जिंदगी के रंग हजार - 4 Kishanlal Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जिंदगी के रंग हजार - 4

इमरजेंसी
देश पर इमरजेंसी थोपी गयी थी।कब लगी थी।यह उन लोगो के लिए जो 21 मार्च 1977 के बाद पैदा हुए पढ़ने या सुनने का विषय हो सकता है।लेकिन मेरे जैसे या मेरी जैसी उम्र के लोगो ने इसे अपने अपने तरीके से झेला है या भुगत भोगी है।
24 और 25 जून
वैसे तो ये तारीखे है।कलेंडर की तारीख जो हर साल आती है।जन तारीखों का किसके लिए क्या महत्व है।यह मैं नही जानता लेकिन मेरे जीवन मे इन तारीखों का बहुत महत्त्व है।
24 जून 1973 को मुझे जीवनसाथी के रूप में इंद्रा उर्फ गगन मेरे जीवन मे आयी थी।25 जून को विदा होकर मेरे घर मे कदम रखा था।मतलब 24 और 25 जून मुझे हमेशा रोमांचित करती है।याद दिलाती है उस दिन की जब मै दूल्हा बनकर गया और 25 जून को अपनी नवब्याहता के साथ अपने गांव लौटा था।
शादी से पहले मैं रावली में किराए के मकान में रहते थे।शादी के बाद मैं पत्नी को गांव में ही माँ के पास छोड़ आया था।कुछ महीने बाद मैने पत्नी को अपने पास आगरा ही बुला लिया था।अगले साल पत्नी गर्भवती हुई और जनवरी 1975 में एक बेटे की माँ बन गयी थी। फिर जब बेटा कुछ महीने का हुआ तब मैं शाहगंज में किराए के मकान में आ गया था।
आपातकाल से पहले।
देश के हालात बहुत खराब हो चुके थे।महंगाई चरम पर थी।देश मे अराजकता का माहौल था।सामान कुछ भी चीनी,गेंहू सब कुछ राशन से मिलता था।
और फिर up के हाई कोर्ट ने इंद्रा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था।हमारे यहाँ लोकतंत्र है।लोकतंत्र का तकाजा था कि कांग्रेस पार्टी को चाहिए था कि इंद्रा गांधी से स्तीफा लेकर अपना कोई और नेता चुनती जो प्रधान मंत्री बनता।उस समय शरद पंवार,प्रणव मुखर्जी,गहलोत,अहमद पटेल सारे नेता जो आज थे,फब भी थे।लेकिन किसी ने जुर्रत नही की कि इंद्रा से स्तीफा देने के लिए कहते।
इंद्रा गांधी ने तानाशाह रवैयेआ अपनाया और देश पर इमरजेंसी थोप दी।तत्कालीन राष्ट्रपति ने भी इस पर अपने हस्ताक्षर कर दिए थे।भारत में लोकतंत्र है और था भी लेकिन एक ऐसी महिला जो संसद की सदस्य नही थी। और जो सांसद न हो प्रधानमंत्री नही बन सकता।कोर्ट ने उनकी सांसद के अयोग्य कर दिया था और एक ऐसी महिला ने प्रधानमंत्री के पद से स्तीफा नही दिया था।पहला दायित्व तो इंद्रा गांधी का था कि वह कोर्ट के अयोग्य ठहराते ही पद से त्यागपत्र दे देती।अगर उन्होंने त्यागपत्र नही दिया तो कॉंग्रेस पार्टी का दायित्व था कि वह किसी और को नेता चुनती और अगर पार्टी भी ऐसा नही कर सकी तो राष्ट्रपति को उन्हें बर्खास्त करना चाहिए था।पर विडम्बना देखो जो पी एम नही रह सकता था,उसने मनमानी की और संवैधानिक पदों पर बैठे सभी लोग उसके सामने नतमस्तक थे।
आज उस समय को लोकतंत्र की हत्या के रूप में याद किया जाता है।
आपातकाल से पहले रेल हड़ताल 1974 में हो चुकी थी।जो सफल थी और उसे कुचलने का भी भरपूर प्रयास हुआ था।नेताओ को जेल में बंद कर दिया गया।और अन्य तरीके भी अपनाए गए।
उस काल को मैने देखा और मेरे संज्ञान में क्या क्या आया उसका वर्णन निम्न है
(शेष आगे)