फादर्स डे - 61 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 61

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 61

शुक्रवार 14/07/2000

आज त्यौहार का दिन था। बैलों का उत्सव-पोला। किसान का सबसे बड़ा पर्व। सुबह नहला-धुला के, सिंगों को रंगरोगन करके, झालर घंटियों से सजाकर बैलों की पूजा करने के बाद उन्हें मिष्टान्न खिलाकर उनके हक की छुट्टी देकर आराम करने दिया जाता है। किसान के ईष्ट की पूजा करने का दिन होता है बैलपोला। सूर्यकान्त के घर पर भी खेती-बाड़ी और बैल होने के बावजूद उसके मन में या ध्यान में इस त्यौहार की याद नहीं थी। उसका सिर तो भयंकर क्रोध से भनभना रहा था। उसे कहीं जाने की जल्दी तो अवश्य थी लेकिन कहीं जल्दबाजी में काम ही सफल न हो, वह ऐसी परिस्थिति पैदा नहीं करना चाहता था। बेवजह की जल्दबाजी उसका काम बिगाड़ भी सकती थी।

काफी इंतजार करने के बाद सूर्यकान्त ने सुबह रफीक़ को फोन किया उस समय सुबह के साढ़े ग्यारह बज रहे थे। रफीक़ मुजावर, विष्णु मर्डेकर और सूर्यकान्त का त्रिकुट गाड़ी में सवार होकर रवाना हुआ। देगाव लहू रामचन्द्र ढेकने का गृहग्राम था। यहां उसके खेत थे, मॉं, भाई अंकुश और भाभी के साथ लहू रहता था। शिरवळ से देगाव केवल बीस से बाईस किलोमीटर की दूरी पर था। त्रिकुट देगाव के पास तुरंत ही पहुंच गया।

हाइवे एमएच 4 की तरफ से जीप देगाव के लिए मुड़ी और सौ-सवा सौ फुट की दूरी पर पहुंचते साथ सूर्यकान्त ने अचानक ब्रेक मारा। सामने से करीब सत्ताइस साल का नौजवान आ रहा था। वह सूर्यकान्त के परिचय का था। रवीन्द्र श्रीरंग यादव। रवीन्द्र शिरवळ के कारखाने में काम करने के लिए आता था। सूर्यकान्त ने यादव को लिफ्ट देने के बहाने से जीप में बिठा लिया। सूर्यकान्त ने उससे सहज ही सवाल किया,

“कहां गया था रे...?”

“हम किसान आदमी। आज बैलों का पोला है। खेत में नैवेद्य के लिए गया था। भगवान की दयादृष्टि के बिना हमारा काम कैसे चल सकता है? खेत में पूरण पोली का भोग लगाकर आ रहा हूं। लेकिन साहब, आप इस ओर दो-तीन बार दिखाई दिए थे, कोई खास बात?”

रवीन्द्र यादव को संकेत के अपहरण के बारे में मालूम था इसलिए वह सीधे मुद्दे पर आ गया,

“अरे...अपने संकेत के मामले में उस लहू ढेकणे से कुछ और जानकारी या मदद मिल सकती है क्या, यही देखने के लिए आया था। लहू से मुलाकात करनी थी...”

“लहू बेचारा बहुत परेशान हो गया है। देखिए पुलिस ने अब तक उसको दो-तीन बार उठा लिया है.सवाल-जवाब किए हैं, पूछताछ की है ऐसा मालूम हुआ।”

सूर्यकान्त को पता था कि शिरवळ पुलिस, सातारा क्राइम ब्रांच लहू से जांच-पडताल कर चुकी है। फिर भी उसने आश्चर्य जताते हुए पूछा,

“अच्छा....लहू का कामकाज कैसा चल रहा है? उसकी आर्थिक स्थिति कैसी है?”

“वैसे देखा जाए तो पांच-छह महीने से उसके पास पैसे आ रहे हैं, ऐसा मुझे लगता है।”

“अच्छा...अच्छा... लेकिन तुम्हें ऐसा क्यों लगा?”

