फादर्स डे - 66 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 66

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 66

सोमवार 17/07/2000

एक बार फिर कलमुंहा सोमवार आ गया। संकेत अपहरण कांड का घटनापूर्ण, नाटकपूर्ण और धक्कादायक सोमवार। सुबह से ही सब बेचैन थे कि संकेत के बारे में क्या सुनने को मिलने वाला है। वो किस हाल में होगा? लेकिन सूर्यकान्त को नींद से जगाने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी। अब, उसको जल्दी जगाओ, ये इच्छा हर किसी के मन में थी। बाद में फिर सो जाए...पर वह संकेत के बारे में बताने के लिए कुछ देर के लिए जाग जाए।

ग्यारह बज गए। प्रतिष्ठित लोगों ने आना शुरू कर दिया था। इनमें से कई लोग तो रात की भागमभाम के बाद आए थे तो कुछ लोगों को इस घटना के बारे में कुछ पता ही नहीं था। ठीक बारह के कांटे पर दोस्त, परिचित, प्रतिभा के मायके वाले-सभी लोग साई विहार में इकट्ठा हो गए थे। सूर्यकान्त सोफे पर बैठा था। उसकी बगल में ग्रामपंचायत सरपंच राजेन्द्र तांबे बैठे। सबकी उत्सुकता चरम पर पहुंच चुकी थी पर कोई भी उस विषय को छेड़ नहीं रहा था।

सूर्यकान्त ने अपने आसपास बैठे सभी लोगों पर नजर दौड़ाई। वह कुछ भी बोलने की मनःस्थिति में नहीं था। अचानक अपने बाजू में बैठे राजेन्द्र तांबे से लिपट कर सूर्यकान्त ने रोना शुरू कर दिया। खूब रोया, गला फाड़-फाड कर। राजेन्द्र उसकी पीठ पर ममता से हाथ फेरते रहा। उसको धीरे-धीरे थपकियां देने लगा। जीवन-भर में जितना रोया हो, सूर्यकान्त उस दिन उतना रोया। भले ही उसने किसी को कुछ भी नहीं बताया, लेकिन सबको जो समझना था, वो समझ लिया गया। साई विहार में मातम फैलने लगा। एक के बाद एक सबकी हिचकियां शुरू हो गईं। इतने महीने से बंधा हुआ आंसुओं का बांध फूट पड़ा था। सूर्यकान्त भांडेपाटी-पुत्रवियोग के अनियंत्रित दुःख से आज एक मजबूत, निर्भीक छाती का बच्चा रो रहा था।

खबर को पंख लग गए। जैसे-जैसे शिरवळ भर संकेत की बात फैलती गई, लोग साई विहार के बाहर इकट्ठा होने लगे। आखिरकार, सूर्यकान्त ने अपने मन पर काबू किया. रुदन रोक भी दिया हो, फिर भी दिल में संकेत के वियोग की लहरें किसी भी क्षण आंखों से आंसुओं की सुनामी बनाने के लिए तैयार ही थीं। उसकी हालत देखते हुए और परिवार वालों की बेचैनी और प्रतिभा की बिगड़ती स्थिति को देखकर सूर्यकान्त के दोस्तों ने उसे खड़ा किया और टेरेस की खुली हवा में ले गए।

तभी, साई विहार में एक और आगंतुक त्रिकुट आकर खड़ा हो गया। ये त्रिकुट यानी सेनानिवृत्त कर्नल प्रकाश पवार, प्रकाश अर्जुन सावंत और ज्योति शिवतरे। तीनों निजी जासूस यानी प्रायवेट डिटेक्टिव थे और एसपी रामराव पवार के मित्र भी। उन्हीं की निवेदन को मानकर ये तीनों साई विहार में सूर्यकान्त को संकेत के मामले में और अधिक सबूत जुटाकर मदद करने के लिए आए थे। लेकिन यहां का गंभीर और उदास वातावरण देखकर उन्होंने अधिक बोलना या फिर अधिक बताना उचित नहीं समझा। सूर्यकान्त और मित्रमंडली टेरेस से नीचे उतरी। तब तक प्रेमजी भाई पटेल और शिवलाल पटेल ने वहां उपस्थित सभी लोगों को सबकुछ सच-सच बता दिया था। चारों ओर शोक पसर गया। गांववालों में अधिक बोलने-बताने की इच्छा बची नहीं थी। सभी से विनम्रतापूर्वक विनती करके घर वापस भेजा गया।

