लेखक: प्रफुल शाह
प्रकरण 6
सोमवार, 29/11/1999
शिरवळ बहुत कम जनसंख्या वाला स्थान है। यहां के निवासियों के परिवार पीढ़ियों से यहां रह रहे थे। सभी लोग एकदूसरे को बहुत अच्छे से जानते थे। शिरवळ में अभी तक शायद ही कोई ऐसी आपराधिक घटना घटी हो, जिसे लेकर लोगों को पुलिस की शरण लेनी पड़ी हो। आपस के मामूली झगड़ों को आपसी बातचीत से ही लोग सुलझा लेते थे। शहर का छोटा-सा एक भूगोल, और मामूली जनसंख्या के कारण यहां ठीक तरीके से पुलिस थाना भी नहीं थी। केवल एक छोटी-सी पुलिस चौकी भर थी, जहां पर हाई-वे एक्सींडेंट्स के मामले और कुछ चोरियों के मामले दर्ज थे। शिरवळवासियों को हत्या का एक भी मामला याद नहीं जो उनके गांव में घटा हो। अपहरण की कोई भी घटना न केवल शिरवळ, बल्कि पूरे खंडाला तहसील में किसी ने, कभी नहीं सुनी थी।
दुर्भाग्यवश, परिवर्तन की बयान शिरवळ के ऊपर से बहने लगी थी।
शाम को 5.30 के करीब गांववालों ने संकेत के अपहरण की घटना के बारे में सुना। सभी चिंता में पड़ गए; आज तक उनमें से किसी के लिए भी इस तरह की चौंकाने वाली घटना का कोई कारण या इरादा समझ नहीं आ रहा था। वे इस तथ्य से भी सामंजस्य बिठाने में खुद को सहज नहीं पा रहे थे कि एक छोटा-सा किंडरगार्टन में पढ़ने वाला बच्चा देर शाम तक घर लौट कर नहीं आया है। वे परेशान थे, कि आखिर संकेत ही क्यों? यह मामला केवल भांडेपाटील परिवार के लिए ही नहीं, तो पूरे गांव के लिए चिंता का विषय था। पुलिस चौकी में शिरवळ गांव के प्रमुख नेता, भांडेपाटील परिवार के शुभचिंतक, परिचित सूर्यकान्त और उसके दोस्त प्रेमजी भाई पटेल, गरुदेव भरडाडे, नितिन भारगुडे, राजेंद्र तांबे, रवीन्द्र पानसरे, विजय मालेकर और इशाक मुज्ज़वर के साथ मौजूद थे। चौकी को जाने वाले रास्ते पर हर कोई संकेत के बारे में ही बात कर रहा था। कोई कह रहा था कि वह कितना प्यारा बच्चा था, कोई उसके खिलंदड़पन की तारीफ कर रहा था तो कोई उसके क्रिकेट प्रेम को याद कर रहा था।
“संकेत कल ही मेरी दुकान पर आय था। उसने मुझे अपने साथ क्रिकेट खेलने के लिए भी कहा था।”
“संकेत बहुत होशियार था. इतनी कम उम्र में भी वह शतरंज के हरेक मोहरे को पहचान जाता था। मुझे नहीं लगता कि इतने शानदार बच्चे के साथ कुछ अशुभ घटा होगा। हो सकता है वह आसपास कहीं खेल रहा होगा. लेकिन सावधान रहने में ही भलाई है।”
वे पुलिस चौकी में पहुंच गए। पीएसआई सतीश माने और उनके साथ करीब सात-आठ कॉन्स्टेबल चौकी में मौजूद थे।
इंसपेक्टर माने ने बड़े आदर से सूर्यकान्त को बैठने के लिए कहा। गांव के अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति भी वहां पर रखी कुर्सियों पर बैठ गए। औपचारिक जांच शुरू हुई। गुमशुदा व्यक्ति का नाम, उम्र, रूप-रंग, शरीर पर कोई दिखने वाला कोई खास निशान, व्यक्ति के घर छोड़ने का समय, उसके स्कूल पहुंचने का समय, किसने उसे स्कूल छोड़ा, किसने उसे आखिरी बार देखा....वगैरह।
प्राथमिकी दर्ज हो गई। पुलिस तुरंत समझ गई कि बच्चा स्कूल पहुंचा, वह कक्षा में भी हाजिर था और समय पर ही स्कूल से बाहर निकला। ज्वलंत सवाल यह था कि आखिर उसे स्कूल से कौन लेकर गया, वह गया कहां और इस समय कहां पर है।
