पाजेब Bharati babbar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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पाजेब



उसके बाहर आने तक मोबाइल चार बार बज चुका था।सुबह-सुबह कौन इतना बेताब है... लगभग झींकते हुए,आधा गीला बदन लिये वह बाथरूम से तौलिया लपेटते-लपेटते बाहर आया।चारों मिस्डकॉल अमृतसर में उनका पड़ोसी और उसके बचपन के साथी बलजीत की थीं।उसका माथा ठनका, वह पिछले हफ़्ते ही तो लौटा है अमृतसर से,फिर... अपने या उसके बीजी-बाऊजी के बारे में कुछ होता तो अमर करता फोन...कुछ सोचते हुए उसने फोन मिलाया लेकिन घण्टी बजती रही।बन्द होते ही फिर फोन बजा,बलजीत ही था।
"वीरे..." बलजीत का स्वर दबा हुआ था।
" की गल्ल जीते,सुख ते है?"
" वीरे,घर आ जा..." वह रुक गया।
" जीते, बीजी बाऊजी ते ठीक ने ना?"
" वीरे...अमर चला गया..."
कुलवीर गिरता हुआ-सा पलँग पर बैठ गया।कोई प्रतिक्रिया न पाकर बलजीत ने उसे पुकारा।
" होया की जीते ,एक्सीडेंट?"
" हार्टफेल "
" बीजी बाऊजी दा खयाल रखीं जीते,मैं आन्ना, " कहकर उसने फोन काट दिया।

कुछ पल वह स्तब्ध बैठा रहा...अमर...उसका भाई, उसका करीबी, सबसे अच्छा दोस्त चला गया ? दूसरे ही क्षण उसे मेहर का ध्यान आया, उसके बारे में तो वो पूछना ही भूल गया बलजीत से।जाने क्या गुज़र रही होगी उस बेचारी पर... उसका जी चाहा बलजीत को दोबारा फोन करके उसके बारे में पूछे।फिर उसे लगा,उसके अमृतसर पहुँचने तक बलजीत ही सबकुछ सम्भाल रहा होगा, ऐसे में उसे बार-बार फोन करके पूछना ठीक नहीं।मेहर का हाल पूछे बगैर ही उसकी हालत का अनुमान लगाया जा सकता है।पन्द्रह दिनों की दुल्हन का विधवा हो जाना कैसा होगा !

अमृतसर पहुँचने में पाँच-छह घंटे तो लग ही जायेंगे।उसे लगा खुद गाड़ी चला कर वह नहीं जा सकेगा।दफ्तर में पंद्रह दिनों की छुट्टी का फोन करके उसने टॅक्सी बुक कर ली।कपड़े रखने के लिए बैग उठाया तो ध्यान आया कि उसने पिछले हफ़्ते अमृतसर से लौटकर अभी तक उसे खाली नहीं किया था।उसने पलँग पर ही बैग खाली करके दूसरे कपड़े भर लिए।तभी टॅक्सी आ गई।उसने बैठते ही ड्राइवर से जल्दी चलने के लिए कहा लेकिन उसे हर गुज़रता पल भारी लग रहा था।आँखों के आगे तस्वीरें घूमती रहीं...बीजी...बाऊजी...इस उम्र में ऐसा सदमा कैसे बर्दाश्त कर पायेंगे...और मेहर...उसका खयाल आते ही कुलवीर की कल्पना जवाब दे जाती...उसने बलजीत को फोन लगाया।
" चल चुका वीरे ?"
" मेरे पहुँचने तक सम्भाल लेंई जीते..."