दोस्तों के बहुत आग्रह किया तो सूर्यकान्त ने दो कौर मुंह में डाल लिए। साथ-साथ घर पहुंची डिटेक्टिव त्रिकुट के साथ विचार विमर्श किया कि किस तरह लहू रामचन्द्र ढेकणे के खिलाफ केस को मजबूत किया जाए। छोटे से छोटा सबूत, गवाह इकट्ठा करने की तैयारी शुरू की गई। पुलिस को उसके तरीके से काम करने दिया जाए, लेकिन अब आराम से बैठना नहीं है-सूर्यकान्त ने अपने मन में प्रतिज्ञा की।

दोपहर साढ़े तीन बजे वह टीम के साथ शेंदूरजणे की ओर निकला। वहां पर उसके वाई के मित्रों की फौज पहले से ही उपस्थित थी। सूर्यकान्त ने अपने जीवन के अठारह साल वाई में ही गुजारे थे इसलिए यहां पर उसका मित्रमंडल काफी बड़ा था। अब हर कोई, हर दिशा में जांच-पड़ताल कर रहा था। खेत कौन-सा है? खेत का मालिक कौन है? जवाब मिल गया। ये खेत मीठालाल जैन का है। यहां काम करने के लिए कितने मजदूर आते हैं? कौन-कौन आते हैं? गन्ने की कटाई कब की गई? कटाई का काम किसे सौंपा गया था? कटाई करते समय कुछ दिखाई दिया था क्या? खेत के आसपास के दो-तीन टपरियों के मालिकों पर भी सवालों की तोप दागी गई।

“आपको कभी-भी कोई आवाज सुनाई नहीं दी क्या? कोई संदेह भी नहीं हुआ? जानवर के मरने पर भी खूब बदबू फैलती है तो मृतदेह की बदबू नहीं आई?”

इन सवालों के जवाबों से काम की कोई भी बात नहीं मिली। सूर्यकान्त और मंडली निराश हो गई। ये लोग नीरा गांव की ओर निकले। यहां भी कसकर पूछताछ की, पर नतीजा वही-शून्य।

रात को नौ बजे के आसपास डिटेक्टिव टीम नीरा से पुणे की ओर चल पड़ी और सूर्यकान्त वापस शिरवळ की ओर। वह लहू के विरुद्ध यथासंभव अधिकाधिक सबूत और गवाह इकट्ठा करने के काम में सुदर्शन चक्र की भांति पीछे लगा हुआ था। उसने पक्का इरादा कर लिया था कि लहू को जितनी संभव हो अधिक से अधिक उतनी कठोर सजा दिलवाई जाएगी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि संकेत के मामले में कुछ भी एकदम पक्का नहीं था। कोई गवाह नहीं था। मृतदेह भी नहीं मिला था, न ही अस्थिपंजर मिल पाए थे। कोर्ट में लड़ने के लिए संकेत के बारे में संबंधित साक्ष्य-सबूत नहीं होंगे तो नराधम लहू ढेकणे कानून के जाल से बड़ी सहजता से छूट सकता है और आगे फिर न जाने कितने ही संकेत की जानें खतरे में पड़ जाएंगी ये तो भगवान को ही मालूम।

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मंगलवार 18/08/2000

अब नापाक लहू रामचन्द्र ढकणे से जानकारी निकलवाना एकदम आसान हो गया था। अब वह पुलिस द्वारा पूछे गए सवालों का सही-सही सहजता के साथ दे रहा था। इसके अलावा, विषय से जुड़ी हुई कुछ अधिक जानकारी भी बिना पूछे ही देता जा रहा था। वो भी स्वेच्छा से।

पुलिस के सामने घटनाएं धीरे-धीरे क्रमबद्ध तरीके से सामने आती जा रही थी। सभी अनुमान एकदूसरे के साथ जुड़ते चले जा रहे थे। अमित चंद्रकान्त सोनावणे की घटना एकदम ताजी थी। सबूत पक्के थे। अस्थिपंजर मिल चुके थे। अन्य संबंधित सबूत भी साथ में थे। इसलिए ये मामला सरल था। दोनों अपहरण, फिरौती और मानव हत्या की घटना का नराधम गुनाहगार एक ही था-लहू रामचन्द्र ढेकणे। अपराध एक सरीखे ही थे। दोनों घटनाओं को एकदूसरे से अलग करना असंभव था।

लहू द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पुलिस ने उसकी आर्थिक परिस्थिति, पैसे का लेन-देन करने का वृत्ति, आवक-जावक, जमा, बचत वगैरह की जानकारी नोट करना शुरू कर दिया। वास्तविकता यह थी कि लहू फर्नीचर पॉलिशिंग के इस काम से ऊब गया था। उसकी महत्वाकांक्षा खुद की दुकान जमाकर उसमें ऑटोमोबाइल स्पेयर पार्ट्स का व्यापार करने की थी। इस सपने को पूरा करने में एक जो सबसे बड़ी कमी थी वो थी उसके लिए लगने वाला पैसा। अपना धंधा शुरू करने के लिए लहू के पास पैसे नहीं थे और गांव से कर्ज मिल जाए इतनी वहां पर उसकी इज्जत भी नहीं थी।

अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए इस नराधम ने मासूम बच्चों की बलि ले ली। दो हंसते-खेलते परिवारों को नष्ट कर दिया। ऑटोमोबाइल स्पेयर पार्ट्स का धंधा करने के लिए दो शरीरों के स्पेयर पार्ट्स को बिखेर दिया।

किडनैपिंग की फिरौती वसूले गए पैसों के बारे में उसने बताया कि उन पैसों से उसने गांव की बीसी का कर्ज चुकाया। मुकादमवाड़ी में रहने वाली बहन को कुछ पैसे दिए। दुकान जमाने के लिए शिरवळ से पंद्रह किलोमीटर और देगाव से सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित कापूरहोल गांव में एक दुकान पसंद करके पांच हजार रुपयों का नकद डिपोजिट दिया था। पुलिस की जांच के बाद अब यथासंभव अधिकाधिक लोगों के बयान लिए जाने थे।जहां से जितनी रकम वापस मिल सके, वो लेनी थी।

संकेत के अपहरण के बाद शिक्षिका अंजली वाळिंबे द्वारा आरोपी का वर्णन किए जाने के कारण सबको उसकी जानकारी मिल चुकी थी। उस वर्णन के आधार पर पकड़ा न जा सके इसके लिए लहू दोन महीनों के लिए कोल्हापुर निकल गया था। वहां जाकर उसने व्यायामशाला और अखाड़े में जाना शुरू कर दिया। कसरत और कुश्ती सीख ली और कसरती शरीर बना लिया। इसलिए अब वह दुबला-पतला न रहकर मजबूत शरीर वाला हो गया था। कोल्हापुर से लौटकर लहू ने नीरा गांव के सोनावणे का काम शुरू किया। उस समय उसके दिमाग में चंद्रकान्त का अमित घूम रहा था। अमित को देखते साथ लहू का मन फिर मचल उठा।

हर फिरौती और खून के लिए वह अलग-अलग वाहन का उपयोग करता था। टूव्हीलर खरीदने की उसकी कूवत थी न ताकत। तो अब क्या किया जाए? ऑफकोर्स चोरी करनी थी। सूर्यकान्त द्वारा जब्त की गई काली समुराई मोटरसाइकिल और स्कूटर की पड़ताल शुरू की गई। लहू ने कबूल कर लिया कि शिरवळ से संकेत का अपहरण करन के सात महीने पहले यानी छह मई 1999 के दिन एरंडवणे निवासी बंडू रामचन्द्र सालुंके की भावसार सुमंगल कार्यालय के बाहर पार्क की हुई बजाज स्कूटर नंबर एमएफएल-1099 चुराई थी। नंबर प्लेट बदलकर इमईसी-1099 कर दी। इसी स्कूटर पर भटकते हुए वह पॉलिशिंग का काम जुटाया करता था। ऐश कलर की इसी स्कूटर पर वह संकेत को लेकर गया था।

अमित चंद्रकांत सोनावणे अपहरण के लिए उसने टीवीएस सुजुकी समुराई चुराई थी। यह गाड़ी पुणे के कर्वेनगर में रहने वाले सदानंद सातोबा घोरपड़े की थी। घोरपड़े ने 25 अप्रैल 2000 को पुणे के स्वारगेट एसटी स्टैंड पर अपनी काली सुजुकी समुराई पार्क की थी और वहीं से लहू ने यह गाड़ी उड़ा ली थी। भीड़भाड़ की जगह पर भयंकर ट्रैफिक का फायदा उठाकर चोट्टा लहू इस गाड़ी को ले भागा था। घोरपड़े अपने दोपहिया एमएच 12-ईएम 9045 को खोजने के लिए भागदौड़ करने लगा।

पुलिस के ध्यान में एक बात नहीं आ रही थी कि अपहरण के लिए लहू ने संकेत सूर्यकान्त भांडेपाटील और अमित चंद्रकान्त सोनावणे को ही क्यों चुना होगा? इसके पीछे क्या कारण हो सकता है ?कोई बैर?

खूनी लहू ढेकणे साफ-साफ कबूल कर लिया,

“कोई दुश्मनी नहीं थी। मेरा कोई झगड़ा नहीं था उनसे। मुझे पैसे चाहिए थे और उसे पाने के लिए संकेत और अमित मेरे लिए मददगार साबित होने वाले थे।”

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार/©प्रफुल शाह

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