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फादर्स डे - 52

लेखक: प्रफुल शाह

खण्ड 52

बुधवार 15/02/2000

बीड बालग्राम अनाथालय की लॉबी से वॉचमैन के चलने की आवाज प्रतिभा के कानों तक पहुंच रही थी। बूट की खटखट नजदीक आती जा रही थी। बेचैन प्रतिभा को यह समझ में नहीं आ रहा था कि इतना बड़ा कॉम्प्लैक्स बनाने की जरूरत क्या थी, कितनी देर लग रही है उसको वहां से यहां तक चलकर आने में। एक बच्चे को लेकर आने के लिए इतना समय? अब और इंतजार करना उसके बस के बाहर की बात हो गई थी इसलिए वह अपनी जगह से उठी और तेजी से चलते हुए दरवाजे के पास जाकर खड़ी हो गई। वहां से वह वॉचमैन के आने की दिशा में अपनी गर्दन ऊंची करके देखने लगी।

अचानक प्रतिभा चीख पड़ी।

“सं...के...त” और भागते हुए बाहर निकल गई। उसके पास पहुंचते ही उसका संतुलन बिगड़ गया, मानसिक तौर पर अस्वस्थ हो चुकी प्रतिभा अपनी सुधबुध खोकर नीचे गिरने ही वाली थी। यदि उसे प्लेटफॉर्म पर खड़े खंबे का आधार न मिला होता तो वह निश्चित ही प्लेटफॉर्म से नीचे गिर पड़ती।

उसकी चीख सुनकर सूर्यकान्त, सदानंद, रमेश और मैनेजर दौड़कर बाहर आए। प्रतिभा अपनी दोनों हथेलियों से अपना मुंह छुपाकर दहाड़ मार कर रो रही थी। सूर्यकान्त का ध्यान अनाथालय के बोर्ड की ओर चेहरा और उनकी ओर पीठ करके खड़ी छोटी-सी आकृति की ओर गया। सूर्यकान्त ने खुशी-खुशी उस छोटे से बच्चे को गोद में उठा लिया। अपने आप से चिपका लिया।

“संकेत...मेरा बच्चा...मेरा संकेत...”

इतना सुनते ही उस नन्हें बच्चे ने अपना चेहरा सूर्यकान्त की ओर घुमाया और सूर्यकान्त को एक हजार वोल्ट का झटका लगा। वह संकेत नहीं था...वह संकेत नहीं था...नहीं..नहीं....वह संकेत नहीं था। निश्चित ही उस बच्चे का रंग, ऊंचाई, शरीर की बनावट बहुत कुछ संकेत से मिलता-जुलता था, लेकिन वह संकेत नहीं था....संकेत नहीं था....उस मासूम बच्चे को समझ में नहीं आ रहा था कि ये  सब क्या चल रहा है।

मैनेजर का इशारा पाकर वॉचमैन उस बच्चे को वापस लेकर निकलने लगा तो सूर्यकान्त ने पांच सौ रुपए की एक नोट निकालकर उस मासूम के छोटे-छोटे हाथों में रख दी। “सभी बच्चे आज चॉकलेट खाकर मौज करो।” बच्चे ने वॉचमैन और मैनेजर की ओर देखा। मैनेजर की गर्दन हिलते ही बच्चे ने नोट मैनेजर के हाथों में दे दी और सूर्यकान्त की ओर देखकर “थैंक यू” बोला। अपनी प्यारी सी मुस्कान बिखेरते हुए प्रतिभा के नजदीक आकर खड़ा हो गया और उसकी ओर प्रेम से देखते हुए बोल पड़ा, “मेरी मॉं भी आपकी ही तरह दिखती थी।”

उसके गालों पर दो आंसू ढलक गए। प्रतिभा ने उसे अपने पास खींच कर गोद में उठा लिया। उसे सीने से लगाया, उसकी पीठ पर ममता से हाथ फेरते हुए हिचकियां लेने लगी। ईश्वर ने एक अद्भुत मिलन का संयोग बनाया था। क्षण भर के लिए सही, पर मॉं की ममता से विमुख एक नन्हीं सी जान, अपने कलेजे के टुकड़े को तलाशती एक मॉं को प्रेम से कसकर गले लगाकर लिपटा हुआ था। वात्सल्य की धार दोनों के गालों पर बह रही थी। कौन कहता है कि केवल खून के रिश्ते ही मजबूत होते हैं? खून का रिश्ता न होने के बावजूद मॉं-बेटे का एक नया संबंध वात्सल्य के क्षितिज से सुबह के सूरज के साथ आकार ले रहा था।

लौटती यात्रा में जीप में कोई भी बोल नहीं रहा था। सदानंद बेलसरे को वातावरण बोझिल लगने लगा था। तनाव कम करने के मकसद से उसने बातचीत शुरू की।

“बेचारा मैनेजर बहुत डर गया था....सॉरी..सॉरी बोलते हुए थक नहीं रहा था।”

सूर्यकान्त ने गाड़ी का गियर बदलते हुए संवाद की डोर थामी।

“उसमें उसकी कोई गलती नहीं थी। बच्चा बहुत कुछ संकेत की फोटो की तरह ही दिखाई दे रहा था। किसी को भी भ्रम हो सकता था।”

“ऐसी कोई बात नहीं है जी....मुझेभी उसे अपने पास लेते हुए संकेत से मिलने की ही अनुभूति हुई। ऐसा लगा कि थोड़ी देर के लिए ही सही, ईश्वर ने मुझे मेरे संकेत से मिलवा दिया। सच में, भगवान को जितना धन्यवाद दिया जाए, उतना कम है।”

प्रतिभा ने अपने आंसू पोंछते हुए कहा। सूर्यकान्त के मोबाइल की रिंग बजी। सूर्यकान्त ने देखा कि घर का फोन है। उसने मोबाइल फोन चुपचाप बेलसरे के हाथों में थमा दिया।

“प्लीज, सच सच बता दीजिए....”