आश्चर्य इस बात था कि सूर्यकान्त और उसके साथी इस शिकायत को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे थे। सभी यह सोच रहे थे कि बच्चा आसपास ही कहीं खेलने गया होगा और जल्दी ही घर वापस लौट आएगा। उसको डांटने-फटकारने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उसका मुस्कुराता चेहरा जादू कर जाएगा और सबकुछ पहले जैसा ही सामान्य हो जाएगा।
‘भाऊ(भाई), यदि आपको ऐसा कोई गंभीर मसला नहीं लगता तो आप खुद ही उसे क्यों नहीं खोज लेते? ऐसा करने से आपका और पुलिस का भी समय बचेगा।’ रजिस्टर में प्राथमिकी ‘गुमशुदा शिकायत, सी आर नंबर 1999-130, 29 नवंबर, 1999’ दर्ज करते हुए इंसपेक्टर माने सोच रहे थे।
इंसपेक्टर माने ने एक कॉंस्टेबल को बुलाया और अपनी खास भावभंगिमा से कुछ सूचना दी। कॉंस्टेबल समझ गया कि अब आगे क्या करना है। उसने खोज को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी पूछताछ करनी शुरू कर दीः नजदीकी रिश्तेदारों और दोस्तों के नाम, परिवार के परिचितों का विवरण...इसके पहले कि टीम खोज के लिए निकलती, इंसपेक्टर माने ने सूर्यकान्त से पूछा कि क्या उसके पास बच्चे का फोटो है, ‘नहीं’ सुनने के बाद उसने आदेश दिया कि तुरंत फोटो उपलब्ध कराया जाए।
जब सब लोगों ने पुलिस चौकी से विदा ली उस वक्त शाम के 7.15 बज रहे थे। हालांकि, सूर्यकान्त मन ही मन उम्मीद लगाए बैठा कि बच्चा घर वापस आ गया होगा, फिर भी वह कोई मौका चूकना नहीं चाहता था। उसके दिमाग में, उन दोस्तों और रिश्तेदारों की लिस्ट घूम रही थी जिनसे उनसे संकेत के उनके पास होने के बारे में पूछ लिया था। ‘क्या कोई और शेष रह गया है?’ सूर्यकान्त में दिमाग में एक आइडिया कौंधा। ‘हमें उन मजदूरों से मिलना चाहिए जो सांई विहार में किसी न किसी काम से आते-जाते रहते हैं।’
इस बीच, पुलिस दल ने युद्ध स्तर पर अपना काम शुरू कर दिया था। आखिर, संकेत शिरवळ के किसी सामान्य परिवार से तो संबंध नहीं रखता था, और ऐसी घटना कोई समान्य घटना नहीं मानी जा सकती। सिपाहियों ने अपने स्तर पर काम बांट लिया और चौकी से बाहर उन लोगों की तलाश में निकल पड़े जिनसे पूछताछ करनी थी।
प्रतिभा तो इस घटना से भौंचक्की ही रह गई थी। संकेत का प्यारा चेहरा और उसकी मधुर आवाज उसके दिमाग में दूर जा ही नहीं रही थी। वह लगातार साई विहार के दरवाजे पर नजरें गड़ाए हुए थी। उसके लिए एक ही जगह पर बैठे रहना मुश्किल सा हो गया था। वह एक खिड़की से दूसरी खिड़की, एक दरवाजे से दूसरे दरवाजे पर जा रही थी। उसने आंसू भरी हुई आंखों संकेत के बैट-बॉल की ओर देखा।
प्रतिभा ने महसूस किया कि सौरभ कमरे के एक कोने में चुपचाप बैठा हुआ है। वह अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पा रहा था। डरा हुआ सा, वह अपनी मां के पास गया। “आई(मां), संकेत...” प्रतिभा ने उसे गले से लगा लिया। उसके सिर को सहलाते हुए आश्वस्त किया कि संकेत घर जरूर वापस आएगा। “मैंने उसके लिए वरण-भात बनाया है। तुम दोनों एक साथ खाना खाकर खेलने जाना। और अब आगे से संकेत के स्कूल जाते समय और घर वापस लौटते समय तुम उसके साथ रहा करना।” उसने कहा।
प्रतिभा अपने बेटे सौरभ के सामने मजबूत बनी रहकर सामान्य रूप से बातचीत करने की कोशिश कर रही थी ताकि सौरभ पर इस घटना का कोई बुरा असर न पड़े। लेकिन उसके आंसू थे जो थम ही नहीं रहे थे। वह जोर-जोर से रोने लगी।
अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार
©प्रफुल शाह