पिछले तीन सालों में वह चंडीगढ़ से अमृतसर पचासों बार आया-गया है लेकिन आज अपने शहर का रास्ता उसे बेहद लम्बा लग रहा था।एक तरफ उसे पहुँचने की जल्दी थी तो दूसरी तरफ वह जब तक हो सके उस घड़ी से बचना चाह रहा था जब बीजी, बाऊजी और मेहर से उसका सामना होगा।उसने सोने की कोशिश की लेकिन आँखें मूँदते ही अमर का चेहरा सामने आ गया और उसने आँखें खोल दी।वह पिछले मंगलवार की शाम को ही तो लौटा है अमृतसर से और आज सोमवार है।निकलने से पहले अमर से गले मिलते समय क्या पता था कि ये आखिरी मुलाकात है।वह चंडीगढ़ के लिए निकला और अगली सुबह बुधवार को अमर गोआ के लिए अपने हनीमून पर।शनिवार रात को अमृतसर लौटते ही तो फोन किया था उसने।
" वीरे, कदो आएगा ? खूब जमेगी महफ़िल जब मिल बैठेंगे तीन यार,तू मैं और...
" गोआ दी फैनी..." कुलवीर ने वाक्य पूरा करते हुए ठहाका लगाया।फिर देर तक दोनों हँसते बतियाते रहे।अमर गोआ की बातें बताता रहा।फिर बोला," फोन ते स्वाद नहीं आंदा वीरे,घर आजा।"
" नौकरी छुड़ाएगा मेरी, चार दिन होये ने वापस आये नु !" उसने हँसकर कहा था।कल इतवार होते हुए भी वह फोन नहीं कर पाया, और आज सुबह ही...

उसे पता ही नहीं चला टॅक्सी उसकी गली में पहुँच गयी थी।घर के बाहर कुछ लोग जमा थे लेकिन उसके बावजूद माहौल में सन्नाटा पसरा हुआ था।
" आ गया..." उसे देखकर लोग आपस में फुसफुसाये।उसके करीब जाने पर भी कोई कुछ नहीं बोला।सिर्फ हाथ जोड़कर खड़े रहे।आँगन में दरी पर मोहल्ले की औरतें बैठी हुई थी।उसे देखते ही वे सजग हो गई।वह किसी से कुछ कहे बिना सीधे अंदर चला गया।तभी उसे बीजी नज़र आ गई।वह देखते ही लिपट गया।
" अमर छड़ गया..." कहकर उन्होंने हिचकी ली और रोने लगी।बाऊजी एक तरफ चुपचाप खड़े आँखें पोंछ रहे थे। उससे लिपट कर वे सुबक पड़े।वह एक भी शब्द बोल नहीं सका।पलँग पर उसकी दादी लेटी हुई थी।वह उनकी ओर बढ़ा।उसे देखकर वे उठीं और बाँहें फैला दी।
" बेबे..." कहकर वह लिपट गया।
" व्याह खा गया सांनु," कहते हुए वे विलाप करने लगीं।
थोड़ी देर बाद वह उठा।अमर का पार्थिव शरीर सफेद चादर में लिपटा पड़ा था।उसके पास जाते ही उसका धैर्य का बाँध टूट गया और वह बिलख पड़ा।पता नहीं कब बलजीत ने कन्धों से पकड़कर उसे उठाया और गले लग गया।उसकी निगाह मेहर को खोजने लगी।बीजी ने समझते हुए उसके कमरे की ओर इशारा करते हुए कहा," अंदर है..."

वह हिचकते हुए कमरे में गया।अपनी बहन और माँ के साथ मेहर बैठी थी।उसे देखकर उसकी माँ दुपट्टे से आँखों को ढककर रोने लगी।बहन मेहर के कन्धों को बाँहों से घेरे बैठी थी।उसे देखकर वह उठ गई।मेहर की नज़र उससे मिलते ही वह रोने लगी, " मैं की करांगी वीरे !" कहते हुए उसने कुलवीर के कंधे पर सिर रख दिया।कोहनियों तक मेहंदी लगे हाथों में चमकदार लाल चूड़ा था।रो-रोकर उसका चेहरा उसके सूट के रंग की तरह गहरा गुलाबी हो गया था।दूसरे कमरे से बेबे हर मिलने वाले से रोते हुए " व्याह खा गया मेरे बच्चे नु," दोहराये जा रही थी।

कल बीते इतवार को ही अमर की शादी को पन्द्रह दिन हुए।घर में शादी की रौनक फीकी पड़ने से पहले ही मातम पसर गया था।

