फादर्स डे - 68 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 68

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 68

भारत-भर की निगाहें मुंबई पर टिकी हुई थीं। हिंदू ह्रदय सम्राट शिवसेना सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे की संभावित गिरफ्तारी होगी या नहीं? यदि हो गई तो उसके परिणाम क्या होंगे? मुंबई जल उठेगी? शिवसैनिक क्या कदम उठाएंगे? इसी राजकीय गरमागरमी के वातावरण में पूरे महाराष्ट्र में कानून और सुरक्षा की व्यवस्था तगड़ी बनी रहे और किसी भी तरह की अफरा-तफरी न मचे, दंगे न भड़कें इसकी सावधानी बरतने और मुस्तैद रहने के लिए पुलिस बल की तैनाती की गई थी।

सातारा शहर भी ठाकरे बुखार से तप रहा था। राजवाड़ा, मोती चौक, राजपथ, मार्केट यार्ड और सेंट्रल बस डिपो परिसर में सभी तरह खाकी वर्दीधारियों की चहल-पहल थी। स्थानीय पुलिस, एसआरपीएफ के जवान हथियारों से लैस थे। इसके लिए सातारा शहर पुलिस जेल और जिला जेल के जवानों को भी अतिरिक्त बंदोबस्त में लगा दिया गया था। जिला जेल के पैंतालीस जवानों में से पच्चीस को अतिरिक्त बंदोबस्त के लिए भेजा गया था।

सातारा जिला जेल में आज केवल और केवल बीस पुलिस कर्मी हाजिर थे। उनमें से एक था कॉन्स्टेबल आरए निपाणे। दोपहर डेढ़ बजे लहू ढेकणे ने शौच जाने की इच्छा व्यक्त की। लहू को लेकर जाने की जिम्मेदारी निपाणे को सौंपी गई थी। स्टाफ की कमी की वजह से वैसे ही काम का बढ़ा दबाव, बाहर की गतिविधियों से कोई संपर्क नहीं-इस वजह से घर वालों की चिंता। निपाणे बड़बड़ाने लगा,

“मुफ्त का माल दबाकर खाना और कहना कि प्रेशर आया ..प्रेशर आया...इसी में दम दिखाओ...भड़वे...बाहर उपद्रव करते हो और यहां हमको परेशानी... ”

निपाणे के साथ चड्डी-बनियान पहना हुआ लहू ढेकणे चुपचाप चल रहा था। लहू शौचालय में गया। निपाणे बाहर पहरा देते हुए खड़ा था। अंदर जाकर लहू ने शौच के लिए न बैठकर अंदर का निरीक्षण करना शुरू किया। आसपास की दीवार पर देखा तो एक छोटी खिड़की में कांच या सलाखें नहीं थीं। एक आदमी बाहर निकल जाए, इतनी खुली जगह थी। उस खिड़की में से लहू को खुला चौकौन आसमान दिखाई दे रहा था।

दो मिनट, पांच मिनट....निपोणे ने घड़ी की ओर देखा। अब तो पूरे दस मिनट होने को आए थे।

“अरे...स्साला...इतना दबाकर ठूंसने की जरूरत ही क्या है भला?...ग्यारह...बारह...तेरह...चौदह...और पूरे पंद्रह मिनट हो गए। निपाणे को शंका हुई। उसने एक-दो बार लहू को आवाज दी। उधर से कोई उत्तर नहीं मिला। आखिरकार निपाणे ने जोर देकर शौचालय का दरवाजा ढकेला। अंदर की सांकल बिना मेहनत के ही टूट गई। दरवाजा खुला, अंदर लहू नहीं था।

जेल में खबर फैल गई कि लहू ढेकणे जेल से फरार हो गया। पुलिस की दौड़धूप बढ़ गई। जेल का चप्पा-चप्पा छान लिया गया,लेकिन लहू ढेकणे कहीं नहीं था। शौचालय की खुली छोटी खिड़की से झांकता हुआ आसमान पुलिस तंत्र की हंसी उड़ा रहा था।

पुलिस को तुरंत ध्यान में आया कि शौचालय की पिछली दीवार फांदकर लहू फरार हुआ है। पिछली दीवार से सटे राधिका होटल की ओर पुलिस वाले भागे। पूछताछ की, लेकिन उसका कोई अता-पता नहीं चला।

