फादर्स डे - 60 Praful Shah द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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फादर्स डे - 60

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 60

मंगलवार 11/07/2000

सूर्यकान्त को चंद्रकान्त की जुबानी जो कुछ भी सुनने को मिला उस पर उसका भरोसा ही नहीं बैठ रहा था। किस्सा हूबहू संकेत की ही तरह था। अपहरण के बाद फिरौती, पुलिस की मौजूदगी, विफलता, लाचार पिता, वेदना, बेचैनी और आखिर में नतीजा शून्य। एकदम अपने जैसा ही। अंधेरी रात, जगह और समय की परवाह न करते हुए सूर्यकान्त ने बुद्धिमानी से काम करने का तय किया।

खुद को मिली जानकारी के आधार पर सूर्यकान्त ने जांच-पड़ताल करना शुरू किया। एकदम सहजता से, प्रेम से सवाल पूछने लगा। ‘आपके घर में कौन-कौन हैं?, ऐसा क्यों हुआ? आपको किसी पर संदेह है क्या?’ अब चंद्रकान्त भी सूर्यकान्त पर भरोसा करने लगा था। अपनी छाती पर हथेली रखकर उसने कहा, “सच कहता हूं, मुझे किसी पर भी संदेह नहीं है।” जेब में हाथ डालकर खोजते हुए उन्होंने एक अंतर्देशीय पत्र बाहर निकाला।

“ये देखिए...ये अंतर्देशीय पत्र। फिरौती के लिए मुझे भेजा गया था। मैंने पुलिस को दिखाया तो उन्होंने एक नजर देखकर मुझे वापस कर दिया।”

सूर्यकान्त को बड़ा अजीब लगा। इतनी महत्वपूर्ण बात, इतना जरूरी सबूत अपने पास रखना चाहिए, ये बात पुलिस को कैसे नहीं सूझी? इतनी भी समझ नहीं? उसने सपाटे से पूरा पत्र पढ़ डाला। उलटकर भी देखा। चंद्रकान्त को वापस करते हुए बोला,

“अपने पास रखें, उपयोगी होगा।”

सूर्यकान्त को अब पूरा यकीन हो गया था कि बेटे को गंवा चुके एक पिता का दूसरे पिता पर भरोसा बैठ गया है। ये सारी बातें पार्क की गई गाड़ी में चल रही थीं। उसके ठीक सामने यमाई टी सेंटर था। सूर्यकान्त ने उनसे निवेदन किया, “आपकी दुकान अभी देख सकता हूं?”

रात के दो बज रहे थे लेकिन चंद्रकान्त तुरंत दुकान खोलने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने दुकान खोली, सभी अंदर गए। सूर्यकान्त के ध्यान में आया कि सारा फर्नीचर एकदम नया था। बातों-बातों में सहजता से ही पता चल गया कि डेढ़-दो महीने पहले ही बनवाया गया था। आसपास देखने के बाद सूर्यकान्त ने इशारा किया कि उसने सब देख लिया है। सब लोग एक बार फिर से गाड़ी में आकर बैठ गए।

सूर्यकान्त ने फिर से सवाल पूछना शुरू किया,

“फर्नीचर का काम कितने दिन चला? कितने कारीगर थे ? वो सब कहां से आते थे ?किस वाहन का उपयोग करते थे? उनमें से आप किस-किस को पहचानते हैं? कितने कारीगरों के नाम आपको याद हैं? ”

चंद्रकान्त एक के बाद एक कारीगरों के नाम याद करके बताने लगे। नामों की सूची में एक ही नाम कॉमन निकला। सूर्यकान्त के कान खड़े हो गए। वो नां था लहू रामचन्द्र ढेकणे।

सूर्यकान्त दूसरी कुछ बातें करना शुरू कीं। बीच-बीच में लहू के बारे में भी पूछ लेता था। वह लहू के बारे में सीधे-सीधे कुछ पूछना टाल रहा था क्योंकि यदि चंद्रकान्त को थोड़ा भी संदेह हो जाता और गुस्से के जोर पर वह गलत-सलत कुछ कर बैठते तो बना-बनाया काम बिगड़ जाता।

लहू ढेकणे के बारे में रफीक़ को भी पता था। लेकिन सूर्यकान्त जिस तरीके से बातचीत कर रहा था, उसके हिसाब से इस बारे में कुछ न बोलना ही ठीक समझा और कौन-सा कारीगर कैसा दिखता था-इसकी पूछताछ करने लगा।

लहू के बारे में चंद्रकान्त ने बताया,

“ऊंचा, दुबला, घुंघराले बाल, हाथ में सुनहरी घड़ी और काली सुजुकी समुराई बाइक लेकर वह आता था। अमित के गुमने के बाद एक बार पूछताछ करने और सांत्वना जताने के लिए भी आया था। चिंतापूर्वक जानना चाहा कि बाबू को छुड़वाने के लिए पैसों का इंतजाम हो पाया या नहीं?”

