फादर्स डे - 65 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 65

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 65

रविवार 16/07/2000

सूर्यकान्त कठोर मन का इंसान था। उसकी दृढ़ता का अंदाज किसी को भी नहीं था, खुद सूर्यकान्त को भी अपने मजबूत मनोबल के बारे में शायद पता न हो। आज संकेत की जांच छोड़कर अमित को खोजने के लिए मेहनत करने की उसकी मांग एक पिता के नाते क्रूरता भरी भले ही लग रही हो लेकिन एक सह्दय व्यक्ति के रूप में नतमस्तक करने वाली थी।

रात को आठ बजे सभी गाड़ियां शेंदूरजणे से निकलीं। सूर्यकान्त गाड़ी में बैठा जरूर था लेकिन उसका मन और आत्मा उस गन्ने से हल्दी में बदल गए खेत में ही थे। सूर्यकान्त ने लहू और ऐनपुरे के संभाषण में संकेत का नाम जरा भी नहीं सुना था लेकिन फिर भी काम के लायक जानकारी तो उसे मिल ही गई थी। संभाषण का मुद्दा सूर्यकान्त को समझ में आने के कारण वह बहुत व्यथित था। उसके कलेजे पर मानो तीर चल रहे थे लेकिन गश खाकर गिरने की जगह वह मानसिक रूप से और अधिक मजबूत हो गया।

शेंदूरजणे से सभी लोग लोणंद पहुंचे। पुलिस ने सबको बताया कि नीरा पहुंचना है। लहू गाड़ी में बैठने के बाद पुलिस को और भी कोई जानकारी दे रहा था। लोणंद से नीरा के बीच साठ किलोमीटर का रास्ता, उस पर गांव का कच्चा रास्ता यानी एकदम सूर्यकान्त के जीवन जैसा ऊबड़खाबड़ रास्ता। कोई भी गंतव्य सरल, सीधे और आनंददायी प्रवास के माध्यम से कभी भी न मिलने जैसा।

सूर्यकान्त सोच रहा था कि लहू तो अपराधी है, गुण्डा प्रवृत्ति का है। कहीं झूठ बोल रहा हो तो? उसको मालूम होगा कि यदि कोई भी सबूत नहीं मिले तो उसे आसानी से छोड़ा जा सकता है। शायद संकेत कहीं पर हो तो...? इसी एक मुद्दे पर सूर्यकान्त के मन और बुद्धि में लगातार युद्ध चल रहा था। संकेत अभी भी कहीं सुरक्षित होने की आशा पाले रखने की आज्ञा दिमाग ने पिता के वात्सल्य भरे ह्रदय को दी...  ‘जीने को और क्या चाहिए....’ इस गाने के साथ-साथ सूर्यकान्त की गाड़ी अगले रास्ते पर चल रही थी।

राते के दस बजे सभी नीरा गांव में पहुंचे। पुलिस सीधे नीरा पुलिस चौकी पहुंची। चंद्रकान्त सोनावणे को चौकी में बुला लिया। सूर्यकान्त और मित्रमंडली, सातारा लोकल क्राइम ब्रांच और नीरा पुलिस चौकी के स्टाफ की बारात निष्ठुर दूल्हे यानी लहू को लेकर अंधेरे में सच की खोज करने के लिए निकली। अचानक, लहू जिस वैन में बैठा था वह रुकी। पीछे चल रही सभी गाड़ियों में उत्सुकता जागी कि इतनी जल्दी पहुंच भी गए? कहां? थोड़ी ही देर में सबके लिए वड़ापाव और चाय का नाश्ता आया। आज किसी को भी कुछ भी खाने की इच्छा नहीं थी फिर भी सुबह से भूखे पेट को कुछ आधार मिल जाए इस मकसद से खानपान संपन्न हुआ।

बारात आगे बढ़ी। नीरा से आठ-दस किलोमीटर की दूरी पर राउडीगाव के पास दल बल पहुंचा। घड़ी में उस समय ग्यारह-सवा ग्यारह बज रहे थे। सभी को गाड़ी से उतरना पड़ा क्योंकि आगे आधा किलोमीटर तक जाने के लिए केवल पगडंडी ही थी। इस पगडंडी पर चलने में आधा-पौन घंटा बीत गया।

......................

सोमवार 17/07/2000

कैलेंडर में दिन बदलकर रविवार से सोमवार हो चुका था। संकेत के लिए महत्वपूर्ण लेकिन घृणास्पद सोमवार फिर एक बार कैलेंडर के पन्ने पर दिखाई दिया। अंधेरे में गन्ने के खेत में लहू एक बार फिर चकरा गया। उसे दिशा समझ में नहीं आ रही थी। एक घंटा इधर-उधर भटकने के बाद लहू को वो खेत दिखाई दिया। इस बार संजय ऐनपुरे ने उससे सीधा सवाल किया,

“अमित के कपड़े कहां हैं?”

पूछते साथ लहू ने एक जगह की ओर ऊंगली से इशारा किया। पुलिस ने तुरंत कपड़े खोज कर निकाले। मन में, दिल में पाली हुई अपेक्षा पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। कपड़े देखते साथ चंद्रकान्त सोनावणे ने उन्हें पहचान लिया। कठोर सत्य उसकी आंखों के सामने राक्षसी हास्य करते हुए खड़ा था। आसमान हिल जाए ऐसी दुःख भरी चीख के बाद सभी ने चंद्रकान्त सोनावणे का ह्रदय भेदने वाला रुदन सुना। ट

कपड़ों के पास ही पड़ा अमित का कंघा हाथ में लेकर चंद्रकान्त सोनावणे हिचकियों पर हिचकियां ले रहे थे। उनका तो सबकुछ लुट चुका था। देश की सीमा से बहादुरीपूर्वक शत्रु को खदेड़ने वाला सैनिक आज लाचार पिता था जो नियति के क्रूर हमले के आगे इस समय विवश होकर परास्त हो गया था। बरसाती रात उस रुदन के कारण अधिक ही भयानक जान पड़ रही थी। अंधकार और गहरा गया था। झींगुरों की किरकिर रुक गई। एक विकराल मौन उस क्रंदन का पीछा करते हुए खड़ा हो गया।

चंद्रकान्त सोनावणे से जानबूझकर कुछ दूरी पर रखा गया सूर्यकान्त यह सब देख रहा था। उसके ह्रदय की बेचैनी बढ़ गई। उसने अपनी मानसिक स्थिति,दबाकर रखा हुआ दुःख, वेदना, लाचारी, विवशता, अनकहा दर्द सब बाहर आने लगा। इस क्षण में उसकी मानसिक सहनशीलता ने जवाब दे दिया था। लेकिन शिरवळ के उसके मित्रों ने उसे बड़ा धीरज बंधाया। मित्रों ने सूर्यकान्त को वहां से थोड़ा और दूर किया।

सूर्यकान्त की अवस्था देखकर विष्णु मर्डेकर की अस्वस्थता बढ़ती जा रही थी। उसे सूर्यकान्त से सुरक्षित रखने की सख्त ताकीदनुमा सुझाव दिया गया था। लेकिन इस समय सूर्यकान्त को देखकर उसे कोई भी नियम कानून याद नहीं था, या कहें कि किसी भी नियम को मानने के लिए मर्डेकर का मन नहीं मान रहा था। उसकी वर्दी में अटका हुआ मन मित्रता के नाते से बहुत पहले से ही आवेश में आ गया था। वह नियमों से लदी सरकारी वर्दी छोड़कर सूर्यकान्त की बगल में पहले ही जाकर सरलता से खड़ा हो गया था।

डीवाइएसपी ऐनपुरे के साथ मौजूद एक पुलिस अधिकारी ने लहू को धमकाया,

“ए भड़वे...स्पॉट ठीक से दिखा...रंडी के...नहीं तो यहीं पर उल्टा पटक के ऐसा मारूंगा...याद रख। ज्यादा नाटक मत कर समझा? चल...ठीक से बता स्पॉट कहां है... ”

वैसे तो सभी को यह बात समझ में आ रही थी कि आधी रात के अंधेरे में बरसाती मौसम में कोई भी दिशा या कोई भी जगह खोज पाना मुश्किल ही था। उसपर वहां पर कोई निशानी भी नहीं थी। नजदीक के शहर से बड़े टॉर्च मंगवाना तय हुआ।

रात में दो बजे टॉर्च की मदद से खोजबीन शुरू की गई। सातारा स्थानीय अपरा शाखा के दस-बारह अधिकारी टॉर्च के सहारे खेत को खोदने लगे। थोड़ी ही देर में सभी हाथ हिलाते हुए वापस आ गए। फिर से लहू से पूछताछ शुरू की गई। अब इस पूछताछ में ऊब, कुढ़न, थकान, तकलीफ, नींद और गुस्सा भी शामिल हो गया था। लहू पूछे जा रहे सवालों का ठीक से जवाब दे नहीं रहा था। सातारा के कॉन्स्टेबल पप्पू घोरपड़े ने गुस्से में आकर लहू के कान के नीचे एक झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया। लहू की आंखों के सामने लाल, हरे, नीले, जामुनी, नारंगी छल्ले नाचने लगे। वह अपनी जगह पर ही थोड़ा सा घूम गया। कान के नीचे बजे जोरदार थप्पड़ और देहाती गाली के कारण लहू को सामान्य होने में पांच-दस मिनट लगे। कुछ होश में आने के बाद उसने अपना पक्ष रखने का प्रयास किया।

“मैंने संकेत वाला स्पॉट तो आपको दिखाया ना? अब अंधेरे में ठीक से समझ नहीं आ रहा, दिखाई नहीं दे रहा तो मैं क्या करूं?”

दूर से सबकुछ देख रहा सूर्यकान्त दौड़ते हुए सबके पास आया और सबसे मुखातिब होकर कहा,

“चलो हम सब मिलकर खोजते हैं। वह यदि कह रहा है तो निश्चित ही कहीं तो कुछ होगा ही।”

फिर एक बार सब लोग अलग-अलग दिशा में खोजबीन करने में जुट गए। अलसुबह पप्पू घोरपडे को कुछ दिखाई दिया। उसने आवाज दी और सब उसकी तरफ दौड़ पड़े। पास जाकर देखा तो मानव अस्थियों का एक छोटा-सा ढेर दिख रहा था। कमर में बंधे काले धागे के कारण वह ढेर बिखरा नहीं था। जंगली हिंसक जानवर हड्डियों के ऊपर के मांस को कब का सफाचट कर चुके थे। स्थिति जब तक स्पष्ट हुई, तब सुबह के साढ़े चार बज गए थे। दूर गांव में मंदिर में भगवान के स्नान करने को तैयार थे। वातावरण में भयानक शांति पसरी हुई थी। अमित मिल तो गया था लेकिन ह्रदय विदारक अवस्था में वह चंद्रकान्त के सामने था। कंकाल के रूप में। अस्थि पंजर। चंद्रकान्त के जीवन में सदा के लिए अंधकार छा गया था। अब सुबह के चार बजें या रात के बारह, उसे कोई फरक नहीं पड़ रहा था।

अमित का किस्सा खत्म हो चुका था। संकेत का कुछ भी हाथ नहीं लगा था। उसके वापस मिलने की सिर्फ एक फीसद उम्मीद बची थी। एक फीसद तो एक ही सही। उम्मीदों, अपेक्षाओं की हदबंदी थोड़े होती है।

एक पुलिस अधिकारी ने रफीक़ मुजावर को समझाया कि सूर्यकान्त को अब घर लेकर जाएं। यहां का काम अब खत्म हो चुका है। बचा हुआ काम पुलिस निपटा लेगी।

सच यही था। कडुवा सच। इन्वेस्टिगेशन इज़ ओवर नाऊ। जांच पूरी हो चुकी थी। बीते कितने ही दिन, कितने ही महीने रोड़ा अटकाने वाली नियति प्रयासों की पराकाष्ठा के सामने भयानक रूप धर कर खड़ी थी। एक नाटक का पटाक्षेप हो गया था। सनसनी समाप्त हो चुकी थी। अब कागजी कार्रवाई के घोड़े दौड़ने वाले थे। बयानों की बाढ़ आनी थी। सच-झूठ का खुलासा होने का समय आ गया था। आंखों पर काली पट्टी बांधकर पाप-पुण्य का, सच-झूठ को तराजू में तौलने वाली न्याय की देवी अब काम में जुटने वाली थी। सबूत, गवाह, बयान, सवाल-जवाब, सत्य-असत्य, विचार, विवेचना और कानून के हिसाब से कार्यवाही के रेले में पुलिस विभाग गले तक डूब जाने वाला था।

लेकिन ये सब बाद की बात थी। इस समय सभी लोग बहुत थक गए थे। सूर्यकान्त सुबह छह बजे घर पहुंचा। अभी तक उसने घर में किसी को, कुछ भी नहीं बताया था। घर पर सभी उत्सुकता से उसकी राह देख रहे थे। चिंता, प्रतीक्षा, उत्सुकता अपने चरम पर पहुंच चुकी थी। सूर्यकान्त ने थोड़े में अपनी बात कह दी,

