फादर्स डे - 62 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 62

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 62

रविवार 16/07/2000

सूर्यकान्त एकदम प्रैक्टिकल आदमी निकला। वास्तविकता का ध्यान रखकर आगे बढ़ना सीख गया था। उसने अब तक बहुत दुनिया देख ली थी। उसकी गांठ में दुनियादारी का बड़ा अनुभव था। संकेत को गायब होकर अब काफी महीने गुजर गए थे। वह सुरक्षित वापस लौटेगा, इस पर अब उसे संदेह होने लगा था। लेकिन एक पिता का मन चीत्कार कर-कर के कहता था, ‘मेरे संकेत को कुछ नहीं होने वाला, वो जरूर मिलेगा।’ फिर भी, पुत्रप्रेम के वश में होकर अब कोई भी गलती न करते हुए लहू ढेकणे को जाल में फंसाना जरूरी था। पुलिस फिर से ढिलाई बरतेगी और आरोपी फिर एक बार सबूतों के अभाव में, कानून का फायदा उठाकर छूट जाए और बिंदास घूमता रहे, ऐसी उसकी कतई इच्छा नहीं थी।

लहू के विरुद्ध सभी सबूत बहुत मजबूत होने चाहिए। वे कहां से, कैसे और कितनी जल्दी इकट्ठे किए जाएं, इन्हीं विचार में सूर्यकान्त गड़ गया।

सूर्यकान्त को संकेत और अमित और अमित के अपहरण की घटनाओं में समानता लग रही थी। नीरा नदी के दाहिनी तरफ संकेत का गांव शिरवळ और नीरा की बांई ओर अमित का गांव। एक का पिता सूर्यकान्त और दूसरे का चंद्रकान्त। दोनों का गृहग्राम नीरा नदी के बांए किनारे पर-सूर्यकान्त का भोंगवली और चंद्रकान्त का नाम भी भोंगवली। दोनों ही व्यापार करने वाले। सूर्यकान्त जब साइट पर निकल गया, तब संकेत को गायब किया गया और इधर चंद्रकान्त जब अपनी दुकान पर गया तब अमित लापता हुआ। दोनों ही बच्चे स्कूल जाने के समय पर किडनैप हुए थे। उस किडनैपर के पास दोनों बच्चों के परिवार और उनके आसपास घूमने-फिरने वालों के फोन नंबर थे। दोनों ही घटनाओं में किडनैपर ने बहुत सोच-समझकर और पूरी प्लानिंग के साथ फिरौती रखने की जगह चुनी थी। पहली बार तो वह रकम उठाने आया ही नहीं, दूसरी बार पुलिस की मौजूदगी में भी पैसे उठाकर भाग गया। सूर्यकान्त और चंद्रकान्त-दोनों के घर में फर्नीचर का काम हुआ था। दोनों घरों में इस काम का ठेका लेने वाला और करने वाला एक ही आदमी-लहू रामचन्द्र ढेकणे।

सूर्यकान्त ईश्वर से एक और प्रार्थना कर रहा था कि अमित और संकेत की घटना में एक और समानता होनी चाहिए, दोनों ही बच्चे सुरक्षित रूप से अपने-अपने घर वापस आ जाएं। उसने प्रार्थना तो पूरे मन से की, लेकिन अंदर कहीं आशंका भी चल-बिचल कर रही थी... ‘क्या भगवान मेरी प्रार्थना सुनेंगे...?’

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.सोमवार दिनांक – 17/07/2000

संकेत की घटना से जुड़ा महत्वपूर्ण दिन-सोमवार का फिर सूर्योदय हुआ। सूर्यकान्त को आज ऐसा लग रहा था, ‘दिस इज़ टाइम टू एक्ट नाऊ।’ सुबह दस बजे के करीब वह, रफीक़ मुजावर और विष्णु मर्डेकर को अपने साथ लेकर निकला। घर में किसी को कुछ नहीं बताया- कहां जा रहे हो? किसलिए?कब वापस आओगे?

