असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 12 ՏᎪᎠᎻᎪᏙᏆ ՏOΝᎪᎡᏦᎪᎡ ⸙ द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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असमर्थों का बल समर्थ रामदास - भाग 12

परिवार से पुनर्भेट

कुछ ही दिनों में समर्थ रामदास जामगाँव पधारे। गाँव में प्रवेश करते ही बाल्यकाल की यादें ताजा हो उठीं, मानो कल-परसो की ही घटनाएँ हों। मारुति मंदिर, जहाँ वे अपनी माँ के साथ जाते थे... पेड़ों पर चढ़कर बाल लीलाएँ करते थे... जहाँ स्वयं प्रभु राम ने उन्हें नाम मंत्र दिया था, वह मंदिर आज भी वैसा ही था।

सबसे पहले उस मंदिर में जाकर ‘मारुति राया’ के दर्शन करके वे घर की ओर चल पड़े। अभी सूर्योदय होने में समय था। लोग धीरे-धीरे नींद से जागने लगे थे। गाँव से गुज़रते हुए इस सुंदर, तेजस्वी संन्यासी को लोग कौतुहल से देख रहे थे। समर्थ रामदास तेज गति से अपने घर की ओर कदम बढ़ा रहे थे।

मन में विचारों का तूफान उठा हुआ था। कई वर्षों पहले एक अबोध बालक ईश्वर दर्शन की आस में घर-परिवार त्यागकर चला गया था और आज घर की ओर लौट रहा था, एक तपस्वी बनकर। ऐसा तपस्वी जो किसी ध्येय से प्रेरित था, जिसकी पूर्ति के लिए पूरे संसार को ही उसने अपना घर-परिवार मान लिया था।

उस तपस्वी को ज्ञात था कि चार दीवारों में बंद रहकर गृहस्थी सँभालना उसके जीवन का उद्देश्य नहीं है। लेकिन आज परिवार और खासकर माँ के सिवाय उनकी आँखों के सामने और कुछ नहीं था।

चलते-चलते समर्थ रामदास अपने घर के सामने आकर थम गए। सुबह का समय था। अभी आँगन में रंगोली भी नहीं सजी थी। चूल्हा जलाने में काफी समय था। तभी उन्होंने अपनी झोली फैलाकर पुकार लगाई... “ॐ भवति भिक्षान् देहि!”

“इतने प्रातः भिक्षा माँगने कौन आ सकता है?” गंगाधरपंत की पत्नी पार्वती अचरज में पड़ गई। लेकिन द्वार पर आए साधु-संन्यासी देवता समान होते हैं, उन्हें खाली हाथ नहीं लौटाना चाहिए, यह सोचकर पार्वती भंडार से कुछ अनाज लाने चली गई।

“माता... भिक्षान् देहि!” समर्थ रामदास ने दोबारा पुकार लगाई। यह सुनकर राणोबाई की आँखें चमक उठीं। “अरे पार्वती, बाहर देखो, मेरा नारायण लौट आया है!”

पिछले कुछ दिनों से राणोबाई की यही दशा थी। आँखों की रोशनी कमज़ोर हो गई थी। पुत्र वियोग के शोक ने मानो उनकी सारी जीवन शक्ति ही सोख ली थी। किसी की भी आहट सुनकर समझ बैठतीं कि उसका नारायण आया है। बस यही उसके जीवन की आस बनी हुई थी।

“पार्वती, सुना नहीं तुमने? मेरा नारायण आ गया है! द्वार खोल दो!” राणोबाई ने गुहार लगाई और स्वयं उठकर, रास्ता टटोलते हुए द्वार खोलने चली गईं। अब समर्थ रामदास के लिए भी द्वार के बाहर प्रतीक्षा करना कठिन हो गया था, स्वयं ‘माँ’ सामने से चली आ रही थी।

“नारायण! तू आ गया, मेरा बच्चा ! इतने साल कहाँ रहा हमें छोड़कर ?” माँ संन्यासी को टटोलते हुए कह रही थी। समर्थ रामदास ने माँ का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा, “हाँ माँ! तुम्हारा नारायण तुमसे मिलने आया है।”

पार्वती अनाज लेकर बाहर आई। उसने भी अपने देवर नारायण को देखते ही पहचान लिया। समर्थ रामदास का यह रूप देखकर वह विस्मित हो गई। अपनी सासू माँ का पुत्र वियोग खत्म हुआ, यह सोचकर उसे भी बड़ी खुशी हुई।

राणोबाई की खुशी के समाने आसमान कम पड़ने लगा था। खुशी के आँसू लिए इतने तप के बाद लौटे पुत्र के देह को वह प्यार से टटोलती जा रही थी। छोटे नारायण के सुकुमार देह में समय के साथ कितना बदलाव आया था। हृदय की आँखों से माँ को इसकी अनुभूति हो रही थी।

रामदास ने आगे बढ़कर भाभी को प्रणाम किया तभी बड़े भाई गंगाधर भी प्रातः स्नान करके लौटे। “आ गया मेरा बंधु! कितनी प्रतीक्षा करवाई नारायण?” आते ही उन्होंने कहा।

पार्वती ने आश्चर्य से पूछा, “क्या आपको पता था कि वे आनेवाले हैं?”

“सब भगवती की कृपा है! हमें नारायण के सारे समाचार थे। नारायण ने भारत भ्रमण किया, फिर टाकली और पंचवटी में होने के समाचार मिले थे। हमारा नारायण अब 'समर्थ रामदास' कहलाता है। कितने गर्व की बात है हमारे लिए।” गंगाधरपंत ने जवाब दिया।

इतने वर्ष दूर होकर भी एक अदृश्य डोर दोनों बंधुओं के बीच बँधी हुई थी। गंगाधरपंत बचपन से ही नारायण की आकांक्षाओं के बारे में जानते थे इसलिए वे उनकी साधना में बाधा नहीं लाना चाहते थे। यदि उनके ठिकाने की घर में चर्चा होती तो माँ उनसे मिलने का हठ लेकर बैठ जाती। उन्हें घर लौटने के लिए मनाती रहती। इसलिए उन्होंने यह भेद कभी नहीं खोला।

उनका हर समाचार बड़े भाई के पास था, यह जानकर समर्थ रामदास को भी आश्चर्य हुआ। विश्व कल्याण के लिए जीवन दाँव पर लगाते हुए गृहस्थी, परिवार, मातृमोह इन सब बातों से उन्हें बचाए रखने के लिए समर्थ रामदास ने बड़े भाई को मन ही मन धन्यवाद दिए और रघुवीर को मन में ही प्रणाम किया।

माँ का हाथ थामे नारायण के साथ सभी ने घर में प्रवेश किया। अब तक रामजी-शामजी नींद से जाग चुके थे। आँखें खुलते ही घर में अतिथि देखकर उन्हें बड़ी खुशी हुई। फिर जैसे ही उन्हें पता चला कि ये सुंदर दिखने वाला अतिथि ‘नारायण काका’ है तो उनका हर्ष कई गुना बढ़ गया।

मोह-ममता संसारी का लक्षण है, मोहत्याग संन्यासी का कर्तव्य है, व्यक्तिगत मोह-ममता त्यागकर विश्व की ज़िम्मेदारी उठाना महापुरुष का तेजकर्म है।


महांवाक्य तत्वादिकें पंचिकर्णे। खुणे पाविजे संतसंगें विवर्णे।
द्वितीयेसि संकेत जो दाविजेतो। तया सांडुनी चंद्रमा भाविजेतो ॥154॥

अर्थ - महावाक्य, तत्वज्ञान, पंचीकर्ण आदि द्वारा संत-महात्माओं ने परमसत्य की तरफ संकेत किया है। द्वितीया का चंद्रमा जिस तरह संकेतों से पहचाना जाता है, उसी तरह संत-महात्माओं ने उस परब्रह्म के संकेत दिए हैं। जो उन्हें समझता है वह परब्रह्म को पाता है।

अर्क - दूज 'का चाँद* आसमान में होकर भी सहजता से दिखाई नहीं देता। उसी तरह परमसत्य संसार के कोलाहल में व्यस्त इंसान को सामने होकर भी दिखाई नहीं देता। हमारे पूर्वजों ने उसके होने के कुछ संकेत बताकर पहले ही मार्गदर्शन किया है। अहम् ब्रह्मास्मि, सोहम्, परमात्मा, ब्रह्म, त्वमेव तत्वमसि आदि संकेतों को जो समझ पाता है, उसे संसार में रहते हुए भी उस परमसत्य की अनुभूति होती है।

*दूज का चाँद– अमावस के बाद आनेवाला दूसरा दिन। इस दिन चाँद का बहुत छोटा सा हिस्सा दिखाई देता है।

दिसेना जनीं तेंचि शोधूनि पाहें। बरें पहतां गूज तेथें चि आहे।
करीं घेउं जातां कदा आडळेना। जनीं सर्व कोंदाटलें तें कळेना ।। 155 ॥

अर्थ - जो दिखाई नहीं देता, उसी की खोज करो। असली रहस्य वहीं पर है। उसे छूआ नहीं जा सकता, वह हाथ नहीं लगता। पूरे विश्व में वही व्याप्त है यह समझ में नहीं आता।

अर्क - सत्य चराचर में है लेकिन वह (माया की ग्लानि की वजह से) आँखों को दिखाई नहीं देता। वह सर्वत्र है यही उसका सबसे बड़ा राज़ है। लेकिन यह राज़ वही समझ पाता है, जो सच्चाई से उसकी खोज करता है।