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गुरुवार 16/02/2000

बीड के आश्रम से हाथ लगी निराशा से सब गुमसुम थे। बार-बार आशा के हिंडोले से आसमान की ओर झोंका लेकर फिर-फिर निराशा के गहरी खाई में गिरने की भी कोई सीमा होती है।

सूर्यकान्त अच्छी तरह से समझ रहा था कि इसमें किसी की भी गलती नहीं है। बीड के आश्रम मैनेजर की भी कोई गलती नहीं थी। बार-बार मिल रहे मानसिक आघातों के कारण सभी के मन पर गहरा असर हो रहा था। उसने अब मन ही मन तय कर लिया कि अब आगे से कोई भी छोटी-बड़ी जानकारी हाथ लगे भी तो उत्साह में आकर घरवालों के सामने उसके बारे में कुछ नहीं कहना है। किसी को भी, कुछ भी नहीं बताना है। दूसरी बात, जब तक खुद को आश्वस्ति न हो जाए, स्वतः जांच-पड़ताल करने के बाद यदि किसी बात में कोई तथ्य नजर आए तो ही उसे किसी और को बताया जाए, अन्यथा नहीं। खुद को कितनी भी परेशानी क्यों न हो, घर वालों तक उसकी आंच नहीं पहुंचने देनी है।

नियति ने उसी दिन से सूर्यकान्त की परीक्षा लेनी शुरू कर दी। सूर्यकान्त के कानों तक एक खबर पहुंची कि एक घुमक्कड़ विक्षिप्त व्यक्ति बड़बड़ा रहा है और उसकी बकबक में बार-बार संकेत शब्द का उल्लेख हो रहा है। वह विक्षिप्त वाई में भटक रहा है- यह जानकारी किसी परिचित के फोन के मार्फत सूर्यकान्त को मिली। मिली हुई सूचना के आधार पर उसने वाई जाने का विचार किया।

अपने धंधे के कुछ काम से बाहर जा रहा हूं, उसने घर पर यही कहा। विष्णु मर्डेकर को भी घर पर ही रुकने के लिए कहा। अपने व्यक्तिगत व्यावसायिक काम के लिए थोड़ी देर के लिए बाहर जा रहा हूं, तुरंत वापस आऊंगा, किसी को भी साथ आने की जरूरत नहीं है-शेखर और विवेक को भी यही बताया और जीप की जगह मारुति कार बाहर निकाली। इस वजह से सभी ने यही समझा कि उसका आसपास ही कोई काम होगा, उसे निपटा कर जल्दी ही वापस आ जाएगा, चिंता की कोई बात नहीं है।

घर से निकलकर सूर्यकान्त ने अपनी गाड़ी शिरवळ चौकी की ओर घुमाई। सदानंद बेलसरे को पूरी बात बताई। सदानंद की आंखों में अभी-भी कल का रतजगा था। रमेश देशमुख को उसने आराम करने के लिए भेज दिया था। बेलसरे ने राजेंद्र कदम को इशारा करके सूर्यकान्त के साथ जाने के लिए कहा।

सूर्यकान्त और राजेंद्र कदम को लेकर मारूति वाई की दिशा में चल पड़ी। गाड़ी चलाते हुए सूर्यकान्त को अपने नसीब के फेर पर हंसी आ रही थी कि प्रधान, मंत्री, संत्री, संसद सदस्य, अनेक पुलिस अधिकारी, पत्रकारों की फौज, पावरफुल दोस्तों की मंडली कोई भी कुछ नहीं कर पाया ऐसी स्थिति में एक विक्षिप्त व्यक्ति की बकबक पर ध्यान देना पड़ रहा है। ऊपर वाले के मन में क्या है, यह समझ पाना किसी के भी बस की बात नहीं।

तीस-पैंतीस मिनट चलने के बाद मारुति अचानक रुक गई। गांव था शेंदुरजणे। शिरवळ से यह गांव तैंतीस किलोमीटर की दूरी पर था। रास्ते के दोनों तरफ सुंदर हरियाले खेत थे। रात की ठंडी बयार के कारण वहां कुछ हिलता-डुलता सा दिखाई पड़ रहा था। सूर्यकान्त और राजेंद्र दोनों ही इसी इलाके के होने के कारण उन्हें समझते देर नहीं लगी कि ये गन्ने के खेत हैं और गन्ने की पत्तियां हवा के साथ-साथ हिल-डुल रही थीं। उसने गाड़ी स्टार्ट करने की खूब कोशिश की, लेकिन वह शुरू ही नहीं हो रही थी। आखिर में दोनों नीचे उतरे। वातावरण कुछ विचित्र सा लग रहा था। मानसिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही थी। दम घुटने लगा था। चारों ओर से संकेत के आवाज की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ने लगी थी। संकेत की आवाज से उसके कान गूंजने लगे थे। उसे ऐसा महसूस हो रहा था कि चारों तरफ से संकेत दौड़ा चला आ रहा है। उसकी आवाज से ऐसा स्पष्ट मालूम पड़ रहा था कि वह मदद की गुहार लगा रहा है। सूर्यकान्त की मानसिक स्थिति खराब होने लगी। वह डरा-सहमा सा चारों ओर देख रहा था लेकिन घुप्प अंधेरे के सिवाय उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था।

 

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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