सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 7 Charu Mittal द्वारा आध्यात्मिक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सेवा और सहिष्णुता के उपासक संत तुकाराम - 7

सत्संग की महिमा
तुकाराम महाराज ने पाखंडी, दंभी दिखावटी धर्मध्वजियों और अपने बड़प्पन के लिये शास्त्रार्थ करते-फिरने वाले 'पंडितों' की जिस प्रकार अवहेलना की है, उसी प्रकार स्थान-स्थान पर सत्संग की महिमा भी गाई है। उन्होंने कहा–
वराग्याचे भाग्य संत-संग हाचि लाभ।
संत कृपेचे हे दीप, करी साधका निष्पाप ।।

अर्थात्– “वैराग्य का सबसे बड़ा सौभाग्य सत्संग की प्राप्ति ही है। संत कृपा का यह दीपक साधक को निष्पाप बना देता है।”

जिसका जैसा स्वभाव होता है उसे वैसे ही व्यक्तियों की संगत में आनंद आता है। व्यसनों में फँसे लोग अपने ही समान व्यसनी लोगों से संपर्क रखते हैं। धार्मिक तथा भक्तिभाव वाले भगवद्भक्तों को ढूँढ लेते हैं। तुकाराम जी स्वयं परम सेवाभावी और पवित्र स्वभाव के थे और ऐसे ही व्यक्तियों से मिलना उनको अच्छा लगता था। यद्यपि सच्चे संत तो करोड़ों में एक भी होना कठिन है, पर जो स्वयं परोपकारी और निष्पाप हैं, उसके पास आकर सामान्य श्रेणी के धर्म-कर्म वाले भी संत ही बन जाते हैं। इसी दृष्टिकोण से तुकाराम महाराज ने एक स्थान पर कहा था–
“अगर कोई हीन श्रेणी का व्यक्ति भी निरंतर हरि का नाम लेता है तो मैं मन-वचन-कर्म से उसका दास हूँ। वह चाहे पवित्र कुल वाला हो या चांडाल, पर अपने को हरि का दास कहता हो तो वह धन्य है।” तुकाराम का यह कथन संभवतः बहुत से लोगों को पक्षपात अथवा अतिशयोक्तिपूर्ण लगेगा, पर उसका गूढ़ आशय यह है कि सब तरफ से मन हटाकर निरंतर भगवान् का नाम जपने में इतनी शक्ति है कि अगर आचारहीन व्यक्ति भी उसे लेगा तो वह सुधरकर सदाचारी बन जायेगा। 'गीता' में भी ऐसा ही मत व्यक्त किया गया है–
अपि चेत्सुदुराचारो भजतेमामनन्यभाक्।
साधुरेव स मंतव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ।। (9/30)

अर्थात्– “कोई मनुष्य पहले दुराचारी हो, पर फिर हरि भजन से सुमार्ग पर आ जाये तो फिर उसे साधु समझना चाहिए। उसका निश्चय पवित्र हो तो उचित समय पर उसका उद्धार हो ही जायेगा।” जबकि आंशिक रूप से भगवान् के मार्ग पर चलने की इतनी महिमा है तो जो व्यक्ति हृदय से परमार्थ पथ पर चलने का उद्योग कर रहे हैं, उनकी तो प्रशंसा करनी ही चाहिए

“संतों के चरणों की रज जहाँ पड़ती है, वहाँ वासना का बीज सहज ही जल जाता है। तब राम-नाम में रुचि होती है और सुख की वृद्धि होने लगती है। यह बड़ा सुलभ साधन है और पूर्व जन्मों के पुण्य से ही प्राप्त होता है।”

संतों का स्वभाव दीन-दुःखियों के कष्टों पर द्रवित होना और उनके निवारण के लिये स्वयं कष्ट सहन करना ही रहा है। जो लोग 'संत' का अर्थ किसी पर्वत की गुफा में बैठकर ध्यान लगाना अथवा बड़े बड़े तिलक छापे लगाकर 'हरे राम हरे कृष्ण' की धुन लगाना ही मान लेते हैं, वे गलती पर हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी संतों का मुख्य लक्षण परोपकार और सेवा-धर्म का पालन ही बतलाया है–
पर उपकार वचन मन काया।
संत सहज सुभाउ खगराया।।
संत सहहिं दुःख पर हित लागी।
पर दुख हेतु असंत अभागी ।।
साधु चरित सुभ सरिस कपासू।
निरस विसद गुनमय फल जासू।।
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा।
वंदनीय जेहि जग जस पावा।।

तुकाराम महाराज ने स्वयं अपने उदाहरण से यह सिद्ध कर दिया कि बिना सेवा-धर्म को अपनाये कोई संत कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता। वे केवल भगवत् सेवा, हरिकीर्तन, धर्मोपदेश के रूप में ही प्रचार कार्य नहीं करते थे, वरन् शरीर द्वारा भी जिसकी जो सेवा बन सकती थी, उससे कभी इनकार नहीं करते थे। जब वे किसी अन्य गाँव में लगने वाले बाजार में घर के लिए सौदा खरीदने जाते तो गाँव की अनेक स्त्रियाँ अपना सौदा भी लाने का काम उनके जिम्मे कर देती थीं, जिससे उनको प्रायः बहुत अधिक बोझा लादकर कई मील तक चलना पड़ता था। और भी कोई व्यक्ति अपने निजी काम में सहायता देने को उन्हें बुलाता तो वे उसका काम खुशी से करवा देते थे। किसी भी दीन-दुःखी को देखकर उसकी सहायता को तत्पर हो जाना उनका स्वभाव ही था। इस प्रकार जहाँ तक उनसे बन पड़ता सेवा-धर्म का पालन करके अपने 'संत' नाम को चरितार्थ करते थे।