सबसे पहले नीरा गांव पहुंचे। ऐसा विचार था कि चंद्रकान्त से भेंट करके और कोई जानकारी या फिर कोई नया डेवलपमेंट हो तो, उसे जान लिया जाए और उन्हें भी अपने साथ ले लिया जाए। नीरा पहुंचने पर चंद्रकान्त से मुलाकात नहीं हो पाई। वह पुणे क्राइम ब्रांच के अधिकारियों से मिलने के लिए जेजुरी गेस्ट हाउस में गए थे, और अभी वहीं थे। चंद्रकान्त ने सूर्यकान्त को वहीं पर बुला लिया।

जेजुरी गेस्ट हाउस में डीवाइएसपी कोल्हे साहब और उनके पच्चीस आदमियों का बल मौजूद था। सूर्यकान्त ने उन्हें घटना विस्तारपूर्वक समझाई। इसके बाद मुस्कुराते हुए ताना मारा,

“साहेब, आप बिलकुल फिक्र न करें। मैं दो-तीन दिनों के भीतर आरोपी को पकड़कर आपके सामने हाजिर कर दूंगा। पूरे दलबल के सामने उनके अधिकारी को चुनौती दी गई थी इसलिए सब ओर शांति पसर गई। लेकिन उसे देखने-महसूस करने के लिए सूर्यकान्त वहां ठहरा नहीं, तुरंत बाहर निकल गया। उसे समझाने के लिए पीछे-पीछे तीन कॉन्स्टेबल भागे पर उसने किसी की नहीं सुनी।

तीनों ही हाथ हिलाते वापस आ गए। यह देखकर डीवाइएसपी साहब ने दो अधिकारियों को सादी वर्दी में सूर्यकान्त के पीछे जाने के लिए कहा। उनको स्पष्ट निर्देश दिए गए कि सूर्यकान्त पर चुपचाप नजर रखनी है, जब तक गरज न पड़े, उसके काम में अड़चन न डाली जाए।

सूर्यकान्त की गाड़ी जेजुरी से मुकादमवाड़ी की तरफ निकल पड़ी। मुकादमवाड़ी में लहू की बहन रहती थी। आसपास कहीं काम मिल जाए तो लहू कुछ समय के लिए देगाव से मुकादमवाड़ी में मुकाम करता था। इसीलिए शुरुआत इसी जगह से करने का इरादा किया गया था। वहां पहुंच कर पता चला कि लहू मुकादमवाड़ी में नहीं है, इसलिए उसके देगाव में होने की पक्की संभावना लग रही थी। गाड़ी देगाव के रास्ते पर भागने लगी लेकिन दिन के उजाले में लहू के घर न जाया जाए, यह भी तय किया गया था। सूर्यकान्त और उसके साथी ऊब गए थे और बहुत थक भी गए थे। लहू अब तो पकड़ में आ ही जाएगा-ये निश्चित था। जाल मजबूत था। सुबह से भूखे-प्यासे दौड़धूप कर रहे सूर्यकान्त, रफीक़ और मर्डेकर जेजुरी में एक जगह पर खाना खाने के लिए रुके। सूर्यकान्त ने छह महीनों के बाद आज पेटभर खाना खाया था। संकेत के अपहरण के बाद न जाने कितने दिन और रात स्टीयरिंग व्हील पर ही वड़ापाव खाकर गुजरे थे। आज उसे शांति महसूस हो रही थी।

उसने रफीक़ और विष्णु के साथ बातचीत करके तय कर लिया था कि देगाव में लहू के घर जाकर क्या कहना है? क्या करना है?और वहां से क्या-क्या उठाना है?

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मंगलवार -18/07/2000

दिन की शुरुआत होकर आधा घंटा गुजर गया था। घड़ी के कांटे साढ़े बारह का समय दिखा रहे थे। ठीक साढ़े बारह बजे सूर्यकान्त का इशारा पाकर रफीक़ मुजावर जीप से नीचे उतरा। उसके साथ मर्डेकर भी उतर गया। सूर्यकान्त अपनी जीप में ही बैठा रहा। वे दोनों लहू के घर की ओर निकल गए।

नींद पूरी तरह खुल जाए इस जोरदार तरीके से लहू के देगाव वाले घर में खटखटाहट हुई। लहू के भाई अंकुश ने दरवाजा खोला। आंखें मलते-मलते अंकुश बड़बड़ाया,

“इतनी रात को कौन है भाई? ”

सामने से रफीक़ की कड़क आवाज गूंजी,

“तुम लहू हो क्या?”

अब तक थोड़ा शांत हो चुके अंकुश ने धीमी आवाज में जवाब दिया,

“लहू मेरा भाई है।”

“उसको तुरंत बाहर बुलाओ।”

इतनी ठंड में भी अंकुश को पसीना छूट गया।

“लेकिन भाऊ, हुआ क्या है?”

कोई जवाब न मिलने पर अंकुश ने भीतर जाकर लहू को जगाया। दुबली-पतली कद काठी वाला, ऊंचा, सांवला और जरा ज्यादा आत्मविश्वास से भरे लहू को देखकर रफीक़ मुजावर बोला,

“चल तो जरा, तेरी मदद चाहिए।”

लहू के जीप में बैठते ही उसने सूर्यकान्त को पहचान लिया। रफीक़ और विष्णु ने उसकी काली सुजुकी समुराई खोजकर निकाली। घर में इधर-उधर तलाशने पर एसटीडी बूथ वाले गणेश शिंदे ने आरोपी के जिन कपड़ों का वर्णन किया था, उन पर नजर पड़ गई। उन्हें उठा लिया।

रफीक़ मुजावर ने काली सुजुकी को अपने कब्जे में लिया, लहू के भाई अंकुश को स्कूटर चलाने के लिए कहा। अंकुश ने पूछा, कहां जाना है? सूर्यकान्त ने जानबूझकर हवाहवाई उत्तर दिया कि शिरवळ पुलिस चौकी में जाना है। लहू को एक आदमी को पहचानना है। मुजावर मर्डेकर को सूर्यकान्त सख्त हिदायत दे रखी थी कि लहू के साथ देगाव में कुछ भी नहीं करना है। एक तो वह उसका अपना गांव था, रात आधी थी। थोड़ा भी हल्ला-गुल्ला हो तो जान पर बीतने की आशंका थी। सारी मेहनत पर पानी फिर सकता था। इसलिए, देगाव में रहते हुए कोई धमाल नहीं मचाना है-तय हुआ था।

सूर्यकान्त ने जीप स्टार्ट की और उसके पीछे-पीछे दोनों दोपहिया गाड़ियां चलने लगीं। लेकिन अंकुश की दोपहिया को बीच में गच्चा देकर सूर्यकान्त की जीप शिरवळ के पास की पहाड़ी की ओर मुड़ने लगी। एक फॉर्म हाउस में सूर्यकान्त लहू को लेकर गया। वहां उससे पूछताछ चालू की।

सामने अपने सगे बेटे का, प्रिय संकेत का संभावित किडनैपर बैठा था। उसके शिकंजे में अच्छे से फंसा था। लेकिन सूर्यकान्त की आवाज में किसी भी तरह का गुस्सा, रोष, आवेग या चिढ़ नहीं थी। किसी प्रोफेशनल, ठंडे दिमाग वाले अनुभवी पुलिस वाले की तरह ही सूर्यकान्त, लहू से पूछताछ और सवाल-जवाब करने लगा।

सूर्यकान्त, रफीक़ और विष्णु ने तय कर रखा था कि उससे सीधे-सीधे कुछ भी नहीं पूछना है। इधर-उधर की अनौपचारिक बातें करते-करते उससे जानकारी लेते हुए मूल मुद्दे तक पहुंचना था। संकेत या फिर अमित के बारे में उससे एक भी सवाल नहीं पूछा गया।

“तेरा कामकाज कैसा चल रहा है?”

“कितनी कमाई होती है?”

“बचत वगैरह करते हो क्या?”

“घर कौन चलाता है?”

लहू से कोई भी सवाल पूछने के बाद आखिर में लहू, संकेत और अमित का जिक्र किए बिना रहता नहीं था।

“जरूरत के हिसाब से कमाई हो जाती है। पर सही कह रहा हूं साहेब मैंने संकेत या अमित को देखा भी नहीं है। कभी-कभी थोड़ी बचत हो जाती है, नहीं होती ऐसा नहीं है। लेकिन साहेब संकेत और अमित के बारे में मुझे कुछ भी नहीं मालूम। घर की जिम्मेदारी तो मेरे ऊपर ही है। पर साहेब संकेत और अमित के मामले में मुझे बहुत परेशान करते हैं, प्लीज साहेब पुलिस मुझको न सताए ऐसा कुछ करें। ”

गोलमोल बातचीत होती रही। सूर्यकान्त, रफीक़ और विष्णु समझबूझकर ही लहू से सीधे-सीधे कुछ पूछ नहीं रहे थे। लहू की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसको अब डर लगने लगा था। समय बीतता जा रहा था। देखते-देखते सुबह के साढ़े चार बज गए।

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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