ी भी इतनी स्मार्ट, चौकन्नी हो चुकी है कि उन्हें भी समझाना टेढ़ी खीर हो जाती है| प्रश्न यह भी है कि जब छोटी पीढ़ी अपने से बड़ी पीढ़ी को अविवेकी व्यवहार करते हुए देखती है तब कैसे शांत रह सकती है?माता-पिता व अपने परिवार के अन्य बड़ों को देखकर यह पीढ़ी अनजाने वही बातें अपने भीतर उतार लेती है जो वह देखती है| 

छोटी–छोटी बातों पर क्रोध, अभिमान, असंयमित व्यवहार बिना किसी विशेष कारण के ही मनुष्य को असहनशीलता की ट्रेनिंग दे देते हैं| ऐसे वातावरण में पलने वाली पीढ़ियों को दोष देना भी तो सही नहीं है क्योंकि वे बिना सिखाए ही अपने से आगे वाली पीढ़ी से बहुत कुछ सीख जाती है| बड़े होते-होते वे सभी बातें स्वाभाविक रूप से परिपक्व होती जाती हैं, समय, असमय गैस के गुब्बारे सी ऊपर और ऊपर न जाने कहाँ उड़ जाती हैं और उनमें से जाने कब फुस्स से हवा निकल जाती है| शेष रह जाता है पिचका हुआ गुब्बारा, बलून----!आशा है मैं अपनी बात समझा पा रही हूँ | 

मित्रों! ज़िंदगी ‘झौंका हवा का’ ही है न? इसको थोड़े प्रेम, स्नेह, विवेक, सहानुभूति, समझदारी से बिताया जा सके तो कितना आनंद !मनुष्य का समर्पण बहुत बहुमूल्य है चाहे वह किसी भी प्रकार का हो| उसमें थकान नहीं, उत्साह, प्रतिबद्धता महसूस करें तो ज़िंदगी कितनी खूबसूरत होगी, कल्पना करें | प्रत्येक पीढ़ी एक-दूसरे से जुड़ी रहती है, बाबस्ता रहती है| स्वाभाविक है सब पर प्रभाव भी पड़ेगा ही| प्रत्येक युग में अच्छाइयाँ, बुराइयाँ रही हैं| प्रत्येक मनुष्य कमियों और अच्छाइयों का मिश्रण है| कोई भी संपूर्ण नहीं तब? उनसे उलझने के स्थान पर यदि समझदारी से काम लिया जाए तब क्या बेहतर समाज तैयार नहीं हो सकेगा किन्तु इसके लिए प्रत्येक को अपने ऊपर काम करने की आवश्यकता होगी, दूसरे पर नहीं| 

चलिए ज़िंदगी की उलझनों की एक शाम कर देते हैं उनके नाम जो चलते हैं अपने बूते पर, बनाते हैं अपने मार्ग स्वयं, सोचते हैं स्वयं और तैयार रहते हैं स्वयं अपने में झाँकने के लिए !!

शेष फिर कभी

आप सबकी मित्र

डॉ.प्रणव भारती

 

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