असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 11 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 11

समर्थ रामदास का व्यक्तित्व

भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से ओत-प्रोत, मध्यम ऊँचाई वाला लेकिन मज़बूत कद, गोरा रंग, तेजस्वी कांति, माथे पर फुलाव (उभाड़) ऐसा समर्थ रामदास का रूप था। पहनावे में भगवे रंग का पोशाक (कफनी), पैरों में लकड़ी से बने पादत्राण (खड़ाऊँ), लंबी दाढ़ी और मूँछें, सिर पर जटाएँ, गले में रुद्राक्षमाला, कंधे पर यज्ञोपवीत (जनेऊ), हाथ में कुबड़ी (योगदण्ड) और बगल में झोली। ऐसी मूरत देखकर लोग उन पर मोहित हो जाते।

वे बड़े चुस्त थे। तेज़ गति से चलते और ज़्यादा समय एक जगह पर ठहरते नहीं थे। स्नान-संध्या किसी जगह करते तो भोजन कहीं और करते। फिर विश्राम के लिए किसी तीसरी जगह पर जाते थे।

वे अनुशासनप्रिय और मृदुभाषी थे। उन्हें लोगों की बहुत अच्छी परख थी। खुद फुरतीले होने की वजह से आलसी लोग उन्हें पसंद नहीं थे। वे उन्हें ‘करंटा’ (दुर्भाग्यशाली/अभागा ) कहते। मराठी, हिंदी, संस्कृत और ऊर्दू भाषाओं पर उनका प्रभुत्व था।

जो मठ उन्होंने स्थापित किए थे, उनके मठाधिपतियों की हमेशा गुप्त योजनाएँ बनाने के लिए गुप्त रूप में भेंट हुआ करती थीं। ऐसी भेंटों के लिए उन्होंने गुफाएँ, सुरंग, खंदक खोज रखे थे।

ज़्यादातर संत किसी न किसी मानवी गुरु के अनुयायी रहे हैं लेकिन समर्थ रामदास का कोई मानवी गुरु नहीं था। वे स्वयंप्रज्ञ थे। अपने समाज के प्रति वात्सल्य, करुणा यही उनकी कार्य की प्रेरणा थी। धर्मसंस्थापना करना उनका लक्ष्य था।

परिवार से मिलने का संदेश :
समर्थ रामदास का कीर्तन सुनने लोग दूर-दूर से आते। एक बार पैठण में उनका कीर्तन चल रहा था। वहाँ का एक श्रोता जामगाँव (नारायण के जन्मस्थान) से आया था।

अपने गाँव में पले-बढ़े, शरारतें करनेवाले नारायण को उस श्रोता ने माथे का फुलाव देखकर तुरंत पहचान लिया। नारायण का यह मनमोहक रूप देखकर उसे बड़ा हर्ष हुआ। सालों बाद नारायण को सामने पाकर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। नारायण से मिलने की उत्तेजना में कीर्तन समाप्त होने तक प्रतीक्षा करना भी उसके लिए मुश्किल हो गया।

जैसे ही कीर्तन समाप्त हुआ, उसने तुरंत समर्थ रामदास के पास जाकर कहा‘महाराज! आपके उपदेश से मन बहुत शांत हुआ लेकिन मन में एक जिज्ञासा उठी है। क्या आप उसका शमन करेंगे?'

'बोलो, क्या पूछना चाहते हो...' महाराज ने जवाब में कहा।

'आप जामगाँव के सूर्याजीपंत के पुत्र नारायण हो ना?' उस श्रोता ने बड़ी मासूमियत से पूछा।

सवाल सुनकर समर्थ रामदास अचंभित हो गए। जिस नाम को वे त्याग चुके थे, जिस पहचान को कई वर्षों पहले ही मिटा दिया था, जिस रूप को तिलांजली दी थी, आज वही रूप अचानक और अनपेक्षित रुप से उनके सामने प्रकट हुआ था।

उन्होंने स्वीकारा कि वे ही नारायण हैं।

‘मेरा अनुमान गलत नहीं है, मैंने सही पहचाना।’ श्रोता ने भावुक होकर कहा।

‘वहाँ सब कुशल तो है ना?’ समर्थ ने पूछा।

'सब कुशल है। आपके बड़े भाई गंगाधरपंत श्रेष्ठ विद्वान बन गए हैं। उनके दो पुत्र भी हैं- रामजी और श्यामजी।' उस आदमी ने जानकारी दी।