“अब देखो सेठ...उसने गांव की बीसी का कर्ज चुका दिया...खेतों में भी पैसा लगा रहा है...पैसा आ जाए तो दिखे बगैर रहता है क्या?”

“चलो बहुत बढ़िया...ये तो खुशी की बात है...लहू के बारे में और क्या खास?”

“खास तो कुछ नहीं पर इतना मालूम है कि बाजू के नारसापुर में महाराष्ट्र बैंक में उसका खाता है...”

इतनी देर में रवीन्द्र का गंतव्य स्थान आ गया लेकिन वह सूर्यकान्त को एक नई दिशा दे गया। रवीन्द्र जीप से उतरा और राम-राम कहकर आगे बढ़ गया। सूर्यकान्त ने यू-टर्न लेकर गाड़ी देगाव की जगह फिर से शिरवळ की ओर मोड़ ली। रवीन्द्र द्वारा दी गई जानाकारी बहुत महत्वपूर्ण थी। लेकिन इसकी और जमकर जांच करने की जरूरत थी। लहू रामचन्द्र ढेकणे की आर्थिक स्थिति सुधरने के सबूत जुटाने थे। पक्के सबूत।

................

शनिवार 15/07/2000

प्रतिभा से रहा नहीं जा रहा था। उसकी बेताबी बढ़ती जा रही थी। उसने जिद पकड़ ली कि लहू को पकड़ो। और अधिक देर करने...उसे ढील देने का क्या कारण है?

सूर्यकान्त ने उसे समझाया

“मान लो केस पुलिस में या फिर कोर्ट में गई और वह पक्के सबूत न होने के कारण छूट गया तो?इतना इंतजार किया, थोड़ा और करने में क्या हर्ज है? और थोड़ा-सा समय दो...केवल एक-दो दिन बस...”

दोपहर को डेढ़ बजे सूर्यकान्त घर से बाहर निकला। आज उसने गाड़ी नहीं ली थी। जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाते हुए तुरंत मालोजीराजे सहकारी बैंक में पहुंचा। सूर्यकान्त भांडेपाटील यानी एक महत्वपूर्ण व्यक्ति, इस बैंक की इमारत उसने ही बनवाई थी और बैंक के सम्माननीय ग्राहकों की पहली कतार में अपना नाम लिखाने वाला वजनदार व्यक्ति सूर्यकान्त तुरंत बैंक मैनेजर वसंत राव भोसले के केबिन में जाकर खड़ा हो गया।

वसंत राव भोसले की वजह से ही, एक लाख रुपए की नकदी बैंक में जैसी की तैसी जमा करने वाले प्रकरण में सूर्यकान्त पर बहुत-ऊंगलियां उठी थीं। बदनामी भी हुई थी. वसंत राव भोसले को इस बारे में ग्लानि हुई थी, साथ ही वह सूर्यकान्त के तेज स्वभाव से भी वाकिफ था। उसने दो-चार बातें सुन लेने का मन बना लिया था लेकिन भोसले की धारणा के विपरीत सूर्यकान्त का व्यवहार था। वह पहले मुस्कुराया उसके बाद हाथ मिलाया। भोसले ने डरते-डरते पूछा...

“चाय लेंगे न?”

एक बार फिर अपेक्षा के उलट जवाब मिला,

“हां, आज आपके साथ चाय पीने की इच्छा है।”

वसंत राव ने बेल दबाकर प्यून को दो चाय लाने का ऑर्डर दिया। सूर्यकान्त शांति से बैठा था और भोसले चकराया हुआ था। उसने टेबल पर रखे हुए पेपरवेट को घुमाना शुरू कर दिया। सूर्यकान्त ने उसके हाथ से गोल पेपरवेट लेकर विनम्रता के साथ पूछा,

“इस पेपरवेट को घुमाने में जितना समय लगा, क्या उतना ही समय आप मुझे दे सकते हैं?”

