प्रेम गली अति साँकरी - 90 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 90

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तय किया गया कि इस बार दिव्य टूर के साथ जाएगा, ग्रुप लीडर की तरह  | मुझे मेरा गिल्ट परेशान करता मेरे कारण अम्मा पापा अटक जाते हैं कहीं भी जाने से | अब या तो मैं शादी कर लूँ या फिर पक्का निश्चय कर लूँ और अम्मा-पापा को बता ही दूँ कि मुझे शादी करनी ही नहीं है | यहीं तो मार खा रही थी मैं! शादी का लड्डू खाना भी था और---नहीं भी! दो नावों में पैर रखने की आयु थी क्या मेरी?बरसों से यही तो कर रही थी | 

दिव्य के साथ जाने वाले ग्रुप की तैयारियाँ शुरू हो गईं और सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गए | शीला दीदी, रतनी, दिव्य, और हाँ उत्पल भी | इस बार बहुत दिनों बाद ग्रुप बाहर कला-प्रदर्शन के लिए जा रहा था इसलिए उत्साहित भी अधिक थे सब और एहतियात भी बहुत बरती जा रही थी | अम्मा की निगहबानी में नृत्य की पोशाकों व आभूषणों का फिर से चयन किया जाना काफ़ी समय ले रहा था लेकिन सभी प्रसन्न थे और जाने की उत्सुकता से आनंदित थे | 

दिव्य को लग रहा था कि वह अपना बैस्ट दे जिससे अपना स्तर सबको दिखा सके | इस संस्थान से उसे कोई लालच नहीं था केवल इसके कि वह इसको इसे ऊँचा और ऊँचा देखना चाहता था | वह इतना कामों में संलग्न रहता कि उसे अपने खाने-पीने तक की सुध न रहती | मुझे लगता कि यह दूसरा उत्पल आ गया है | इतना पैशन! अम्मा इस परिवार को अपने आप ही सारी ज़िम्मेदारी लेते देख एक सुखद अनुभव करतीं | उन्हें लगता कि भाई नहीं है यहाँ पर लेकिन उनके कितने बच्चे अपने हैं जो सब कुछ संभाल ही लेंगे | संस्थान उनका प्यारा बच्चा था और जैसे वह हमें प्यार करती थीं वैसे ही इसे भी करती थीं  | कोविड के दिनों में भी खुद कक्षाएँ लेती रहीं थीं जबकि अब वे काफ़ी थकने लगी थीं | 

इस दुनिया में हर चीज़ का अपना समय निर्धारित होता है और शायद वे सब चीजें, लोग, घटनाएँ प्रारब्ध से जुड़ी रहती हैं | शायद नहीं अवश्य ही वरना हम एक दूसरे से क्यों और कैसे मिलते?ऐसे लोगों से मिलना जो कभी स्वप्न में क्या सोच तक में न आए हों, वे हमसे मिलकर हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाते हैं, वो भी महत्वपूर्ण हिस्सा!

मैंने एक दिन डिनर पर पापा से बात कर ही ली | अम्मा-पापा खूब अच्छे मूड में थे | कोई बाहर का नहीं था उस दिन !मेरा विशेष अर्थ उत्पल से ही था और किसी बाहरी व्यक्ति के सामने इतनी आंतरिक बात करने का कोई औचित्य नहीं था | डर तो उसका ही था जो मेरे मन के आँगन में ऐसा सिमटा बैठा था जैसे कोई उसे देख भी लेगा तो कहर हो जाएगी | हाँ, कहीं न कहीं यह बात ठीक भी थी | 

“अमी ! नहीं जानता लेकिन आइ विश आइ कुड बी ए रीयल पार्ट ऑफ़ योर लाइफ़—”उसकी ऐसी स्पष्ट बातों से ही तो मुझे घबराहट होती थी | जबकि दिल कहता था कि उसकी बातें सुनती रहूँ | कितने आराम से अब वह मेरा नाम लेकर मुझे पुकारने लगा था | आप से तुम पर बड़ी सहजता से उतर आया था | 

“आइ एम सो इंप्रेससेड बाई युअर इंटेलेक्ट, युअर फिलोसोफ़ी एंड यस युअर एटरएक्टिव पर्सनैलिटी टू | वॉन्ट यू इन माई लाइफ़— फ़ॉर एवर---”

मैं उसका चेहरा देखती रह गई थी, मैंने आँखें नीची कर लीं थीं और उसे कोई उत्तर नहीं देना था, नहीं दिया | मुझे उसका कहना न जाने बिलकुल बुरा नहीं लगा था बस जैसे हर बार दिल धड़कता रहता था इस बार और तीव्र गति से धडकने लगा था | मैं बिलकुल सुरक्षित नहीं थी, किसी और से नहीं, खुद अपने से डर था मुझे | मैंने कुछ नहीं कहा था और धड़कते दिल से वहाँ से उठकर चली गई थी | 