“वो ऊटपटांग कुछ कर रहा है, बता तो रहा है, पर अभी भी कुछ साफ नहीं हुआ है...कन्फर्म नहीं है... मैं बहुत थक गया हूं...आराम से बात करेंगे।”

सभी दोस्तों को भी उसने सुबह साढ़े दस ग्यारह के बीच मिलने के लिए बुलाया। तब तक आराम करने की विनती की। घर में सबको मालूम था कि बीते दो दिन और तीन रातों से सूर्यकान्त पागलों की तरह भागदौड़ कर रहा था। उसने नींद तो ली ही नहीं थी। खाने-पीने का भी कोई ठिकाना नहीं था। संकेत के विचारों में खोया सूर्यकान्त बिस्तर पर भले ही आंख बंद करके पड़ा था लेकिन काफी देर तक उसे नींद नहीं आई। लेकिन संकेत ने जैसे ही उसके सपने में आने का इरादा किया, उसे नींद लग गई।

लगातार चिंता, बेचैनी, आधी-अधूरी नींद, आधी-अधूरी जानकारी, विचारों से भनभनाता हुआ दिमाग, जागरण की वजह से लाल हो चुकीं जलती आंखें लेकर प्रतिभा जबरदस्ती घर के रोजमर्रा के काम निपटा रही थी। उसका मन बार-बार सूर्यकान्त के बिस्तर पर जाकर ठहर रहा था। काम में उसका मन लग नहीं रहा था। उसे सूर्यकान्त से बात करके सबकुछ विस्तारपूर्वक जानना था। इन दिनों में वास्तव में क्या हुआ? लहू ने क्या बताया? संकेत के बारे में कहा गया एक-एक शब्द उसे सूर्यकान्त की जुबानी सुनने की इच्छा थी। संकेत के जाने के बाद इतनी उदासी क्यों बिखरी हुई थी, ये प्रतिभा को समझ में नहीं आ रहा था। वास्तव में क्या हुआ है? संकेत....? सबकुछ अनुत्तरित...शांत...शांत।

आज प्रतिभा को घर में चारों तरफ संकेत का ही आभास हो रहा था। हंसता-बोलता संकेत... “आई..आई...मला बूट घाल...माझी मम्मी...शोलभ दादा... पलाग....ये...आई...ये...नत्तो...मला नत्तो...ताई....डेडी कुठे ?....मला कपले....नवे कपले घाल....आई....दे ना....खाऊ... मम्मी..... माजी मम्मी.. ये कौन दौड़कर आया?... ये तो मेरे संकेत की गुहार है.. कौन हंसा...? कौन...? संकेत हंसता है...? ठीक ऐसे ही... मेरा संकेत..मेरा बच्चा... ओ सूर्यकान्त...उठो न अब जल्दी से...सूर्यकान्त..बताओ न..अपना....”

प्रतिभा ने दोनों हाथ कानों पर जमकर रखे। आंखें कसकर भींचीं...रहने दो उसको...सोने दो...सूर्यकान्त को आराम करने दो...यही इच्छा हमेशा मन में रखने वाली प्रतिभा आज सूर्यकान्त के जल्दी उठने की राह देख रही थी। एक-दो बार वह बेडरूम के पास जाकर हिचकिचाई। अब तो सूर्यकान्त को जगाना ही चाहिए। मुझे उसके साथ बहुत बात करनी है, अपने संकेत के बारे में।

“आई...मेरे बारे में डैडी से बात करनी है? ”

प्रतिभा चौंकी और उसने पीछे मुड़कर देखा। आवाज तो संकेत की ही थी...लेकिन संकेत...? संकेत नहीं था। सामने कोने में उसकी साइकिल निश्चल पड़ी हुई थी। लेकिन संकेत...? वह वहां था ही नहीं। संकेत...प्रतिभा वहीं पर पालथी मारकर बैठ गई। उसका सारा बदन रो रहा था। जी खोलकर रोने की इच्छा हो रही थी लेकिन उसने तुरंत आंचल को अपने होठों से दबाकर रोना रोक लिया। दूर से ही जनाबाई और सौरभ ने इसे देखा लेकिन दोनों में से कोई भी उसके पास नहीं गया। उन्होंने उसे अकेले ही रोने दिया। हिचकियां, होठों से दबाया हुआ आंचल और सब तरफ से हारी-परास्त हुई मॉं और उसके चारों ओर फेरे मारने वाला एक मौन शब्द....संकेत

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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