सूर्यकान्त और रफीक़ समझ गए कि लहू का ये वर्णन एसटीडी बूथ वाले गणेश शिंदे द्वारा बताए गए आरोपी के हुलिए से हूबहू मिलता-जुलता है। फिर भी सूर्यकान्त चुप रहा। बातचीत पूरी करके दोनों ने एकदूसरे को अलविदा कहा। उस समय सुबह के साढ़े चार बज रहे थे। अगले दिन फिर मुलाकात करने का वादा करके सूर्यकान्त वहां से निकल तो गया लेकिन उसके मन में कई विचार घूम रहे थे। कई सवालों के जवाब नहीं मिले थे और जेब में सिर्फ एक अंतर्देशीय पत्र था।

घर पहुंच कर सूर्यकान्त ने प्रतिभा को कुछ भी नहीं बताया। केवल अंतर्देशीय पत्र और मिले हुए गाय छाप जर्दे का पैकेट प्रतिभा को देते हुए बोला,

“इन दोनों पर लिखे हुए अक्षरों को ठीक से देखो, कोई समानता दिखाई देती है क्या देखो, मैं तब तक फ्रेश होकर आता हूं।”

प्रतिभा ने पहले दोनों लिखाई को ठीक से पढ़ा। इसके बाद दोनों लिखाइयों के एक-एक अक्षर को बारीकी से मिलान करने लगी। उसकी आंखों में चमक आ गई। दोनों की भाषा भले ही अलग हो, परंतु कई अक्षरों में समानता दिखाई दे रही थी...वरना का  ‘व’ ....तुम्हारा का ‘तु’ ...‘है’ ...‘हो’....और सोनावणे का ‘सो’  अक्षर एकसमान थे।

सूर्यकान्त फ्रेश होकर बाहर आया। ‘वह और फ्रेश हो जाएगा’ ऐसी बात प्रतिभा ने कही।

“दोनों अक्षर एक ही व्यक्ति के हैं... ये देखिए...”

उसने निशान लगाकर रखे अक्षर सूर्यकान्त को दिखाए। उसका पूरे यकीन के साथ बोलना सुनकर सूर्यकान्त ने अपनी और चंद्रकान्त की मुलाकात के बारे में विस्तार से बताया। उस बातचीत में लहू ढेकणे का उल्लेख आते ही प्रतिभा को एक सौ एक प्रतिशत विश्वास हो गया कि विलेन लहू ढेकणे ही है। प्रतिभा ने लहू के बारे में अपने संदेह को एक बार फिर जाहिर किया। इस संदेह को अब नकारने का कोई भी कारण सूर्यकान्त के पास बचा नहीं था।

सुबह अखबारों में खबर छपी।

‘पैसों के लिए नीरा गांव से स्कूली छात्र अमित का अपहरण’

इस रिपोर्ट के माध्यम से संकेत के गायब होने के बाद फिर एक बार अपहरण के लिए पुलिस की थू-थू की गई। अपहरण की दोनों घटनाओं में समानता होने के कारण अभिभावकों के बीच भय का वातावरण निर्मित हो गया है-यह भी लिखा गया था।

...........................

बुधवार 12/07/2000 / गुरुवार 13/07/2000

सूर्यकान्त किसी हड़बड़ी में नहीं था। अपने तरीके से पूरा निरीक्षण, जांच करने के बाद, सभी बातों को कसकर परखने के बाद ही घटना पर कोई निष्कर्ष देने का उसने तय कर रखा था।

वह एक बार फिर चंद्रकान्त से मिला और उसके पास से फर्नीचर के काम के बिल, नाप, साइज, कोटेशन लिखे हुए कागज हासिल किए। अंतर्देशीय पत्र, जर्दे के पैकेट पर लिखे हुए अक्षर और कोटेशन के अक्षरों में बड़ी समानता थी। ये कोटेशन लहू ढेकणे ने चंद्रकान्त को लिखकर दिए थे।

दो दिनों तक नीरा गांव में खूब परिश्रम करके जितनी अधिक जांच संभव थी, उतनी की गई। लेकिन इस सवाल-जवाब और भागदौड़ का परिणाम शून्य मिला। सूर्यकान्त के मन में जोश, गुस्सा और आवेग उफन रहा था। उसे लग रहा था कि अभी के अभी लहू के गांव जाया जाए और उसे घसीटते हुए गांव के चौराहे पर खड़ा करके सबके सामने पूछा जाए,

“बोल....संकेत कहां है? बोल.. और अमित को भी कहां छिपा कर रखा है, वो भी बता....”

लेकिन अनुभव ने उसे अब बहुत शांत, सौम्य और विवेकी इंसान बना दिया था। अभी तक केवल रंग-रूप वर्णन और अक्षरों की समानता सामने आई थी। संभव है कि ये केवल संयोगमात्र हो। दूसरी ओर, पुलिस के पास जाने के बाद फिर वही जांच-पड़ताल का रुटीन शुरू हो जाएगा। दस-बीस सवालों के बाद उसे भी छोड़ दिया जाएगा। इससे अच्छा तो खुद ही कोई प्रभावी उपाय निकालकर संकेत की खोज को अपने गंतव्य तक पहुंचाने का इरादा सूर्यकान्त ने कर लिया था। ‘क्या किया जाए? अब आगे किस तरीके से बढ़ा जाए? ’

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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