अमर और कुलवीर में सिर्फ दो साल का अंतर था इसलिए उनमें भाई से ज़्यादा दोस्तों वाला रिश्ता था।ज़िंदगी का हर पड़ाव दोनों ने लगभग साथ-साथ पार किया।बलजीत और कुलवीर एक साथ पढ़ते थे इसलिए उसकी हैसियत भी उनके भाई जैसी ही रही है।बारात में सबसे आगे नाचने वालों में भी कुलवीर और बलजीत ही थे।

डोली आने के बाद रिश्तेदारों के सामने बहू की मुँह दिखाई की रस्म होनी थी।सबसे पहले मेहर ने बेबे के पैर छुए तो उन्होंने अपने पोते की दुल्हन को सोने के झुमके दिये।फिर बीजी बाऊजी ने कँगन और कुछ रिश्तेदारों ने शगुन का लिफाफा पकड़ा दिया।
" तू की दित्ता भरजाई नू? " ताई जी ने कुलवीर को छेड़ा।
" मैं देवर हां, मेहर मैनु शगवन देगी।"
" भरजाई दा नां लैंदा है! " बेबे ने प्यार से झिड़की दी।
" फिर की होया,मैं तीन साल वड्डा हां!"
" फिर तू शगन दे " इस बार बुआ ने छेड़ा।
" रिश्ते विच ते छोटा हां !"
" फिर पैरी पौना कर " ताई जी ने फिर घेरा।
" बिलकुल ठीक! चल वीरे !" अमर क्यों पीछे रहता।
" फिर मैं लांगा शगन ! " कुलवीर हँसा।
" शगन ते मेहर नू ही मिलेगा,पैरी पौना कोई भी करे !" अमर ने नयी पत्नी की तरफ़दारी करते हुए कहा।इस तरह सब हँसते-हँसाते रहे जिससे घर का माहौल खुशनुमा हो गया और नयी दुल्हन भी सहज हो गई।

कुलवीर को दो दिन बाद चंडीगढ़ लौटना था और उससे अगले दिन नया जोड़ा हनीमून मनाने गोआ जा रहा था।ताई ने सुझाव दिया कि सबके जाने से पहले नयी दुल्हन से रसोई में मीठा बनाने की रस्म अदायगी भी हो जाये।
" मेहर,खीर बना दे,तेरे घरवाले दी पसंद है," बीजी ने कहा।
" नहीं सेवियाँ बना," कुलवीर बोला।
" अपनी घरवाली तों बनवायीं, आज अमर दी पसंद चलेगी," ताई जी ने कहा।
खीर खाकर बेबे और ताई जी ने दुल्हन को पाँच सौ का शगुन फिर दे दिया।
" हूण ते शरम कर वीरे,शगन दे भरजाई नू," बुआ फिर पीछे पड़ गई।
" मेहर,मेरे खाते विच लिख दे," कुलवीर ने खीर खाते-खाते हँसकर कहा।
" मेहर इस कंजूस दे खाते विच मोटी रकम लिखीं," अमर बोला।
" तुहाडे व्याह ते पाजेब लांगी..." मेहर की बात पूरी होने से पहले बुआ ने टोका, " पाजेब?बस्स, एन्नी सस्ती ?"
" सोने दी पाजेब," मेहर मुस्कुराते हुए बोली।
" ऐ हुई ना गल्ल ! " अमर ने हँसकर ताली बजाई और सब खिलखिलाकर हँसे।

किसी के रोने की आवाज़ से कुलवीर का ध्यान लौटा।दूसरे कमरे से मेहर के रोने का स्वर आ रहा था।उसके सुहाग का चूड़ा उतारा जा रहा था।बेबे तक़दीर को कोसे जा रही थी।उनकी ज़ुबान पर एक ही वाक्य था," व्याह मेरे बच्चे नू खा गया..."
" बस करो बेबे..." बीजी ने उन्हें टोका।

