फादर्स डे - 69 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 69

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 69

24/07/2000

फिर वही काला सोमवार। सोमवार के भय से आज सूर्यकान्त की आंख जल्दी खुल गई थी। अपने जागने की किसी को भी भनक न देकर वह सोफे पर चुपचाप आंख बंद करके बैठा रहा। दिमाग में सिर्फ एक ही नाम गूंज रहा था...लहू...लहू...लहू.. अथक प्रयासों के बाद लहू को पकड़कर पुलिस के सुपुर्द किया गया था...और वह दिनदहाड़े पुलिस की आंखों में धूल झोंककर जेल से फरार हो गया।

सुबह सभी अखबारों की हेडलाइन का मुख्य विषय लहू ही था।

“पोलिसांच्या हातावर तुरी देऊन क्रूरकर्मा लहु रामचंद्र ढेकणेचे पलायन.”(पुलिस की आंखों में धूल झोंककर निर्दयी लहू रामचन्द्र ढेकणे फरार)

एक अन्य अखबार ने विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से लिखा था,

“बालक हत्या प्रकरणातील आरोपी लहु ढेकणेचे भरदिवसा कोठडीतून पलायन.” (बच्चे की हत्या का आरोपी लहू ढेकणे दिनदहाड़े कोठड़ी से भागा)

एक अखबार के संपादकीय अग्रलेख में ‘नराधम निसटला’(नराधम छूटा) शीर्षक से पुलिस प्रशासन व्यवस्था के बारह बजाए गए थे। एक प्रसिद्ध अखबार के मुखपृष्ठ पर लिखा गया कि शौच के बहाना करके लहू शौचालय से भागा तो दूसरे पत्र में लिखा था कि लहू कपड़े धोने के लिए स्नानागार में गया और वहां से भाग निकला। किसी ने लिखा कि लहू केवल पट्टेदार चड्डी और बनियान में फरार हुआ तो कोई यह भी खबर दे रहा था कि लहू फुलपैंट और शर्ट पहनकर भागा है।

समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली विरोधाभासी खबरों के बीच जनता में आक्रोश की ज्वाला भड़कने लगी थी। स्कूल मैनेजमेंट और अभिभावकों में भय की लहर फैल गई। जिसे देखो वही अपने बच्चे की सुरक्षा का विचार कर रहा था। प्रशासन व्यवस्था के विरुद्ध गुस्सा, नाराजगी और आक्रोश की भावना जोर पकड़ने लगी थी। पुलिस की खूब मलामत हो रही थी। यह गुस्सा धीरे-धीरे सामूहिक आंदोलन में तब्दील हो रहा था।

.......................

मंगलवार – 25/07/2000

लहू का पता नहीं लग रहा था। राज्य भर की पुलिस चौकियों में लहू का हुलिया भेज दिया गया था, कहीं से भी उसके बारे में कोई जानकारी नहीं आ रही थी। शिरवळ, सलोला और खंडाला में लोगों ने अपना जोरदार विरोध प्रदर्शन दर्शाने लिए राष्ट्रीय राजमार्ग पर रास्ता रोको आंदोलन की शुरुआत कर दी थी।

आंदोलनकारी बहुत नाराज और गुस्से में थे। उनकी केवल दो ही मांगें थीं। पहली-लहू ढेकणे को तत्काल पकड़कर जेल में ठूंसो और दूसरी पुलिस अधीक्षक रामराव पवार और जिला अधिकारी अनिल डिग्गीकर खुद सामने आकर जनता से मांफी मांगें। इसके बाद ही राजमार्ग को चलने दिया जाएगा और गाड़ियों को आगे बढ़ने दिया जाएगा। परंतु इतनी भारी भीड़ और इतनी गरमागरमी के बीच दोनों अधिकारियों का वहां जाना उचित नहीं था।

