दाता एक राम Prafulla Kumar Tripathi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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दाता एक राम


उस सुबह की प्रेयर के बाद धर्म चर्चा करते हुए फादर डिसूजा बोल रहे थे -"जीसस ने कहा है कि तुम तभी मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश कर पाओगे जब तुम छोटे बच्चे की भांति हो जाओ। ....

अर्थात हम बच्चे की उस आंतरिक अवस्था में हो जायें,जब बच्चा होता ही नहीं, मां ही होती है-और बच्चा मां के सहारे ही जी रहा होता है। न उसमें हृदय की धड़कन होती है,न उसका अपना मस्तिष्क होता है-बच्चा पूरा समर्पित, मां के अस्तित्व का अंग होता है। ....ठीक ऐसी ही स्थिति निश्छल ध्यान योग की है। आप शांत हो जाते हैं। परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं और परमात्मा के द्वारा आप जीने लगते हैं। "

प्रतापादित्य थे तो हिन्दू किन्तु उनकी आस्था सभी धर्मों में थी। वे जीसस को मानते थे,वे मुहम्मद साहब को पढ़ते थे,वे गीता और रामायण में पारंगत थे,वे आधुनिक युग के संत स्वामियों को भी सुनते गुनते थे। उन्हें गिरिजाघर के गेट पर लिखा वह सूत्र बहुत भाता था जिसमें लिखा था- "परीक्षा सबकी करो,ग्रहण शुभ का करो। "

लेकिन उन के इस आचरण की तारीफ़ होने के बावज़ूद समाज का एक प्रभावशाली तबका ऐसा भी था जो उन्हें न हिन्दू न मुस्लिम न सिख और न ही ईसाई मानता था। और...वे जातिविहीन होकर जातिपरक समुदाय की उपेक्षा पा रहे थे। देश अभी भी दकियानूसी आचरणों से आबद्ध था। सही मायने में अभी वह देश एक अविकसित रुढ़िवादी समाज प्रधान देश था और आश्चर्य यह कि देशवासियों को अपनी इस कमी पर गुमान भी रहता था। हर पांच साल पर होनेवाले आम चुनाव जाति और धर्म की बुनियाद पर लड़े और जीते जाते थे। सरकारी संगठनों में नियुक्ति का आधार धन, जाति पाति, भाई भतीजावाद ही बना हुआ था। सूबे के मुखिया अपनी जातिपरक भावनाओं के चलते अनेक सुदक्ष प्रशासनिक अधिकारियों की सेवाओं से वंचित रहा करते थे। इन सभी का प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव आनेवाले भविष्य पर भी पड़ रहा था।

ख़ैर,इस कथा के नायक ने आजीविका के रुप में प्रोफेसरी को चुन लिया था। लेकिन वे वहां की विभागीय उठा पटक से भी खिन्न रहते थे।एक तो गौरांग और प्रभावशाली व्यक्तित्व का होना दूसरे सवर्ण होना। उन दिनों रिजर्ववेशन के चलते संकुचित विचार वाले विभाग में अधिक थे।

क्लास के लड़के उनके पीरियड्स को बिना नागा आटेंड किया करते थे क्योंकि वे मुश्किल से मुश्किल टापिक को सूगर कोटेड पिल्स बनाकर ऐसा पेश करते थे कि वह आसानी से याद हो जाया करता था। छात्रों का प्रिय बने रहना भी उनके कुछ सहकर्मियों की जलन का कारण बन बैठा था। ख़ास तौर से हेड आफ़ डिपार्टमेंट उदयराज को जिनकी नियुक्ति उन्हीं समीकरणों पर हुई थी जिसकी चर्चा हो चुकी है।

दिक्कतें एक फील्ड की नहीं थीं। इंजीनियरिंग और मेडिकल में तो और थीं। प्रफेशनल सुदक्षता किसे नहीं पसंद है?लेकिन कुछ ख़ास तरह के इंजीनियर और डाक्टर अपनी तमाम डिग्रियों के बावज़ूद प्राइवेट प्रैक्टिस या इम्प्लायमेंट मे नहीं खप पा रहे थे। इसे विचारकों ने सोशल प्राब्लम के रुप में मान लिया था और यह सिद्ध हो चला था कि जब तक देश में रिजर्वेशन और भाई भतीजावाद ख़त्म नहीं होगा देश प्रगति पथ पर अग्रसर नहीं हो सकेगा।

कथा नायक ने भी यथाशक्ति अपने छात्रों को इन सबसे ऊपर उठकर जीवन पथ पर चलने की प्रेरणा दी थी। लेकिन कभी कभी उनके समक्ष भी कुछ यक्ष प्रश्न उठकर अपना उत्तर मांगने लगते थे। तब वे उस बच्चे की आंतरिक अवस्था में चले जाया करते थे जो सर्वथा मां पर निर्भर रहता है....और तब उनका अस्तित्व बोध समाप्त हो जाया करता था और उनके अपने गुरुदेव उन्हें उन यक्ष प्रश्न से मुक्ति भी दिला देते थे। लोगों में उनके व्यक्तित्व के प्रति आश्चर्य, आशंका और कौतूहल बढ़ जाती थी।