समर्थ रामदास के मन में अपने परिवार की, समय के साथ धुँधली हुई यादें फिर से उभर आई। अपनी माता की याद से वे भावुक हो गए। ‘माँ’ शब्द और यह रिश्ता बचपन से उनके जीवन का सबसे बड़ा आश्रय रहा था। लेकिन अपने लक्ष्य पर चलते हुए, सभी मोहों का त्याग करते हुए उन्होंने इस रिश्ते को भी भुला दिया था। आज इतने वर्षों बाद अचानक 'माँ' की याद आई थी।

उस आदमी ने बताया, 'आपकी माताजी आज भी बड़ी आस लगाए द्वार पर बैठी रहती है कि एक दिन उसका नारायण लौट आएगा। उनकी आँखों से रोशनी चली गई लेकिन हृदय से उम्मीद नहीं गई। आपसे मिलने की आस खत्म नहीं हुई। अगर आप उनसे एक बार मिल लें तो शायद उनके जीवन का अंतिम समय समाधान से गुज़रे।'

समर्थ रामदास ने अपना समस्त जीवन जनकल्याण के लिए अर्पित किया था। इस कारण उन्होंने अपने परिवार को मानसिक कष्ट दिए थे, उसके लिए उनके मन में अपराध भाव जागा। लेकिन अब वे बचपन में घर छोड़कर भागनेवाले नारायण नहीं थे बल्कि एक परिपक्व समाज उद्धारक बन चुके थे। एक संन्यासी की मर्यादाओं का पालन करना या एक माँ के पुत्रवियोग के दुःख को शांत करना, ये दो चुनाव उनके सामने थे।

अंदर जगा अपराध भाव मिटाने और माँ के समाधान के लिए अपने परिवार से मिलने जाना उन्हें आवश्यक लगा। उन्होंने एक पल में निर्णय दिया कि वे अपने परिवार से भेंट करने अवश्य आएँगे। आखिर उनका गाँव भी तो उसी देश का हिस्सा था, जिसकी सेवा में उन्होंने अपने आपको समर्पित किया था। जनजागृति की आवश्यकता तो वहाँ भी थी, जहाँ से उन्हें अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हुआ था।

बाहरी सुंदरता अतिरिक्त लाभ (बोनस) है। आंतरिक खूबसूरती जीवन निखारकर, दूसरों का जीवन भी सुंदर बनाती है।


नसे पीत ना श्वेत ना श्याम काहीं। नसे वेक्त आवेक्त ना नीळ नाहीं ।
म्हणे दास विश्वासतां मुक्ति लाहे । मना संत आनंत शोधूनि पाहें ।।150।।

अर्थ - परमसत्य ना पीला है, न नीला, न श्वेत है और न ही श्याम । न वो व्यक्त है और न ही अव्यक्त । विश्वास के साथ उसकी खोज करो तो उसका दर्शन प्राप्त होता है जो मुक्ति दिलाता है। इसलिए हे मन, तुम उस शाश्वत परमसत्य की खोज करो।

अर्क- सत्य निराकार है। वह अव्यक्त होकर भी हर जगह व्यक्त है। जिससे हर रंग उत्पन्न होते हैं, वह खुद नारंगी है (ना-रंगी– जिसका कोई रंग नहीं है) । गुरुवचनों पर विश्वास करके जो सत्य की खोज करता है, उसे वह प्राप्त होता है। उस परमसत्य को पाना ही मुक्ति है। इसलिए समर्थ रामदास मन को उसकी खोज करने का उपदेश देते हैं।

नव्हे पिंडदानें नव्हे तत्त्वज्ञानें। समाधान कांहीं नव्हे तानमानें।
नव्हे योगयागें नव्हे भोगत्यागें। समाधान तें सज्जनाचेनि योगें ॥ 153 ।।

अर्थ - न शरीर के ज्ञान से, न तत्वज्ञान से, न संगीत आदि कलाओं से और न ही योगाभ्यास से। न यज्ञ-याग से और न ही भोग त्याग से। सच्चा समाधान मिलता है सिर्फ संतों की संगत से।

अर्क - संतों की संगत में मन निर्मल बन जाता है तथा मन के विकार मिट जाते हैं। संतों की संगत में ही आत्मदर्शन होता है। इसालिए समर्थ रामदास मन को संत संगति की महिमा बताते हुए कहते हैं कि जो सुख तरह-तरह के साधनों में नहीं मिलता, वह सुख-समाधान संतों की संगत में मिलता है।