सूर्यकान्त के पास पुलिस अधीक्षक रामराव पवार का फोन आया कि आप हमसे मुलाकात करने के लिए आएं और इस मुश्किल परिस्थिति से बाहर निकलने में सहायता करें। आंदोलनकारी भी इस बात को खूब समझ रहे थे कि इस समस्या में सूर्यकान्त का हस्तक्षेप लेकर जन आक्रोश को ठंडा किया जाएगा।

सूर्यकान्त घर वालों की नजर बचाकर घर से बाहर निकला और जैसे-तैसे रामराव पवार और अनिल डिग्गीकर की गाड़ी तक पहुंचा। उसकी उपस्थिति में एसपी और जिला अधिकारी ने जनता से माफी मांगी और लहू को जितनी जल्दी संभव हो, उतनी जल्दी जेल में भेजा जाएगा-ऐसा आश्वासन भी दिया। साथ ही उन्होंने सूर्यकान्त से भी निवेदन किया कि वह आंदोलनकारियों को समझा-बुझा कर स्थिति को शांत करने में मदद करे। पुलिस की ओर से माफी मांगने और लहू को जेल भेजने का आश्वासन मिलने के बाद जनता शांत हो गई। सूर्यकान्त ने दोनों हाथ जोड़कर भीड़ से निवेदन किया,

“प्लीज...पुलिस के साथ सहयोग करें। गलती सबके साथ होती है। पुलिस भी आखिर आदमी ही है, ये भूलकर कैसे काम चलेगा? यदि आपकी जिद के कारण कोई चूक हो जाएगी तो टेंशन और बढ़ जाएगा। हालात पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है।”

सूर्यकान्त के निवेदन का भीड़ ने इज्जत रखी। नाराज भीड़ काफी हद तक शांत हो चुका था। कत्ल किए गए निर्दोष बच्चे के पिता की व्याकुलताभरी विनती ह्रदयस्पर्शी साबित हुई। अपने कलेजे के टुकड़े की हत्या करके फरार हुए खूनी के विरोध में किए गए आंदोलन में सामान्य जनता की चिंता करते हुए सामाजिक हानि न होने पाए इसकी फिक्र करने वाले कितने लोग होंगे?

नाराज लोगों का गुस्सा, हल्ला-गुल्ला और आंदोलन धीरे-धीरे खत्म हो गया। परिस्थिति को नियंत्रित करने में सूर्यकान्त का बड़ा हाथ रहा।

इस समय आंदोलन का केंद्र बना हुआ लहू लेकिन किसी और ही विचार में खोया हुआ था।

.................................

बुधवार 26/07/2000

दिन बीतते जा रहे थे। तमाम सामाजिक संगठन एकत्र होकर पुलिस की लापरवाही की निंदा करते जा रहे थे। लहू के फरार होने के कारण जनता में व्याप्त आक्रोश और नाराजगी की जानकारी तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवानी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और गृहराज्य मंत्री छगन भुजबल तक भी पहुंचाई गई।

स्थानीय समाचार पत्रों के माध्यम से पाठकों का आवाज उठाई जा रही थी। पाठकों की प्रतिक्रियाओं में ‘नीच, नराधम लहू ढेकणे को तत्काल फांसी दी जाए’, मुखरता से ऐसी मांग होने लगी।

अब लेकिन पुलिस दल की जान पर बन आई थी। लहू को गिरफ्तार कर सींखचों के पीछे भेजे बिना गाम चलने वाला नहीं था। पर वो बदमाश हाथ ही कहां लग रहा था? पुलिस के पास उसके घर का पता था, सगे-संबंधियों, जानने-पहचानने वालों के नंबर और घर के पते थे। उसके आवाज की रेकॉर्डिंग थी। इसके बाद भी उस नराधम का पता लगा पाने में असफलता ही हाथ लग रही थी। उसकी चालाकी पुलिस की बदनामी का कारण बनती जा रही थी।