पुलिस छावनी में तब्दील हो चुके सातारा शहर में एक भयानक नराधम अपराधी का जेल से फरार हो जाना यानी पुलिसतंत्र के चेहरे पर करारा तमाचा ही तो था, सुरक्षा और कानून व्यवस्था का मजाक उड़ाया गया था। वर्दीधारियों की दौड़भाग चल रही थी इस बीच लहू ढेकणे बंधन से मुक्त होकर आजाद दुनिया में बहुत दूर निकल चुका था।

लहू शौचालय की छोटी-सी खिड़की से जैसे-तैसे बाहर निकला। ऊंगलियों पर गिनने लायक पुलिस वालों की नजरों में धूल झोंककर थोड़ी से मेहनत के बल पर दीवार फांद ली। आगे जाकर आम लोगों के बीच घुल-मिल जाना वैसे एक कैदी के लिए इतना आसान नहीं था, लेकिन अभी उस पर जेल का यूनिफॉर्म चढ़ाने का समय आया नहीं था, इसका फायदा उसे मिल गया। वो सपाटे से आगे बढ़ते हुए भीड़ में शामिल हो गया। चलते-चलते एसटी स्टैंड पहुंचा। वहां देखता क्या है कि बहुत सारा सशस्त्र पुलिस बल बंदोबस्त के लिए मौजूद था। लहू पास की भूमि विकास बैंक कॉलोनी की ओर गया। एक बंगले में घुसा। बाहर बरामदे में सुखाने के लिए रखे हुए कपड़ों में से दो-तीन कपड़े पसंद किए और अपने शरीर पर चढ़ा लिए।

पुलिस की ओर जारी किए गए कैदी के हुलिए से मुक्त होकर वह बंगले से बाहर निकला। जगह-जगह खड़े पुलिस वालों से नजरें बचाता हुआ लहू अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर चलते रहा। उस समय उसके मन में कौन-से विचार घूम रहे होंगे? चलते-चलते सातारा के पास यवतेश्वर में पहुंचा। एक जगह बैठे रहने की बजाय वह मंदिर और आसपास के दर्शनीय स्थलों में घूमते रहा। चलते हुए नेशनल हाईवे चार पर पहुंचा। वहां से पैदल पंद्रह किलोमीटर चलते-चलते पाचपड़ा पहुंचा। अब तक शाम हो चुकी थी।

लहू को वहां एक ट्रक खड़ा दिखाई दिया। चालक सामने ढाबे में खाना खाने के लिए गया हुआ था। लहू ने ट्रक के तीन-चार चक्कर मारे और फिर पीछे की ताड़पत्री उठाकर ट्रक में छिप गया। थोड़ी देर बार ट्रक चालू होकर पुणे मार्केट यार्ड में आकर रुका। लहू ने ट्रक में आराम कर लिया था। वह नीचे उतरा। उसे बहुत जोरों की भूख लगी थी। नसीब आज उसका साथ दे रहा था। मार्केट यार्ड में फलों का ढेर लगा हुआ था। इधर-उधर गिरे हुए फलों को उठाकर उसने आराम से पेटपूजा की। ठीकठाक सुरक्षित कोना तलाशा और उस कोने में लहू ने निश्चिंतता से लंबी तान दी। कुछ ही क्षणों में वह निद्रादेवी की गोद में लीन हो गया। तमाम पुलिस बल जिसकी खोज में भागमभाग कर रहा था, वह नराधम आराम से सोया हुआ था।

अपराधी तो सो रहा था, लेकिन पुलिस की भूख-प्यास और नींद इस हरामखोर अपराधी के भाग जाने के कारण हराम हो चुकी थी। सातारा स्थानीय अपराध शाखा एक्टिव हो गई। एसपी रामराव पवार को लहू ढकणे के फरार होने की सूचना दी गई। कैदी के भागने की गंभीरता और उसके कारण होने वाले दुष्परिणाम रामराव के ध्यान में आए।

सबसे पहले सूर्यकान्त को इस घटना की सूचना देने की कोशिश की गई लेकिन उसका मोबाइल फोन नहीं लगा। घर पर फोन किया गया। रविवार होने के कारण फोन प्रतिभा ने रिसीव किया। लहू के फरार होने की सूचना उसे दी गई। इस बात की ताकीद भी दी गई कि तुरंत यह बात सूर्यकान्त तक पहुंचा दी जाए। उसने उसी समय सूर्यकान्त का नंबर डायल किया, लेकिन फोन लग ही नहीं रहा था। प्रत्येक ट्राई पर ‘नॉट एवेलेबल’ सुनाई दे रहा था। सूर्यकान्त का ‘नॉट एवेलेबल’ होना असंभव था। फिर आज अचानक ऐसे कैसे हो गया?

