शिवाजी महाराज को उपदेश
तुकाराम महाराज कोरे भजनानंदी नहीं थे, वरन् नैतिक, सामाजिक कर्तव्यों का भी उनको पूरा ज्ञान था। वे सच्चे त्यागी और आत्मज्ञानी थे, इसलिए सभी विषयों में मूल तथ्य को समझ लेना उनका स्वभाव में हो गया था। जब वे लोह गाँव में रहते थे तो महाराज शिवाजी ने उनके पास बहुत सी बहुमूल्य भेंट–घोड़ा आदि भेजे और उनसे पूना आने की प्रार्थना की । तुकाराम ने समस्त पदार्थों को लौटा दिया और नौ अभंग लिखकर भेज दिये।–
“मशाल, छत्र और घोड़ों को लेकर मैं क्या करूँगा ? ये पदार्थ मेरे उपयुक्त नहीं है। हे पंढरी नाथ! अब मुझे इसमें क्यों फँसाते हो ? मान और दंभ का कोई काम मेरे लिए सर्वथा त्याज्य है। मेरा चित्त जिसकी इच्छा नहीं करता, वे ही पदार्थ तुम मुझे देते रहते हो। मैं तो संसार के माया मोह से अलग रहना चाहता हूँ। मैं ऐसी इच्छा अवश्य करता हूँ, परंतु करने-कराने वाले तुम्हीं हो।”
भगवान् में इस प्रकार अपनी निष्ठा को प्रकट करके तुकाराम महाराज ने महाराज शिवाजी को उद्देश्य करके लिखा– “चींटी और राजा मेरे लिए एक समान जीव हैं। सोना और मिट्टी मेरे लिए बराबर हैं। मुझे तो संपूर्ण बैकुंठ घर बैठे मिल गया है, अब मेरे यहाँ कमी किस बात की है ?”
“आप मुझे दे ही क्या सकते हैं? मैं तो विट्ठल को चाहता हूँ। जो धन तुकाराम ने गोमांस के समान त्याज्य मान लिया है, उसे क्यों देते हो ? अगर आप कुछ देना चाहते हैं तो एक ही दान से मैं सुखी हो सकता हूँ। वह यह कि मुख से सदैव 'विट्ठल' का उच्चारण करते रहो। आपका धन, सोना-चाँदी मेरे लिए मिट्टी के समान है।”
तुकाराम जी के इस अलौकिक वैराग्य और त्याग को देखकर शिवाजी स्वयं उनके दर्शन करने लोहगाँव आये। उनके कीर्तन और उपदेशों से वे इतने प्रभावित हुए कि प्रतिदिन शाम को भोजन करने के उपरांत घोड़े पर सवार होकर 'लोहगाँव' या 'देहूँ' जहाँ कहीं भी तुकाराम हो, आने लगे। तुकाराम के उपदेशों से उनके मन में भी वैराग्य व्याप्त हो गया और उन्होंने तुकाराम जी के सामने राज-पाट और सांसारिक संबंध त्यागने की भावना भी प्रकट की। इससे शिवाजी की माता जीजाबाई को बड़ी शंका हो गई और उन्होंने तुकाराम जी के पास जाकर शिवाजी को राज-धर्म की शिक्षा देने की प्रार्थना की । तुकाराम ने कीर्तन करते-करते वर्णाश्रम धर्म पर प्रवचन करते हुए क्षात्र धर्म और राज-धर्म का वर्णन किया और शिवाजी को स्व-कर्तव्य पालन की प्रेरणा दी।
इसके पश्चात् एक अन्य अवसर पर जब शिवाजी महाराज अपने अनेक सरदारों और सेनानायकों के साथ कीर्तन सुन रहे थे, तो तुकाराम जी ने विचार किया कि इन लोगों को ऐसा उपदेश करना चाहिए, जिससे हरि-भक्ति के साथ स्वराज्य संस्था की भी प्रेरणा मिले। उन्होंने उसी समय सिपाहीपन पर कुछ अभंग बनाकर सुनाये, जिनमें कहा गया–
“सिपाहीपन के साथ उच्च सिद्धांतों का पालन करते हुए वीर बनो, वीरों की गाथाओं को चित्त में धारण करो। सिपाही बने बिना प्रजा के कष्टों का अंत नहीं हो सकता। देने वाले उदार सिपाही बनो। सिपाही के कुशल क्षेम का भार तो स्वामी पर रहता है। सिपाहीपन के सुख से जो सर्वथा वंचित रहता है, उसका जीवन धिक्कारने योग्य है।”
“धड़ाधड़ गोली छूट रही हों, बाण के ऊपर बाण आकर गिर रहे हों, इन सबको सिपाही सह लेता है। फिर वह भी ऐसी मूसलाधार वर्षा करता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। उसे केवल स्वामी और उसका कार्य ही दिखलाई पड़ता है। जो शूरवीर सिपाही है, वह ऐसे युद्ध के बाहर और भीतर खूब सुख लूटता है।”
“सिपाहियों को आत्म-रक्षा भी करनी चाहिए। विदेशी शत्रुओं को लूट ले, उनका सर्वस्व छीन ले, अपने ऊपर उनका वश न चलने दे, शत्रुओं को अपनी खबर भी न लगने दे। जो सिपाही ऐसा होता है, दुनिया उसको अपना नाथ मानती है। तुकाराम कहते हैं कि जिसके सिपाही ऐसे हों, वह तीनों लोकों में सबसे प्रबल सेनानायक है।”
“जो सिपाही शरीर को तिनके के समान और सोने को पत्थर के समान समझता है, वह अपने स्वामी से अभिन्न है। विश्वास के बिना सिपाही का कोई मूल्य नहीं है।”
“सच्चा सिपाही ही सिपाही को पहचानता है। उसमें एक ही स्वामी के लिए आदर और निष्ठा होती है। जो केवल पेट के लिए हथियार बाँधते हैं, वे तो मैले कपड़े ढोने वाले गधे हैं। जो सच्चा सिपाही है, वह मारना और बचाना भी जानता है। वह क्या विदेशियों को अपना अस्तित्व सौंप देगा क्या ? उसके आधीन हो जायेगा ? कभी नहीं। तुकाराम कहते हैं कि जो ऐसे सच्चे वीर हैं, उनको हम देवता मानकर वंदना करेंगे।”
इस प्रकार तुकाराम जी ने अपने अभंगों में सच्ची राष्ट्रीयता, निर्भयता और तेजस्विता का भाव प्रकट किया। भगवान् को पुकारने में,संतों के गुण गाने में नाम की महिमा प्रकट करने में,दंभियों की पोल खोलने में, उनकी वाणी का जो तेज प्रकट हुआ था, वैसा ही तेज उन्होंने राज्य की स्थापना और उसकी सुव्यवस्था के विषय में भी प्रकट किया। तुकाराम के अभंगों और उपदेशों का प्रचार विशेष रूप से पूना के आस-पास 'मावला' कृषक समुदाय में था। इन्हीं लोगों में शिवाजी महाराज को अजेय मावला सेना प्राप्त हुई थी, जिसने मुगल साम्राज्य के छक्के छुड़ाकर हिंदू-राज्य की स्थापना में अद्भुत शौर्य प्रदर्शित किया था।
सेवा धर्म का स्वभाव
तुकाराम जी आरंभ से ही परोपकारी और सेवा भावी प्रकृति के थे। विशेष अवसरों पर ही नहीं, नित्य प्रति की साधारण बातों में भी उनकी यह मनोवृत्ति प्रकट होती रहती थी। रास्ते में चलते हुए किसी यात्री के सर पर अधिक बोझा देखा तो थोड़ी देर के लिए उसे अपने ऊपर रख लिया, जिससे उसे कुछ विश्राम मिल जाय। कोई बरसात में भीग जाये तो उसे ओढ़ने-पहनने को अपने वस्त्र दे देते थे और ठहरने को सूखा स्थान देते। किसी यात्री का पैर चलते-चलते सूज जाये तो वे गरम पानी करके उसे सेक देते थे। जो गाय या बैल कमजोर हो जाने से काम लायक न रहता और उसका मालिक उसे निकाल देता तो वे उसे चारा-पानी देते रहते। वे मन में भी कभी किसी के प्रति हिंसा की भावना नहीं लाते थे और चलते-फिरते पैर के नीचे दबकर कोई कीड़ा-मकोड़ा न मर जाय इसका बहुत ध्यान रखते थे।
जिस तरह भी संभव हो दूसरों को आराम पहुँचाना, आवश्यकता पड़ने पर सबकी सहायता के लिए तैयार रहना, उनका जीवन-व्रत बन गया था। यो तो साधु पुरुषों का लक्षण परोपकार और दूसरों का कष्टनिवारण बतलाया ही गया है, पर तुकाराम महाराज में यह विशेषता थी कि वे केवल मन और वचन से ही नहीं क्रिया रूप में शरीर से भी सबकी अधिक से अधिक सेवा करने को तैयार रहते थे। इससे हमारी दृष्टि में उनका महत्त्व बहुत अधिक बढ़ जाता है।
उनकी दूसरी बहुत बड़ी विशेषता यह जान पड़ती है कि सब प्रकार से त्यागी, विरक्त और भक्त हो जाने पर भी उन्होंने गृहस्थाश्रम त्याग नहीं किया और स्त्री का स्वभाव झगड़ालू होने पर भी परिवार वालों का अंतिम समय तक पालन करते रहे। यह एक ऐसा आदर्श है, जिसकी हमारे समाज को बहुत आवश्यकता है। आजकल अधिकांश लोगों की विचारणा यह देखने में आती है कि जिसे अध्यात्म या भक्ति के मार्ग पर चलना हो उसे गृहस्थ का त्यागकर साधू-संन्यासी बन जाना चाहिए। यह विचारधारा व्यक्ति और समाज के लिए बड़ी हानिकारक है। समाज की प्रगति और सुस्थिरता के लिए गृहस्थ आश्रम के पालन की अनिवार्य रूप से आवश्यकता है। इसी प्रकार व्यक्ति के आत्म-विकास के लिए अध्यात्म अथवा भक्ति के सिद्धांतों को व्यवहार में लाना भी अत्यावश्यक है। इसलिए जो लोग इन दोनों को परस्पर में विपरीत बतलाते हैं, वे समाज की एक प्रकार से कुसेवा ही करते हैं। समाज का आदर्श विकास तभी होना संभव है, जब उसके सदस्य परोपकार और त्याग के महत्त्व को समझकर तदनुसार आचरण करते हुए गृहस्थी का पालन और संचालन करें।
तुकाराम महान् संत भी ऐसे ही सद्गृहस्थ के उदाहरण थे। उन्होंने सच्चाई, ईमानदारी, परोपकार सेवा-धर्म, ईश्वर-भक्ति सबका पालन करते हुए अपने गृहस्थी के कर्तव्यों का भी उचित रीति से पालन किया। संवत् १७०७ में स्वर्गारोहण होते समय उनके दो पुत्र और तीन कन्याएँ थीं सच पूछा जाये तो सांसारिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों का इस उत्तमता के साथ समन्वय करने से ही वे महान् संत बने।
राम कृष्ण हरि🙏