सातारा एसपी रामराव पवार ने जिला पुलिस अधिकारियों की तत्काल जरूरी मीटिंग बुलाई और उसमें लहू की शोध मुहिम जाहिर की। साथ ही, इस बात की भी सावधानी बरतने की बात दोहराई कि आम जनता में इसके कारण किसी भी प्रकार का डर नहीं फैलना चाहिए। लहू ढेकणे के खोज अभियान में जनता को सहभागी करने की सूचना दी गई। इसमें सार्वजनिक तौर  पर जाहिर किया गया कि जिस भी व्यक्ति को लहू ढेकणे मिलेगा उसे ईनाम में नकद राशि दी जाएगी।

पुलिस जैसी ही हालत सूर्यकान्त और उसकी मित्रमंडली की भी थी। उनको ये समझ में ही नहीं आ रहा था कि लहू कहां गया होगा। जहां-जहां संभावना थी, उन सभी लोगों के घरों को ढूंढ़ निकाला गया। घुमा-फिरा कर जांच की गई, डराना-धमाकना भी हो गया, लेकिन नतीजा शून्य। लहू के बारे में लेशमात्र जानकारी हासिल नहीं हो पाई। सारे प्रयास खोखले साबित हो रहे थे।

इस गड़बड में शिरवळवासियों को इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि प्रतिभा और सौरभ रोज की तरह ही स्कूल आ-जा रहे थे। जनाबाई अकेले ही मंदिर जाती थीं, सूर्यकान्त बिना बॉडीगार्ड के, बिना कोई सुरक्षा लिए अकेला ही दौड़भाग कर रहा था। भांडेपाटील इस तरह व्यवहार कर रहे थे मानो कुछ हुआ ही नहीं है, उनकी जान को कोई खतरा नहीं है। उनकी हिम्मत को दाद दी जा रही थी। लोग उनकी ओर आश्चर्य से देख रहा था तो कई लोग उनकी सराहना भी कर रहे थे। कुछ लोग सलाह भी दे रहे थे कि एक बेटे को तो हमेशा के लिए गंवा बैठे हो, अब कमसे कम दूसरे की चिंता करनी चाहिए कि नहीं?

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रविवार 06/08/2000

लहू जहां जा सकता था, या जहां उसके जाने की संभावना थी, उन सभी संभावित स्थानों पर पुलिस ने धावा बोलकर उसे खोजने का प्रयास किया। सूर्यकान्त ने भी अपने दोस्तों के साथ मिलकर खूब भागदौड़ की लेकिन लहू था कि मिल ही नहीं रहा था। ऐसे कौन से ब्लैक ट्रायएंगल में छिप कर बैठा था लहू शैतान?

आखिर लोगों ने अनुमान लगाया कि लहू ढेकणे मुंबई की ओर भागा होगा।

सूर्यकान्त और उसके मित्र तथा सातारा क्राइम ब्रांच ने मायानगरी की ओर प्रयाण किया। रात के आठ बजे के आसपास सभी लोणावला पहुंचते ही थे कि सातारा पुलिस को फोन आया कि पुणे के स्वारगेट पुलिस ने लहू जैसे दिखने वाले एक आदमी को पकड़ा है। आप लोग तुरंत पहचान परेड के लिए वहां पहुंचें।

रात को दस बजे के आसपास काफिला पुणे में दाखिल हुआ। सूर्यकान्त ने स्वारगेट पुलिस कस्टडी में जाकर देखा तो वह आदमी लहू ढेकणे ही था। सूर्यकान्त को देखकर भी उसने न तो उसपर कोई ध्यान दिया, न ही अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की। वह गर्दन झुकाकर बैठा रहा।

लहू को कस्टडी में देखकर पुलिस वालों ने शांति की गहरी सांस ली। सिर पर मनों का बोझ हट गया हो, ऐसा लग रहा था. पर सूर्यकान्त जानने की उत्सुकता थी कि वह कहां से और कैसे पकड़ा गया। स्वारगेट पुलिस स्टेशन का ऑफिसर लहू की बताई कहानी को दोहराने लगा।