मन बड़ा उद्विग्न स बना रहा, शीला दीदी और रतनी आजकल बहुत व्यस्त हो चुकी थीं | मैंने भी सोच अपने चैंबर में जाकर कुछ ज़रूरी फ़ाइल्स चैक कर लूँ लेकिन मन ही नहीं लगा | उस पागल की बातें दिल में उमड़-घुमड़ करती रहीं | 

अचानक चैंबर के बाहर नॉक हुई और मेरा दिल निकलने को हो आया | मुझे हर बात में, हर जगह में बस एक ही अहसास तो होने लगा था | उसमें डूबने का खतरा हर पल बना रहता | रात को सोते समय भी करवटों और नींद की आँख मिचौनी में वही चेहरा गडमड करता रहता | 

“आ जाऊँ दीदी ?” विनोदिनी थी | मेरी हैल्पर, मेरा सारा ड्रेसिंग का व कपड़े आदि वही तो संभालती  | उसे ही पता होता मेरा क्या सामान कहाँ है?आज वह बहुत दिनों बाद आई थी | उसे भी कोविड ने नहीं छोड़ा था लेकिन ईश्वर की कृपया से वह ठीक हो गई थी | दरसल, जाते-जाते कोविड ज़्यादा या कम सभी के पास चक्कर मारकर गया ही था | अच्छी बात यह थी कि घर में बंद रहकर ही लोगों ने उससे निज़ात पा ली थी | 

“अरे !विनोदिनी! कैसी हो ?बड़े दिनों बाद?”मैं उसे देखकर खुश हो गई थी | बहुत दिनों से मेरे ड्रेसिंग का कुछ आता-पता नहीं था | जितना वह व्यवस्थित रखती थी, मैं तो कभी रख ही नहीं पाई | 

“कैसे हो तुम सब?पूरा परिवार?”

“दीदी !सब कोविड की चपेट में तो आ ही गए एक बार पर कोई बड़ी परेशानी नहीं हुई। बस भगवान की कृपया बनी रही और दूसरे भगवान का दूसरा रूप हमारे साहब की | उन्होंने बिलकुल भी परेशान नहीं होने दिया | पैसे और सामान की तो ज़रा भी कमी नहीं हुई | 

मैं जानती थी पापा हर माह सबके बैंक में ज़रूरत के लायक पैसे तो डलवाते ही रहते थे | मैं इस विषय पर अधिक बात नहीं करना चाहती थी | बार-बार एक ही बात को दोहराने में अजीब सा महसूस करते थे हम सब | 

“दीदी!बड़े दिन हो गए, आपका ड्रेसिंग चैक करना है, कुछ निकलवाना भी होगा आपको | ”

“वैसे इस बीच कुछ नया तो एड नहीं हुआ पर मैं सोच रही थी कि कुछ ऐसे कपड़े निकलवा दूँ जिनके कुछ अच्छे छोटे बच्चे के कपड़े बन सकें  | तुम्हें तो पता है बहुत सॉफ़्ट सिल्क की साड़ियाँ हैं और पाहणी भी नहीं गई हैं | निकलवा लेती हूँ, रतनी आजकल टूर पर जाने वाली ड्रेसेज़ करवा रही हैं | कुछ ज़रूरत पड़ेगी तो डिज़ाइनर बन सकता है | कुछ मेरी साड़ियाँ हाईन जिनमें मैं कुछ चेंज करवाना चाहती हूँ | पर वही है कि रतनी के सभी टेलर्स अभी बिज़ी हैं | रमेश के बच्चे के लिए सॉफ़्ट सिल्क भी निकलवाकर रखनी है | ”

“कई दिन लग जाएंगे इस छटनी में , आज कुछ करना है या आप बिज़ी हैं ?”

“सोच तो रही थी कुछ काम करने का लेकिन चलो न थोड़ा सा कुछ देखें | अम्मा का ड्रेसिंग भी करना होगा | ”

“जी दीदी, अब तो रेग्युलर आना शुरू करूंगी | ”

हम चैंबर से निकले ही थे कि महाराज की बेटी बरामदे में भागती हुई दिखाई दी | ”

“क्या हुआ इसे , यह इतनी तेज़ी से भागकर कहाँ जा रही है?” मैं बड़बड़ाई ऊर विनोदिनी के साथ उस ओर चल दी जिधर वह जा रही थी | वह अम्मा के चैंबर के बाहर पहुँचकर सीधी अंदर पहुँच गई | दरवाज़ा नॉक भी नहीं किया | वह बड़ी सलीके वाली थी | ऐसे उसे देखकर आश्चर्य हुआ | हम भी वहाँ पहुँच चुके थे, देखा अम्मा ड्राइवर को फ़ोन कर रही थीं | रमेश की पत्नी के डिलीवरी पेन्स शुरू हो गए थे |