कोई कहता " हो न हो प्रताप बाबू तो किसी जिन्न पर नियंत्रण पा लिये हैं." कोई कहता- " हां ! मैनें उन्हें अमावस्या की घनी काली रात में राप्ती के किनारे वाले श्मशानघाट में कापालिक साधना करते देखा है..."तो कोई बोल उठता- "उनके घर में नर मुंड और तंत्र- मंत्र की सामग्री मैनें अपनी नंगी आखों से देखी थी।"

..........तो जितने मुंह उतनी बातें। लेकिन प्रताप बाबू को कोई फर्क़ नहीं पड़ता था। यह सच है कि वे एक सिद्ध गृहस्थ सन्यासी आनंद मूर्ति जी को अपना गुरु मानते थे और उनकी सिखाई साधना पद्धति को कठोरता से पालन करते थे। उनके मुखमंडल की आभा देखकर,उनसे बातें करके कोई भी व्यक्ति उनकी इस अलौकिक उपलब्धि को पहचान जाया करता था।

एक बार वे अपने गुरु देव से मिलने के लिए गर्मी की छुट्टियों में ट्रेन से रांची जा रहे थे। अकेले थे और स्वयं ढो सकने योग्य बहुत कम सामान साथ में था। घर से निकलते समय दुबारा जांच पड़ताल कर चुके थे कि पाकेट में पर्याप्त पैसा आदि रहे। ट्रेन खुल चुकी थी और प्रताप बाबू हमेशा की तरह अपने आसपास के लोगों को अध्यात्म चर्चा के वशीकरण में मंत्रमुग्ध किये हुए थे।

वे तारामंडल में स्थित ऋषियों के बारे में बता रहे थे;
"उत्तर दिशा में ध्रुव की परिक्रमा करते हुए जो सात बड़े तारे दिखाई पड़ते हैं और जिनमें चार तो एक चतुष्कोण के रुप में दिखाई पड़ते हैं और तीन नीचे लटकते हुए त्रिकोण के रुप में देखे जाते हैं वे सप्तर्षि कहलाते हैं। इस सप्त ऋषि मंडल में सबे नीचे की ओर जो पूर्व तरफ झुका हुआ तारा दिखाई देता है वह मरीच नाम के ऋषि हैं। उसके ऊपर त्रिकोण के मध्य में तारा वशिष्ठ हैं। उन वशिष्ठ के समीप ही एक छोटे तारे के रुप में पतिव्रता अरुंधती विराजमान हैं। "
वे अभी बोल ही रहे थे कि तब तक एक ने पूछा -अरुन्धती?वह कौन थीं ?"
प्रताप बाबू कुछ उत्तर दें कि डिब्बे में टी.टी.आ धमके। सबने अपने अपने पाकेट और पर्स से टिकट चेक करवाना शुरु कर दिया । प्रताप बाबू ने अपनी सदरी के अंदर के पाकेट में हाथ डाला तो उनका पर्स गायब था। कुर्ते की जेबों को टटोल डाला,सीट के नीचे खोजने लगे कि सभी ने समझ लिया कि प्रताप बाबू का पर्स किसी उचक्के ने पार कर दिया है। टी.टी.कुछ आगे बोलता कि प्रताप बाबू स्वयं बोल उठे-"टी.टी.साहब ! लगता है मेरा पर्स किसी ने मार दिया है। मेरा टिकट भी उसी में रखा था। .....आप..आप मेरी घड़ी ले लीजिए प्लीज ! "टी.टी.ने घड़ी लेने में हाथ जोड़ते हुए अपनी असमर्थता दिखानी शुरु की ही थी कि वहां उनके श्रोता बने सहयात्रियों ने कलेक्शन करके टी.टी.को प्रताप बाबू के टिकट बनाने को कहा।

एक ने कहा; "यदि बुरा ना मानें तो एक निवेदन करुं। "

प्रताप बाबू बोले-"हां हां..अवश्य !"

वह सहयात्री बोला-" आप मेरे पितातुल्य हैं। श्रेष्ठ विद्वतजन हैं। तीर्थ पर जा रहे हैं। मेरी यह तुच्छ भेंट स्वीकार कर लीजिए। "और उसने दो हज़ार रुपये उनके चरणों में रख दिये।

प्रताप बाबू ने क्षणमात्र को अपने ईष्ट का ध्यान लगाया और उस धनराशि को स्वीकारते हुए कहा- "यदि तुम मुझे पिता मान रहे हो तो मैं इसे स्वीकारता हूं लेकिन एक शर्त पर। "

सहयात्री बोला- "वह क्या? "

प्रताप बाबू बोले- "इसे मैं उधार के रुप में ले रहा हूं और घर पहुंचते ही इसे जब लौटा दूंगा तो तुम इसे स्वीकार कर लेना। "

उन्होंने उन सज्जन का पता नोट किया ही था कि एक दूसरा सहयात्री बोल उठा-"....और पतिव्रता अरुंधती ?...वह कौन थीं ?"

सभी यात्री ठठाकर हंस दिये। ट्रेन अपनी तेज गति नापने लगी।