लहू ट्रक में बैठकर पुणे पहुंचा। मार्केट यार्ड के फलों को खाकर रात को वहीं एक कोने में सो गया। सुबह उठते साथ उसका पहला काम था खुद को पुलिस से बचाकर रखना। उसके लिए अपनी पहचान छिपाकर रखना इतना आसान भी नहीं था। एक तो चारों तरफ पुलिस का डर, उस पर से जेब में एक कौड़ी भी नहीं। भटकने के लिए हाथ में गाड़ी नहीं। घर में या किसी दोस्त को फोन लगाना यानी अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा था।

इस बीच, लहू दिन भर पुणे में ही इधर-उधर भटकते रहा। पुलिस की नजरों से बचता रहा। जो मिला वही खाकर पेट भरा। आगे के और कुछ दिन वह पुणे में ही रहा। मिल गया तो खा लिया, नहीं तो भूखा रह गया। कुछ ही दिनों में समझ में आ गया कि पैसों के बिना इतने बड़े शहर में पागलों की तरह भटकने में कोई मतलब नहीं है। पुलिस के हाथों लग गया तो हड्डियों का चूरा बन जाएगा, ये तय था। इससे अच्छा है तो महाराष्ट्र से कहीं दूर चला जाए ताकि कुछ सुरिक्षत रहा जा सकेगा, यह विचार इसने अपने मन में लाया। पर इसके लिए हाथ में पैसों की जरूरत थी।

एक अगस्त को लहू ने काम खोजना शुरू किया। इसका नसीब बलवान था कि पॉलिशिंग का काम भी मिल गया। पहले दिन की मजदूरी दो सौ रुपए बनी। इतने से काम चलना नहीं था इसलिए इसने दूसरे दिन भी काम किया। आज की मजदूरी हाथ लगते ही महाराष्ट्र को हमेशा के लिए राम-राम ठोकना था। कहीं बहुत दूर निकल जाना था।

शाम को मालिक ने कहा, “आज मजदूरी नहीं मिलेगा, कल आना।”मालिक का इरादा ऐसा था कि आज पैसे दे दिए तो ये कल नहीं आएगा और फिर काम लटक जाएगा। लहू ने खूब जिद की, पर मालिक टस से मस नहीं हुआ। भरी सड़क पर लड़कर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने में खतरा था। वह वहां से मजदूरी लिए बिना ही चलते बना। दूसरे दिन मजदूरी वसूलने का विचार करते-करते वह प्रेमनगर पहुंचा। वहीं पर एक इमारत की सीढ़ियों के नीचे सो गया।

गुरुवार की सुबह खुशनुमा थी। लहू को हवा में मुक्ति की गंध आ रही थी। बाहर रिमझिम रिमझिम बरसात हो रही थी। वातावरण में ठंडक हो गई थी। उसने उठकर एक लंबी सांस ली। बाहर की ताजी हवा उसको लुभा रही थी। वो चलते-चलते पास के कैनाल में पहुंच गया। बारिश तेज होने लगी थी। इतनी भारी बारिश में लहू को कैनाल में नहाते हुए देखकर एक आदमी को जरा आश्चर्य ही हुआ। उसने लहू का बारीकी से निरीक्षण करना शुरू किया। वह आदमी पुलिस का खबरी था।

खबरी ने तत्काल स्वारगेट पुलिस स्टेशन में अपने खास ऑफिसर को फोन करके इसकी सूचना दी कि यहां कैनाल पर एक आदमी विचित्र हरकतें कर रहा है। स्वारगेट पुलिस की जीप सरसराते हुए कैनाल के पास आकर रुकी। लहू को कब्जे में लिया। उस समय किसी को इस बात की जरा भी भनक नहीं थी कि यह आदमी पुलिस को धता बताकर भागा हुआ नराधम लहू ढेकणे है। रास्ते से ही फटाफट वायरलेस मैसेज दिए जाने लगे कि दी गई सूचना की हुलिया वाले आदमी को स्वारगेट पुलिस ने गिरफ्तार किया है।

पुलिस स्टेशन पहुंचने के बाद जब संभावित पूछताछ शुरू की गई तो उसने सीधे-सीधे कबूल कर लिया,

“मी सातारा जेल मधुन पळालेला कैदी लहु ढेकणे आहे.”(मैं सातारा जेल से भागा हुआ कैदी लहू ढेकणे हूं)

स्वारगेट पुलिस की हालत तो ऐसी थी कि उनकी खुशी आसमान में समा नहीं रही थी। इस खुशी को राज्य भर के पुलिस स्टेशन वालों ने भी महसूस किया। .......... .....................