रिवाज के अनुसार शोक जताने के लिए आस-पड़ोस के लोग आते रहे।आँगन में शामियाने के नीचे दरी पर बैठकर औरतें चर्चा करती रहती।उनकी चर्चा का विषय शादी के पन्द्रह दिन में ही मेहर का सुहाग उजड़ना और बीजी का बुढ़ापे में बेटे को खो देना होता।पुरूष या तो चुप बैठे रहते या आगे की व्यवस्था पर चर्चा करते।कुलवीर ने आते ही बलजीत के साथ सारा काम संभाल लिया।अमर के बिना आगे जीवन कैसा होगा इस बारे में सोचने की उसे अब तक फुर्सत नहीं मिली थी।हफ्ते भर के अंदर वह दोबारा पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर आया था।अमर के बिना बीजी और बाऊजी को यहाँ किसके सहारे छोड़ जायेगा...फिर अब मेहर भी तो है!कुलवीर के दिमाग में ये सारे सवाल उठते लेकिन उनका जवाब तलाशने से पहले कोई काम सामने आ जाता और उस सवाल का सिरा वहीं छोड़कर वह काम में जुट जाता।

मेहर को बुखार हो गया, उसे देखने डॉक्टर घर आया तो उसके सामने भी बेबे बदनसीबी का रोना रोने लगी।डॉक्टर के जाते ही बीजी ने उन्हें फिर टोक दिया," बेबे,बच्ची दे सामने ऐहो जी गल्ल ना करो,ओ किवें सम्भलेगी ।"
बेबे फिर भी नहीं रुकी, " व्याह होंदे ही साड्डा ते जवान पुत्तर गया ना..."
बीजी उनकी अनसुनी करके मेहर को संभालने लगती।इन सब के बीच मेहर की माँ और छोटी बहन चुप रहती या सिसकती रहतीं।एक-दो बार कुलवीर ने भी बेबे और ताईजी को आपस में इस किस्म की बात करते सुना।

पगड़ी की रस्म की तैयारी में वह सारा दिन व्यस्त रहा।सारी तैयारी करके बलजीत रात को अपने घर चला गया।कुलवीर का कमरा रिश्तेदारों को सोने के लिए दे दिया था इसलिए वह बरामदे में चारपाई पर लेट गया।अकेला होते ही आँखों के आगे अमर का चेहरा घूमने लगा और कानों में उसके शब्द -- वीरे,घर आजा ...

" वीरे !" देर रात अपना नाम सुनकर उसने चौंककर आँखें खोली।बीजी को देख वह लपककर उठ बैठा।
" की होया बीजी?"
" इक गल्ल करनी है " बीजी ने बहुत धीमे स्वर में कहा," कोठे ते चल।" कहकर वे छत की सीढ़ियों की तरफ मुड़ गयीं।कुलवीर कुछ असमंजस में उनके पीछे हो लिया।

छत पर अंधेरा था।बीजी अंधेरे में ही सीढ़ियाँ चढ़ गई।कुलवीर का हाथ स्विच को लगा ही था कि बीजी ने कहा," बत्ती ना जला।" वे दोनों अंधेरे में ही मुंडेर के सहारे खड़े हो गए।
" वीरे,अमर ते चला गया...हुन रिश्तेदार फ़िज़ूल गल्ला कर रहे ने...तू सुनी है?"
" की बीजी ?"
" बेबे ने व्याह खा गया दी रट लायी है,होर तेरी ताई मेहर नु ही..." कहते-कहते वे रुक गयीं।
" तुसीं ध्यान ना दो," कुलवीर बोला।
" कल रसम तो बाद मेहर दी माँ ओहनु लेके जाना चाहन्दी है..."
" फिर ?"
" वीरे,मैं नहीं भेजना..."
" चार दिन रहके आ जायेगी।"
" केदे वास्ते आयेगी पुत्तर ?"
" मतलब?"
" अमर ते रेहा नहीं..."
बीजी की बात पर कुलवीर चुप रहा, उसे कोई जवाब सूझा ही नहीं क्योंकि उसने इस बारे में सोचा ही नहीं था।उसे अब महसूस हुआ कि वास्तव में मेहर किसके लिए लौटकर आये !
" लोकी ते बोलदे रैनगे कि ओहदा ही कसूर है...ओहनु ही मनहूस समझनगे..."
" ऐ की कह रहे हो बीजी ?" कुलवीर ने टोक दिया।
" मैं नहीं कह रही वीरे...तू समाज नु नहीं जानदा।"
कुलवीर को समझ नहीं आया कि वह क्या बोले।कुछ देर दोनों चुप रहे।
" मेहर मेरे घर सुहागन आयी सी,मैं ओहनु बेवा नहीं भेजना...वीरे...तू मेहर नाल व्याह करले...."
कुलवीर अंधेरे में बीजी को ताकता रह गया।ये क्या कह दिया बीजी ने!
" चुप क्यों हो गया वीरे ?तेरे तो तीन साल छोटी है, किवें काटेगी उमर...सोच-सोचकर मैनु डर लगदा है ..."
कुलवीर फिर भी चुप रहा।
" मैं मेहर नु मनहूसियत दे तमगे नाल नहीं छड़ सकदी...ओ
घर दी लच्छमी बनके आयी है...ओ बेवा नहीं रह सकदी...तू भी ते मेरा ही पुत्तर है वीरे,बचा ले मेरे घर दी लच्छमी नू..." कहते हुए उन्होंने हाथ जोड़ लिए।कुलवीर ने उनके हाथ पकड़कर उन्हें सीने से लगा लिया तो वे रोने लगी।वह कुछ देर चुप रहा।बीजी उसके सीने पर मानो अपना भार हल्का कर रही थीं।
" करेगा वीरे ?" कुछ संभलते हुए बीजी ने पूछा।
" मेहर...?...ओहदे माँ बाप...?"
" तू हाँ कर वीरे, ओहनु मैं मना लांगी...माँ बाप भी मन जानगे...बोल वीरे,मनेगा अपनी बीजी दी गल्ल?"
छत की मद्धम रौशनी में भी कुलवीर बीजी की आँखों में करुणामय आग्रह देख पा रहा था।
" ठीक है बीजी..." कुलवीर लगभग बुदबुदाया।बीजी ने दुपट्टे से अपनी आँखें पोंछी फिर अपने बेटे का चेहरा हथेली में भरकर उसका माथा चूमा।
" रब तेनु लंबी उमर बख्शे..."

सुबह होने को थी लेकिन कुलवीर की आँखों से नींद कोसों दूर थी।रह-रहकर अमर का चेहरा सामने आ जाता।उसकी शादी की बातें याद करके उसकी आँखें भर आयी।अमर...वह बुदबुदाया और तकिये में मुँह गड़ाकर रोने लगा।किसी ने उसके बालों पर हाथ फेरा तो उसने सिर उठाया।बाऊजी सिरहाने बैठे डबडबाई आँखों से उसे देख रहे थे।
" बाऊजी..."बुदबुदाते हुए उसने अपना सिर उनकी गोद में रख दिया।बहुत देर तक निःशब्दता में दोनों एक-दूसरे की बात समझते हुए वैसे ही बैठे रहे।बीजी के चेहरे पर भी एक सन्तोष का भाव था।मेहर की तबियत का हाल जानने के लिए कुलवीर उसके कमरे में गया तो उसकी माँ के चेहरे पर भी कृतज्ञता निहित सन्तोष था।पहली बार उसे मेहर से बोलने में हिचकिचाहट हो रही थी।फिर भी वह उसके पास चला गया।मेहर के चेहरे पर अभी भी उदासी की गहरी परतें थीं।उसके सामने कुलवीर को लग रहा था जैसे वह रात चोरी करता पकड़ा गया हो,लेकिन मेहर उस दुविधा या उसके कारण से अनभिज्ञ लगी।वह पलँग के पास खड़ा हो गया।कुछ कहता उससे पहले ही उसकी माँ पास आ गयी और बोली," हूण ठीक है, रात चंगी तरह सोई।" कुलवीर कुछ कहे या पूछे बिना लौट गया।

रसम के बाद अधिकतर रिश्तेदार चले गये।कुलवीर बलजीत के साथ मिलकर बचे हुए काम निपटाने में व्यस्त रहा।मेहर के माता-पिता और बहन बीजी के कहने पर रुक गए थे।रात को बीजी और बाऊजी ने बेबे के पास कुलवीर को बुलाया।बीजी ने कमरा बंद कर दिया।
" बेबे,वीरे दे सिर ते हथ रखो," बाऊजी ने कहा तो बेबे ने
कुछ न समझते हुए उन्हें देखा।
" बेबे..." कुछ रुककर बाऊजी बोले, " वीरे दा व्याह कर रहे हां..." बेबे के भाव बदलते उससे पहले बाऊजी बोल गए, "...मेहर दे नाल..."
बेबे की भाव-भंगिमा यकायक बदल गई।उन्होंने कुलवीर की तरफ देखा तो उसने उनके पैर छू लिए।
" तेरा फैसला है वीरे ?"
" मेरा ," उनके सवाल का जवाब बीजी ने दिया। " मैं कुड़ी नु ऐन्वे नहीं छड़ सकदी।मेहर मेरे घर दी लच्छमी रहेगी।" बीजी ने दृढ़तापूर्वक कहा।बेबे कुछ नहीं बोली।
" पूर्णमासी नु गुरुद्वारे जाके चुन्नी पा दांगें," बाऊजी ने कहा।
बेबे कुछ पल चुप रही, फिर बोली," सारा कुछ तय कर आये हो...मेहर दे घरवाले राजी हो गए?"
बाऊजी ने हामी भरी तो बेबे ने तीनों को एक बार देखा और कहा, " रब नु जो मंजूर..."

पूर्णमासी में दस दिन बचे थे।मेहर की माँ उसकी बहन को छोड़कर अपने घर चली गई,हालाँकि वे हर दूसरे दिन आती रही।बीजी ने मेहर को भेजने से साफ मना कर दिया।वे ज़िद करके ठान चुकी थी कि मेहर विधवा के रूप में नहीं जायेगी।मेहर अपने कमरे से बाहर ही नहीं निकलती थी और कुलवीर उसके कमरे की तरफ जाने से बचने लगा।उसे नहीं पता शादी की बात सुनकर मेहर की क्या प्रतिक्रिया रही लेकिन बीजी ने उसे बताया कि वह मान गई है।कुलवीर को
अमर की बहुत याद आ रही थी।अपने मन में वह शादी को लेकर लेश मात्र भी भाव नहीं ला रहा था।शादी के लिए खुश होने का न मौका था न वजह।पन्द्रह दिन पहले अमर की शादी पर कितनी रौनक थी,लेकिन हफ्ते भर बाद होने वाली उसकी शादी के बारे में वह स्वयं कुछ नहीं सोच पा रहा था। दूल्हे के कपड़े लेने के लिए बीजी ने उसे बलजीत के साथ जबर्दस्ती भेज दिया।एक बार उसने खुद को मेहर के साथ उस वेश में खड़े होने की कल्पना की , लेकिन अगले ही पल उस चित्र को झिड़क दिया।दीवार पर टँगी अमर और मेहर की तस्वीर को वह कैसे झुठला सकता था!अगले दिन वह तस्वीर उसे नहीं दिखी।बीजी ने पता नहीं कब उसे उतरवा दिया।कुलवीर को लगा जैसे बीजी उसके मन में झाँक गयी हो।

उसकी शादी पर न ढोलक बजे,न गीत गाये गए,लेकिन मेहर की कलाइयाँ नये चूड़े से दोबारा भर गई।घर भर में सिर्फ उसके कमरे को सजाया गया।न बलजीत ने उसे छेड़ा न बहनों ने उससे नेग माँगा।शादी की रस्में गुरुद्वारे में सबके होते हुए चुपचाप पूरी हो गई।मेहर और कुलवीर सारा समय एक दूसरे से अजनबी की तरह बैठे रहे।

रात को भी अपने ही कमरे में वह अजनबी की तरह गया।मेहर पहले कभी उसके कमरे में नहीं आयी थी।कुलवीर के कानों में अमर के शब्द गूँज रहे थे, वीरे घर आजा...

वह चुपचाप मेहर के पास बैठ गया।मेहर ने भीगी पलकों से उसे देखा तो कुलवीर ने उसकी हथेली पर एक लाल डिब्बी रख दी।कुछ पलों के लिए मेहर उसे देखती रही फिर एक प्रश्नवाचक दृष्टि से उसने दोबारा कुलवीर की ओर देखा।कुलवीर ने धीरे से डिब्बी खोली...उसे देखते ही मेहर के गालों पर आँसू लुढ़क गए...डिब्बी में सोने की पाजेब थी...


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