पुलिस वाले बार-बार सूर्यकान्त को फोन लगा रहे थे। उसे सावधान करना चाहते थे। उसका फोन लग तो जाएगा न? अचानक विष्णु भांडेपाटील सूर्यकान्त के कमरे में गए और कुछ तलाशने लगे। प्रतिभा ने मदद करने के मकसद से, क्या ढूंढ़ रहे हैं पूछा। थोड़ा बिदकते हुए विष्णु भांडेपाटील ने जवाब दिया,

“सूर्यकान्त ने लिया हुआ रिवॉल्वर का लाइसेंस खोज रहा हूं, पर मिल नहीं रहा है। मुझे डर लग रहा है कि...”

घर के लोगों का तो ठीक है, लेकिन पुलिस वालों की समझ में नहीं आ रहा था कि सूर्यकान्त का फोन आखिर लग क्यों नहीं रहा है? आज लहू फरार हुआ है और आज ही उसका फोन भी नहीं लग रहा, ये महज संयोग है या....घर में भी किसी को मालूम नहीं था कि ये इंसान गया कहां है, कब लौटने वाला है?

सभी पुलिस वालों में इंस्पेक्टर मोज़ेस लोबो थोड़ा हटकर सोचने वालों में से थे। वह तुरंत रामराव पवार के पास गए। लोबो ने गड़ा मुर्दा उठ खड़ा हो, ऐसी आशंका उनके समक्ष जताई।

“सर...लहू का जेल से भागना और सूर्यकान्त का रेंज से बाहर होना दोनों घटनाएं मुझे संयोग से कुछ अधिक जान पड़त हैं। सूर्यकान्त भांडेपाटील एक अलग ही मिजाज का आदमी है। उसने पुलिस की निष्क्रियात के बारे में बार-बार हल्ला मचाया है। घर में बैठे रहने की जगह लहू को पकड़ने के लिए रात दिन एक भी किए हैं। शायद न्याय पाने के लिए तो उसने लहू को गायब नहीं कर दिया?”

पवार साहब ने सिर हिलाया।

“लोबो, ऐसा भी तो हो सकता कि लहू, सूर्यकान्त को दी हुई धमकी को सही साबित करने के लिए उस तक पहुंच गया हो तो? उसने ही सूर्यकान्त का फोन स्विच ऑफ करके कुछ कर दिया हो तो..?”

लोबो से ससम्मान जवाब दिया.

“येस, इट इज़ पॉसिबल सर।”

रामराव पवार ने आदेश दिया,

“पूरे स्टाफ को सूर्यकान्त को खोजने के लिए लगाओ...क्विक...”

आधे घंटे के भीतर पूरे सातारा और पुणे जिला पुलिस में संदेश फैल गया कि कि शिरवळ के सूर्यकान्त भांडेपाटील को खोजा जाए।

नसीब का फेर देखिए कि दो-दो खून के अपराधी लहू ढेकणे को छोड़कर पुलिस उसकी क्रूरता का शिकार हुए सूर्यकान्त को खोजने में सक्रिय हो गई थी।

प्रतिभा की ऊंगलियां लगातार सूर्यकान्त का मोबाइल नंबर डायल करने में व्यस्त थीं। उसका दिमाग अनेक विचारों से भरा हुआ था। लहू का फरार होना, सूर्यकान्त के फोन का नॉट रीचेबल होना, घर में रिवॉल्वर के पेपर न मिलना-ये सब संयोग है या फिर नियति ने न चाहने वाला कोई दृश्य उपस्थित करने का आरंभ कर दिया है। मन में डर बैठने लगा था कि लहू जैसा राक्षस खुला घूम रहा है, सूर्यकान्त का अता-पता नहीं है। क्या किया जाए...सूझ ही नहीं रहा...प्रतिभा को ऐसा लगा कि उसके दिमाग में मानों असंख्य चींटियां चलने लगी हैं। उसने अपना सिर दोनों हाथों से कसकर पकड़ लिया। सामने दीवार पर टंगी फोटो फ्रेम में संकेत और सौरभ दिखाई दे रहे थे। संकेत को तो लहू ढेकणे ने हमसे छीन लिया...और अब कहीं सौरभ की जान को तो खतरा नहीं..नहीं ये संभव नहीं..ऐसा नहीं होने देंगे...कभी नहीं..कभी भी नहीं...प्रतिभा ने फिर से नंबर डायल किया...उसका हाथ अनजाने भय से थरथरा रहा था।

दोपहर के तीन बज रहे थे। सूर्यकान्त घर में होता तो वह चाय बना रही होती। विचारों की सुनामी को रोकते हुए उसने उसका नंबर फिर से डायल किया.