भोसले के दिमाग में हचलच मची हुई थी, फिर भी उसने सिर हिलाकर हां में जवाब दिया। सूर्यकान्त ने उसी नम्रता के साथ कहा,

“मुझे आपकी मदद चाहिए। खूब महत्वपूर्ण बात है। मेरे जीवन की एक बहुत बड़ी समस्या का समाधान आपकी मदद से हो सकेगा...मेरी सहायता करेंगे?”

यह सुनकर भोसले को थोड़ी राहत मिली।

“अरे उसमें कौन-सी बड़ी बात है साहब...बैंक आपकी ही है ऐसा मानें। कहिए कितने लोन की या ओवरड्राफ्ट की आवश्यकता है? तुरंत सेंक्शन कर देता हूं, बिलकुल समय नहीं लगेगा...”

सूर्यकान्त ने दाएं-बाएं सिर हिलाते हुए नहीं का इशारा किया,

“नहीं, नहीं...मुझे लोन नहीं चाहिए। आपकी नारसापुर में कोई पहचान है क्या? महाराष्ट्र बैंक में किसी को पहचानते हैं क्या ?”

अब वसंतराव सोच में पड़ गए। टेलीफोन डायरी खोली। सूर्यकान्त ने उसको विस्तारपूर्वक पूरी जानकारी दे दी।

“संकेत अपहरण की घटना के बारे में बहुत महत्पूर्ण सुराग है। मुझे नरसापुर के महाराष्ट्र बैंक के एक खाते की जानकारी चाहिए।”

भोसले सूर्यकान्त को समझाने लगा कि किसी के खाते की जानकारी किसी और को देना मुश्किल है।

“भोसले आपकी मदद से किडनैपर पकड़ा जा सकेगा। संकेत मिल जाएगा...प्लीज मेरी इतनी मदद करें।”

.......................

भोसले नरम दिल निकला। उसने धड़ाधड़ फोन डायल करना शुरू किया। एक नंबर से दूसरे का रेफरेंस लिया और तीसरे को कॉल लगाया। थोड़ी सी कोशिश के बाद नरसापुर महाराष्ट्र बैंक के मैनेजर से संपर्क हो गया। उसे घटना की पूरी जानकारी दी गई। समझाया गया और मदद करने की विनती की गई। सामने से जवाब आया... “उन्हें तुरंत मेरे पास भेज दें। जितनी संभव हो सकेगी उतनी मदद अवश्य करूंगा।”

फोन रखते हुए भोसले ने सूर्यकान्त को बताया कि उन्होंने मदद का आश्वासन दिया है और तुरंत नरसापुर बुलाया है।

लेकिन आज शनिवार है, बैंक जल्दी बंद हो गया होगा, फिर भी मैं वहां पहुंचता हूं।”

इतना कहकर सूर्यकान्त ने भोसले से हाथ मिलाया और अपना आभार जताया। इधर सूर्यकान्त केबिन से बाहर निकला और उधर वसंत राव के दिल का बोझ उतरा। अनजाने ही उसके होठ बुदबुदाए,

“हे विठ्टला...अब तो इस आदमी की परीक्षा लेना बंद करो...”

सूर्यकान्त शिरवळ से बीस-बाईस किलोमीटर दूर नरसापुर जिस समय पहुंचा उस समय घड़ी के कांटे शाम के छह बजा रहे थे। मैनेजर बैंक में ही था। शुरुआती बातचीत के बाद उसके मन में सूर्यकान्त को लेकर जो नाराजगी थी, वो दूर हो गई। सूर्यकान्त ने विनती की,

“मुझे सिर्फ एक व्यक्ति के अकाउंट में इंटरेस्ट है। उसका लेजर पेज देखना चाहता हूं। खाता कब खोला गया और उसमें कितनी रकम जमा की गई, केवल इतना ही जानना है।”

लहू रामचन्द्र ढेकणे के सेविंग अकाउंट में 80 हजार रुपए जमा दिखाई दे रहे थे। 13/12/1999 को खाता खोला गया और उसी दिन अकाउंट में इतनी बड़ी रकम जमा की गई। जमा किए गए सभी नोट पांच-पांच सौ के थे।

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह