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उजाले की ओर –संस्मरण

उजाले की ओर - - - संस्मरण 

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मित्रो ! 

स्नेहिल नमस्कार 

    मैं उसे अक्सर मुँह लटकाए देखती थी। सामने के फ़्लैट की बालकनी के सुंदर से लकड़ी के झूले पर उसका तन होता और मन जाने कहाँ भटक रहा होता। मेरे और उसके बीच की दूरी थी लेकिन मैं उसके चेहरे पर पसरे विषाद को भाँप सकती थी और उससे असहज हो जाती थी। 

अक्सर मित्र, पहचान वाले और हाँ स्नेह करने वाले मुझसे पूछते हैं, 

"सबके फटे में टाँग अड़ाने का आख़िर शौक क्यों है तुम्हें?" 

कुछ उत्तर नहीं दे पाती तो फिर एक व्यंग्य उछलकर आता है, 

"महान दिखाने का शौक है!" 

     क्या उत्तर दिया जा सकता है इन बातों का? प्रत्येक मनुष्य का अपना स्वभाव, अपनी समझ और जीवन जीने का अपना सलीका है। मुझे लगता है कि अगर मैं किसी के लिए कुछ बेहतर न भी कर सकूँ, उसके आँसू ही पोंछ सकूँ तो शायद उसे कुछ सकून तो मिल ही सकेगा। 

      अचानक हो ही गई मेरी उससे भेंट! मैं अपने स्वभाव के अनुसार उसकी ओर देखकर मुस्करा दी। पहले तो वह कुछ झिझकी फिर धीरे से बोली, 

"आप वही हैं न जो----" 

"जो तुम्हें हर दिन ताड़ती रहती है?" अब मैं खिलखिला दी और उसके चेहरे पर छोटी सी मुस्कान उतर आई। मुझे अच्छा लगा। धीरे-धीरे मेरी और उसके बीच दोस्ती हो गई। वह मेरे पास आने लगी और अपनी चिंता मुझसे साझा करने लगी।वह मुझसे काफ़ी छोटी है। 

" मैं आपको दीदी कहकर पुकार सकती हूँ? "

" बिलकुल, दीदी ही तो हुई तुम्हारी, कितनी बड़ी हूँ तुमसे---" 

पता चला वह अपने कैरियर की कई परीक्षाओं में असफ़ल हो गई थी और निराशा में गोते खा रही थी। 

आज के ज़माने में मानसिक तनाव से युवाओं के मन में एक ऐसी गांठ पनपने लगती है जो यदि न खुले तो उन्हें तनाव की उस निम्न अवस्था तक ले जाती है जिससे वे अपने जीवन को ही व्यर्थ कर बैठते हैं। 

मैंने उसे अपनी तरह से समझाने की कोशिश की और मुझे उसके चेहरे पर मुस्कान देखकर संतुष्टि हुई। 

    जब सफलता और विफलता दोनों का सामना करना पड़ता है तब हमें एक उपयुक्त और संतुलित रवैया बनाए रखने की ज़रूरत होती है| उसके लिए हमें जीवन की अस्थायी अवस्थाओं, सफ़लता और विफ़लता को स्वीकार करने की ज़रूरत हैं, वे आती-जाती रहती हैं| तो फिर इस जीवन में स्थायी क्या है?

 वैसे,हमारा अपना स्वरूप, स्थायी है और उसका अनुभव इतना शाश्वत है कि  जब सफ़लता या विफ़लता आती है, तब वह सकारात्मक संतुलित व्यवहार बनाए रखने में मदद करता है| सफ़लता के समय यह रवैया हमें अति आत्मविश्वासी नहीं बनाता और विफ़लता के समय हमें निराश भी नहीं करता|

आज जिसे भी देखो, वह अपने जीवन में आने वाली असफ़लता से टूटने की कगार पर खड़ा मिलता है। उन असफ़लताओं को काले अध्याय का प्रतिरूप बनाकर  कोसना शुरू कर देता है। साबित करने लगता है कि उसकी तकलीफ़, दुर्दशा ओर असफ़लता के लिए वह स्वयं नही बाहरी शक्तियाँ जिम्मेदार हैं। 

     यहीं से उसका अपने जीवन के साथ संघर्ष शुरू हो जाता है। वह भूल जाता है कि सफ़ल होने की पहली शर्त है खुद पर विश्वास करना। मुश्किल ये है कि हम सब इच्छा तो करते हैं लेकिन विश्वास को पीछे धकेल देते हैं। 

बेहतर है कि जब भी हम  अपने लिए लक्ष्य तय करें उसे पाने के लिए सत्य, पूर्ण संकल्प और विश्वास के साथ चलें। 

यह दौर लंबा भी हो सकता है और छोटा भी, उससे निकलने के लिए टूटने की नहीं, जुड़ने की ज़रुरत है। स्वयं में दृढ़ संकल्प करने की ज़रूरत है, न कि मुँह लटकाकर मानसिक संत्रास से जूझने की। चरैवेति चरैवेति का मंत्र पकड़कर चलते जाना है और अपने लक्ष्य को हासिल करना ही है। 

सफलता अवश्य मिलेगी।

चलिए बार-बार गिरने के बावज़ूद हम उस सामने वाली दीवार पर चढ़कर,बार-बार उस पर से फिसलती उस चींटी को अपने लक्ष्य पर पहुँचे देखकर मन में एक आत्मविश्वास भर लें और  सफलता की उन सीढ़ियों पर चढ़ते चले जाएँ  ,जहाँ  हमारा लक्ष्य दिखाई दे  रहा है |

जीवन में सफ़ल रहें ,निराश न हों क्योंकि लगातार चढ़ने पर हम अपना लक्ष्य हासिल करने वाले हैं ही !  

आप सबकी मित्र 

डॉ. प्रणव भारती 

 

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