‘जय....जय महाराष्ट्र माझा...गरजा महाराष्ट्र माझा...’  कॉलर ट्यून सुनाई पड़ी और उसके पीछे-पीछे उसकी आवाज,

“हां...बोल...”

प्रतिभा को अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था।

“सुनिए...मैं...मैं...सुनिए न...वो लहू जेल से भाग गया है...आप कहां पर हैं?”

“मैं बाहर हूं, घर वापस आ ही रहा हूं।”

फोन कट गया। प्रतिभा को नेटवर्क सर्विस पर गुस्सा आ रहा था। साथ ही, सूर्यकान्त के सुरक्षित होने की खुशी भी हो रही थी। वास्तव में, उस दिन ग्यारह बजे सूर्यकान्त और रफीक़ मुजावर शिरवळ से नीरा गए थे। संकेत के सुरक्षित होने की एक फीसद उम्मीद भी सूर्यकान्त छोड़ने को तैयार नहीं था। भले ही संकेत नहीं मिलेगा परंतु लहू के खिलाफ घटना से जुड़े कुछ और सबूत तो मिल जाएंगे। उनके आधार पर उसे कठोर सजा दिलवाई जा सकती है।

दोनों नीरा पुहंचे तो वहां नेटवर्क मिलना संभव नहीं हो पा रहा था। जांच-पड़ताल मैं दोपहर के ढाई बज गएष तीन बजे नीरा से बाहर निकले तो थोड़ा नेटवर्क मिला और तुरंत ही प्रतिभा को फोन या गया। विस्तार से बात हो पाती इसके पहले ही फोन कट गया। लहू के भागने की खबर सुनकर सूर्यकान्त ने गाड़ी तूफानी गति से दौड़ाई। साड़ेतीन पर मोबाइल ने फुल रेंज पकड़ी और फोन पर फोन आने लगे। घर वालों के, पुलिस वालों के और रिश्तेदारो के कॉल एक के पीछे एक।

लौटते समय सूर्यकान्त ने सातारा के नजदीक माहुली गांव माहुली से फोन करके वहां के दोस्तों को लहू को खोजने के काम से लगा दिया। शिरवळ के मित्रों को भी संदेश दिया कि तैयार रहें, हमें लहू को खोजने के लिए निकलना है।

घर पहुंचे ही थे कि पांच बजे फिर से सूर्यकान्त और मंडली लहू की तलाश में रास्ते पर निकल पड़े। पुलिस के फोन आ रहे थे कि पत्रकारों के फोन कॉल रिसीव मत करना। कोशिश करें कि लहू के फरार होने की खबर अखबारों में प्रकाशित न होने पाए। पुलिस को मालूम था कि बदनामी का ठीकरा उनके सिर पर फूटने वाला है। लहू को गैरजिम्मेदार तरीके से रखने के कारण लहू भागने में सफल रहा-यह खबर पुलिस वाले दबाना चाहते थे। लेकिन सूर्यकान्त ने साफ मना कर दिया।

शाम को छह बजते-बजते पत्रकारों के फोन आना शुरू हो गए। सबको सूर्यकान्त की प्रतिक्रिया जानने में रुचि थी। पुलिस तंत्र की निष्क्रियता और अकुशलता बाबत उन्होंने सूर्यकान्त को छेड़ना चाहा। सूर्यकान्त सबको एक ही जवाब दे रहा था, आप जो कुछ लिखना चाहें, लिख लें लेकिन इस समय मुझे अकेला छोड़ दें। मेरे बेटे का कातिल जेल से भाग गया है और दूसरे बेटे की जान खतरे में है।

भटकते-भटकते रात हो गई। सभी लोग थक गए थे। सूर्यकान्त ने घर में सभी को हिम्मत बंधाई कि डरने की जरूरत नहीं है, वह इधर आने का खतरा कतई मोल नहीं लेगा। थकान और ऊब का शिकार हो चुका सूर्यकान्त अपने कमरे की ओर निकल गया। सौरभ को साथ ले लिया।

विष्णु और जनाबाई ने घर के दरवाजे और खिड़कियों को बार-बार चेक किया। अब सावधानी बरतनी जरूरी थी। बाहर अंधेरे में एक कुत्ता भौंकने लगा...उसने किसी अनजान आदमी को देख लिया हो तो...?

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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