सोमवार 07/07/2000

संकेत अपहरण केस का नाटकीय दिन सोमवार फिर उदीयमान हुआ। पुलिस इंस्पेक्टर शेजवल जांच को आगे बढ़ा रहे थे। वह लहू को लेकर शिरवळ पहुंचे। पंचों की उपस्थिति में सूर्यकान्त, प्रतिभा और अन्य गवाहों के साथ उसे फोन पर बात करने का आदेश दिया गया। लहू एक संवेदनशील, समझदार व्यक्ति की तरह बात कर रहा था। उसके साथ बात करते हुए सूर्यकान्त और प्रतिभा की पुरानी यादें ताजा हो रही थीं। उसकी दी हुई धमकियां याद आ रही थीं। कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा होने के कारण नराधम के साथ बातचीत करते हुए सूर्यकान्त का मन विद्रोह कर रहा था, विरोध कर रहा था। संकेत को जान से मारने वाला सामने खड़ा है...खल्लास करता हूं साले को...गला घोंट देता हूं इस आदमी का। प्रतिभा की आंखों के सामने गन्ने के खेत में जूतों के बंद से संकेत का गला घोंटने वाला लहू दिखाई दिया, वह जोर से चीख पड़ी, फोन रख दिया और नीचे बैठकर जोर-जोर से रोने लगी। सूर्यकान्त उसे संभालने में व्यस्त हो गया।

सब देख रहे थे इन सब बातों की लहू के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। वह भावहीन चेहरे से सामने खड़ा था।

अब लहू पुलिस के कब्जे में था। गुनाह कबूल कर लिया था। घटनाक्रम भी बता दिया गया था। अमित का अस्थिपंजर मिल गया था। उसके कपड़े भी सील कर दिए गए थे। अतः केस की तैयारी करना एकदम आसान था। लेकिन पुलिस को अच्छे से मालूम था कि संकेत का केस कमजोर है, इसका आरोपी को कानूनन फायदा मिल सकता है। क्योंकि संकेत की डेडबॉडी मिली नहीं थी, न ही घटना का कोई गवाह था। यही कारण था कि नियमानुसार कार्रवाई में पुलिस एकदम सतर्क और पूरा ध्यान रख रही थी। सूर्यकान्त भी लगातार पुलिस के संपर्क में था। यथासंभव मदद भी कर रहा था।

पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की। न्यायालय में सुनवाई शुरू हुई। सूर्यकान्त एक भी दिन कोर्ट में जाने ने चूक नहीं रहा था। फिर वह केस चाहे संकेत का हो या अमित का। अमित के पिता कभी-कभी ही कोर्ट में आते थे।

भांडेपाटील परिवार के अतिरिक्त संकेत का अस्तित्व यानी केवल पुलिस रेकॉर्ड, नियमानुसार कागज पत्री, वकीलों की बहर, जांचप पड़ताल, बयानबाजी और अखबारों की काली स्याही तक ही सीमित होकर रह गया था। बाकी की दुनिया और रोज निकलने वाले दिन धीमी गति से आगे खिसकते जा रहे थे। समय के रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पड़ने वाले मोड़ों पर संकेत की यादें मधुर मुस्कान लेकर खड़ी हो जाती थीं।

पुराने जख्मों पर जमी पपड़ियों के नीचे घायल कलेजे की रक्तरंजित वेदनाएं तीव्र गति से बह रही थीं। रात के अंधेरे में विलीन होते कई आंसू अनजाने ही पलंग पर रखे तकिए में समाते जा रहे थे। बह चुके आंसुओं से थकी कुछ आंखें सूखी नजरों से अंधकार में संकेत की तलाश करते हुए सो जाती थीं

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह