सेक्‍स एक समस्‍या Arya Tiwari द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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सेक्‍स एक समस्‍या

एक कहानी से मैं अपनी बात शुरू करना चाहूंगा।

एक बहुत अद्भुत व्‍यक्‍ति हुआ है, उस व्‍यक्ति का नाम था आर्या, एक ब्राहम्‍ण फकीर था। एक दिन सांझ अपने घर से बाहर निकला था किन्‍हीं मित्रों से मिलने के लिए, द्वार पर ही बचपन का बिछडा हुआ एक साथी अपनी गाडी से उतरा कई वर्षों बाद वह मित्र उसे मिला था। गले वे दोनों मिल गए। लेकिन आर्या ने कहा कि तुम ठहरों घडी भर, मैं किसी को वचन दिया हूं, उनसे मिल कर अभी लौट आता हूं, दुर्भाग्‍य कि वर्षों बाद मिले हो तुम और मुझे अभी घर से जाना पड़ेगा, लेकिन मैं जल्‍दी ही लौट आउंगा।

 

 

उस मित्र ने कहा, तुम्‍हें छोडने का मन नहीं, वर्षों के बाद तो हम मिले हैं, पर उचित ही होगा कि मैं भी तुम्‍हारे साथ ही चलूं, रास्‍ते में तुमसे बात भी हो जाएगी, और मैं देख भी लूंगा। लेकिन मेरे कपडे सब धूल से भरे हूए है, अच्‍छा होगा, कि तुम्‍हारे पास दूसरे कपड़े हो तो मुझे दे दो।

फकीर ने एक जोडी कपडे़ उसे दे दिए जो उसे किसी अमीर घर से भेंट में मिली हुई थी, सुंदर कोट था, पगड़ी थी, जूतें थे। वह अपने मित्र के लिए निकाल लाया। उसने उसे कभी पहना ही नहीं था। सोचा था कि कभी जरूरत पड़ेगी तो पहनूंगा। फिर फकीर था, वे कपडे बादशाही थे, तो हिम्‍मत भी नहीं थी उसकी पहनने की।

मित्र ने जल्‍दी वे कपडें पहन लिए, जब मित्र कपडे पहन रहा था, तब आर्या को लगा क‍ि यह तो भूल हो गई। इतने सुंदर कपड़े पहन कर वह मित्र तो एक सम्राट मालूम पडने लगा और आर्या उसके सामने एक फकीर, एक भिखारी मालूम पडने लगा। रास्‍ते पर लोग मित्र की तरफ ही देखेंगे, जिसके कपडे अच्‍छे थे, लोग तो सिर्फ कपडों की तरफ ही देखते हैं और कुछ दिखाई नहीं पडता है, जिनके घर ले जाउंगा, वे भी मित्र को ही देखेंगे, क्‍योंकि हमारी आंखें इतनी अंधी होती है कि सिवाय कपडों के और कुछ भी नहीं देखतीं। उसके मन में बहुत पीडा होने लगी कि ये कपडे पहना कर मैंने गलती कर दी है।

लेकिन फिर उसे ख्‍याल आया कि मेरा प्‍यारा मित्र ही तो है, वर्षों के बाद मिला है तो क्‍या अपने कपडें भी मैं उसको नहीं दे सकता हूं, इतना नीच, इतना ईर्ष्‍या मेरी वृत्ति है क्‍या रखा है इन कपडों में समझाता हुआ वह अपने घर से चल दिया, लेकिन रास्‍तें पर सारी नजरें उसके मित्र के कपडों पर अटक कर रह गई थी, रास्‍त पर जिसने भी देखा वही गौर से देखने लगा। वह मित्र बडा सुंदरी मालूम पड रहा था। जब भी कोई उसके मित्र को देखता, उसके मन में चोट लगती कि कपडें मेरे हैं और देखा मित्र को जा रहा है, फिर अपने को समझाता कि कपडें क्‍या किसी के होते है मैं तो शरीर को तक अपना नहीं मानता तो कपडों को अपना क्‍या मानना। इसमें क्‍या हर्जा हो गया है।

समझाता-बुझाता अपने घर से उस घर तक पहुंचा। भीतर जाकर जैसे ही अंदर गया, परिवार के लोगों कि नजरें उसके मित्र के कपडों पर अटक कर रह गई फिर उसे चोट लगी, जलन मालूम हुई, मेरे ही कपडे हैं और मैं ही अपने कपडों के कारण दीन-हीन हो गया हूं बडी भूल हो गई मेरे से फिर अपने को समझाया, फिर अपने मन को दबाया। फिर मित्र का परिचय दिया। घर के लोग पूछने लगे, कौन है ये भला इंसान,  मैनें कहा, मेरे मित्र है बचपन के, बहुत अदभुत व्‍यक्ति हैं। अभिषेक नाम है इनका बाकि कपडे सो कपडे मेरे है।

घर के लोग बहुत हैरान हुए, मित्र भी हैरान हो गया, आर्या भी कह कर हैरान हुआ, सोचा भी नहीं था कि ये शब्‍द मुंह से निकल जाएंगे, लेकिन जो दबाया था, वह निकल जाता है, जो दबाओ, वह निकलता है, जो सप्रेस करों, वह प्रकट होता ही है, इ‍सलिए भूल कर गलत चीज मत दबाना, अन्‍यथा जीवन भर साही गलत चीज की अभिव्‍यक्ति बन जाता है।

घबर गया बहुत कि सोचा भी नहीं था कि निकल जाएगा, मित्र भी बहुत हतप्रभ हो गया। घर के लोग भी सोचने लगे कि यह क्‍या बात कह दी, बाहर निकल कर मित्र ने कहा कि क्षमा करों, अब मैं तुम्‍हारे साथ दूसरे घर में नहीं जाउंगा, यह तुमने क्‍या बात कह दी, अभिषके की आंखों में आसूं आ गए, क्षमा मांगने लगा कहने लगा कि भूल हो गई जबान पलट गई मेरे मूं से निकल गई अब नहीं होगा ऐसा।

 

जबान कभी नहीं पलटती हैं, ध्‍यान रखना मेरे दोस्‍त जो तुम्‍हारे मन के भीतर दबा हो, वह कभी न कभी जबान से निकल ही जाता है जबान पलटती कभी नहीं जिस प्रकार धनुष से निकला तीर कभी वापस नहीं आता है उसी प्रकार जबान है।

क्षमा कर दो, अब ऐसी भूल नहीं होगी। कपडों में क्‍या रखा है, लेकिन कैसे निकल गई यह बात मैनें कभी सोचा भी नहीं था कि कपडें किसके है बल्कि ये तो मेरे भी नहीं है यह तो मुझे किसी भेंट दी थी इसमें तो मेरा भी पूरा हक नहीं है मेरे दोस्‍त।

सोचा यही था, आदमी वही नहीं कहता है जो उसके भीतर सोचता रहता है, कहता कुछ और ही है, सोचता कुछ और है। कहने लगा, मैंने तो सोचा भी नहीं था मेरे भाई कपडे का तो मुझे ख्‍याल भी नहीं आया था। यह बात कैसे निकल गई और घर से चलने और इस घर तक आने में सिवाय कपडे के उसे और कुछ ख्‍याल भी नहीं आया था, आदमी बहुत बेईमान है, जो उसके भीतर ख्‍याल आता है, कभी नहीं बाहर लाना चाहता और जो बाहर आता है, वह भीतर बिल्‍कुल नहीं होता है आदमी सरासर एक झूठ है।

मित्र ने कहा, ठीक है मैं चलता हूं तुम्‍हारे साथ पर अब यह कपडों की बात........।

आर्या ने कहा कि कपडे तुम्‍हारे है मेरे भाई तुमने पहने है। अब मैं इन्‍हें लूंगा ही नहीं। कपडों में क्‍या रखा है तेरे से बढ कर है क्‍या मेरे लिए।

कह तो वह रहा था कि कपडों में क्‍या रखा है, लेकिन दिखाई पड रहा था कि कपडों में ही सब कुछ रखा है, वे कपडें बहुत ही सुदंर थे, वह मित्र बहुत अद्भुत मालूम पड रहा था। चले रास्‍ते पर आर्या फिर अपने कपडों को देखकर खुद को समझाने लगा कि ये कपडें दे ही दूंगा मित्र को लेकिन जितना सोचता था, उतना ही मन होता था कि – एक भी नहीं पहने थे, एक बार भी आंखें इन कपडों पर लोगों की रूकी नहीं, कैसे दे दूंगा। लेकिन अपने को समझाया कि भूल हो गई क्षमा में दे देना चाहिए, और अब कभी यह ख्‍याल भी नहीं लाउंगा कि अपने मन में कि ये कपडे मेरे है।

दूसरे घर में प्रवेश किया समझदारी से,

संयमी  आदमी हमेशा खतरनाक होता है, क्‍योंकि संयमी  का मतलब होता है कि उसने कुछ भी भीतर दबा रखा है, सच्‍चा आदमी संयमी नहीं होता, सच्‍चा आदमी सिर्फ सच्‍चा होता है, उसके भीतर कुछ भी दबा नहीं होता है, संयमी हमेशा झूठा होता है, जो वह उपर से दिखाई पड़ता है, उससे ठीक उल्‍टा उसके भीतर दबा होता है उसी को दबाने की कोशिश में वह संयमी हो गया होता है, संयमी के भीतर हमेशा बारूद है, जिसमें कभी भी आग लग सकती है और वह व्‍यक्ति खतरनाक हो जाता है।

और यह चीजें चौबीस घंटे दबाना पडता है जो दबाया है उसे एक क्षण के लिए भी अगर उसे फुरसत देदी, छूट्टी देदी तो फिर वह तुरंत निकल कर बाहर आ जाएगा। इसलिए संयमी आदमी को कभी भी हाली-डे पर नहीं जा सकता है, जब तक जागता है यहीं सोचता है और हां नींद में बडी गडबड हेा जाती है, सपने में सब बदल जाता है वह जिसको दबाया है, वह नींद में प्रकट होने लगता है, क्‍योंकि नींद में संयम नहीं चलता है मेरे दोस्‍तों।

इसलिए संयमी आदमी नींद से डरते हैं, इसका पता है, संयमी आदमी कहते हैं, कम सोना चाहिए उसका और कोई कारण नहीं है, नींद तो परमात्‍मा का अद्भूत आर्शीवाद है, लेकिन संयमी डरता है क्‍योंकि जो दबाया है, वह नींद में धक्‍के मारता है, सपने बन कर आता है।

किसी तरह संयम साधना करके वह बेचारा आर्या उस घर में घुसा, दबाए हुए है मन में वे कपडे ही कपडे कपडे की कपडे। कह रहा हे कि मेरे नहीं हैं, अब तो मित्र के ही हैं। लेकिन जितना यह कह रहा था कि मेरे नहीं है, मित्र के ही हैं, उतने ही वे कपडें और भी मेरे मालूम पड रहे है।

मन को जिस बात के लिए इनकार करों, मन उसकी तरफ दौडने लगता है, इनकार करो, और मन दौडता है इनकार बुलावा है, मन में ‘’न’’ का मतलब ‘’हां’’ होता है, मन में भीतर ‘’न’’  का मतलब ‘’हा’’ हेाता है जिस बात को तुमने कहा ‘’नही’’, मन कहेगा ‘’हा यही’’।

कपडे मेरे हैं, मन कहने लगा, कौन कहता हे कपडे मेरे नहीं है, और आर्या की उपर की बु्द्धि समझाने लगी कि नहीं, कपडे तो मैनें दे दिए मित्र को, जब वे भीतर गए, तब आर्या कोई समझ भी नहीं सकता था कि भीतर कपडों में लड रहा है, घर में जिसके पास ले गए थे, पति मौजूद नहीं था, सुदर पत्‍नी मौजूद थी। उसकी आंखे एकदम कपडों पर अटक गई मित्र के, आर्या को धक्‍का लगा, इस सुदर स्‍त्री ने उसे कभी भी इतने प्रेम से नहीं देखा था, पूछने लगी, कौन है ये, कौन व्‍यक्ति है, कभी नहीं देखा इनको यहा आजतक......

 

आर्या ने कहा, मेरे मित्र हैं हांलाकि कह रहा था, मालूम पड रहा था कि मेरे शत्रु हैं, कह रहा था कि मेरे मित्र है, इस दुष्‍ट को कहां साथ ले आया जो देखो वही इसको देख रहा है और पुरूषों में देखने तक गनीमत थी, सुदंर स्त्रिीयां भी उसी को देख रही हैं, तो फिर बहुत मुसीबत हो गई। मेरे मित्र है, बचपन के साथी हैं, बहुत अच्‍दे आदमी हे रह गए कपडें, कपडे उन्‍हीं के है, मेरे नहीं है।

लेकिन कपडे अगर उन्‍हीं के हैं तो कने की जरूरत कया है कह बया तब पता चला कि फिर भूल हो गई, भूल का नियम है, भूल अतियों पर होती है, एक्‍सट्रीम पर होती है, एक से बचों तो दूसरी एक्‍सट्रीम पर हो जाती है भूल का नियम है, घडी के पेंडुलम की तरह चलती है भूल इस कोने से फिर ठीक दूसरे कोने पर जाती है, बीच में नहीं रूकती है भूल, भोग से जागती है तो एकदम त्‍याग पर चली जाएगी, एक से निकलो तो दूसरें पर चली जाएगी, ज्‍यादा भोजन से बचेगी, उपवास वह ज्‍यादा भोजन से भी बदतर है क्‍योंकि ज्‍यादा भोजन भी आदमी को दिन में एक दो बार ही कर सकता है, लेकिन उपवार करने वाला आदमी दिन भर मन ही मन में भोजन करता है, एक भूल से आदमी का मन बचता हे और दूसरी भूल पर, मन जो है वह एकसट्रीम्‍स में, अतियों में डोलता है, एक भूल की थी कि कपडें मेरे हैं, अब दूसरी भूल हो गई कि कपडें उसी के हैं, लेकिल इम्‍पेक्‍टली जब इतने जोर से कोई कहे कि कपडें उसी के है, तो साफ हो जाता है कि उसके कपडें नही हैं।

यह बड़े मजे की बात है! जोर से हमें वही बात कहनी पड़ती है जो सच्ची नहीं होती। अगर तुम कहो की  मैं बहुत बहादुर आदमी हूं! तो समझ लेना की तुम पक्के नंबर एक के कायर हो।

अभी हिंदुस्तान पर चीन का हमला हुआ। सारे हिंदुस्तान में कवक्‍त पैदा हो गए, जैसे बरसात में मेंढक पैदा होते हैं। और वे सब कहने लगे कि हम सोए हुए शेर हैं, हमको मत छेड़ो!

वह जितने जोर से हम कहते हैं, उससे उलटा हमारे भीतर होता है। इसलिए जोर से कुछ कहते वक्‍त जरा संभल कर कहना। अगर किसी से कहो कि मैं तुम्हें बहुत प्रेम करता हूं, तो संदिग्‍ध है वह प्रेम। प्रेम कहीं बहुत किया जाता है! बस किया जाता है या नहीं किया जाता। लेकिन आदमी का मन पूरे वक्‍त नासमझियों  के चक्कर में घूमता रहता है।

कह तो दिया आर्या  ने क‍ि कपड़े—कपड़े इन्हीं के हैं । वह स्त्री भी हैरान हुई। मित्र भी हैरान हुआ कि फिर वही बात! बाहर निकल कर उस मित्र ने कहा, क्षमा करो, अब मैं लौट जाता हूं। गलती हो गई तुम्हारे साथ आया। क्या तुम्हें कपड़े ही कपड़े दिखाई  पड़ रहे हैं।

आर्या  ने कहा,  मैं भी नहीं समझता। आज तक जिंदगी में कपड़े मुझे दिखाई नहीं पड़े। यह पहला ही मौका है! क्या हो गया है मुझे? मेरे दिमाग में क्या गड़बड़ हो गई है? लेकिन  पहली भूल हो गई थी, उससे उलटी भूल हो गई। अब कपड़ों की बात ही नहीं करूंगा। बस एक मित्र के घर और मिलने चलना है। फिर हम वापस लौट चलेंगे। और एक मौका मुझे और दो, नहीं तो जिंदगी भर के लिए अपराध मेरे  मन में रहेगा कि मैंने मित्र के साथ कैसा व्यवहार किया!

मित्र साथ जाने को राजी हो गया। सोचा अब और क्या करेगा भूल! बात खत्म हो गई है। दो बातें हो सकती थीं, दोनों हो गई हैं। लेकिन भूल करने वाले बड़े इनोवेटिव होते हैं, पता है? नई भूलें ईजाद कर लेते हैं, जिनका आपको पता भी न हो। तीसरे मित्र के घर गए। अब की बार तो आर्या अपनी छाती को दबाए-पकड़े बैठा है कि कुछ भी हो जाए! लेकिन जितने जोर से किसी चीज को दबाओ, वह उतने जोर से पैदा होनी शुरू होती है। किसी चीज को दबाना, उसे शक्ति देने का दूसरा नाम है। दबाओ, और शक्ति मिलती है उसे। जितने जोर से आप दबाते हो, जोर में जो ताकत आपकी लगती है, वह उसी में चली जाती है जिसको आप दबाते हो। तो ताकत मिल गई उसे। अब वह दबा रहा है और पूरे वक्‍त पा रहा है कि मैं कमजोर पड़ता जा रहा हूं और वे कपड़े मजबूत होते जा रहे हैं।

कपड़े जैसी चीज, फिजूल, इतनी मजबूत हो सकती है कि आर्या  जैसा ताकतवर आदमी हारा जा रहा है उसके सामने! जो किसी चीज से नहीं हारा था, आज साधारण से कपड़े उसे हराए डालते हैं! वह अपनी पूरी ताकत लगा रहा है। लेकिन उसे पता नहीं है कि पूरी ताकत हम लगाते उसके खिलाफ हैं जिससे हम भयभीत हो जाते हैं। और जिससे हम भयभीत हो जाते हैं उससे हम हार जाते हैं, उससे हम कभी नहीं जीत सकते। आदमी ताकत से नहीं जीतता, अभय से जीतता है, फियरलेसनेस से जीतता है। ताकत से कोई आदमी नहीं जीतता, बड़े से बड़ा ताकतवर हार जाएगा अगर भीतर फियर है। हम दूसरे से कभी नहीं हारते, अपने ही भय से हारते हैं-- यह ध्यान रहे! कम से कम मानसिक जगत में तो यह पक्का है कि दूसरा हमें कभी नहीं हराता, हमारा भय ही हमें हरा देता है। वह जितना भयभीत हो रहा है, उतनी ताकत लगा रहा है। वह जितनी ताकत लगा रहा है, उतना भयभीत हुआ जा रहा है। क्योंकि कपड़े छूटते नहीं, पीछे वे चक्कर काट रहे हैं।

तीसरे मकान के भीतर घुसा है, वह आदमी होश में नहीं है, वह बेहोश है। उसेन दीवालें दिख रही हैं, न घर के लोग दिखाई पड़ रहे हैं। उसे वह कोट-पगड़ी, वही दिखाई पड़ रहा है। मित्र भी खो गया है, बस कपड़े हैं और वह है। और वह लड़ रहा है, ऊपर से किसी को पता नहीं। जिस घर में गया, फिर आंखें टिक गईं वहीं, उसके मित्र के कपड़ों पर। पूछा, कौन हैं ये?

अब वह बुखार में है, अब वह आर्या होश में नहीं है, अब वह फीवर में है।

दमन करने वाले लोग हमेशा बुखार में जीते हैं, कभी शांत नहीं होते। सप्रेशन जो है, वह मेंटल फीवर है। वह मानसिक बुखार है। दबा लिया है, अब बुखार पकड़ा हुआ है। हाथ-पैर कंप रहे हैं उसके। वह अपने हाथ-पैर रोकने की कोशिश कर रहा है। लेकिन जितना रोकने की कोशिश कर रहा है, वे उतने कंप रहे हैं।

उसने कहा, कौन हैं ये! अब उसे खुद भी याद नहीं आ रहा है कि कौन हैं ये? सिर्फ कपड़े हैं, सिर्फ कपड़े हैं, सिर्फ कपड़े हैं--यही मालूम पड़ रहा है। लेकिन कहता है कि नहीं। जैसे बहुत मुश्किल पड़ रहा है उसे याद करना। कहा, मेरे मित्र हैं, नाम है फलां-फलां। रह गए कपड़े, सो कपड़े की बात ही नहीं करनी है, किसी के भी हों! कपड़े की बात ही नहीं उठानी है! लेकिन बात उठ गई।

जिसकी बात न उठानी हो, उसी की बात ज्यादा उठती है। जिसकी बात न उठानी हो, उसी की बात ज्यादा उठती है।

यह छोटी सी कहानी क्यों मैंने कही? सेक्स की बात नहीं उठानी है और उसकी ही बात चौबीस घंटे उठती है। नहीं किसी से बात करनी है, लेकिन अपने  से ही बात चलती है। मत करो दूसरे से, तो खुद ही से करनी पड़ेगी बात। और दूसरे से बात करने में राहत भी मिल सकती है, खुद से बात करने में कोई रास्ता ही नहीं है, कोल्ह के बैल की तरह अपने भीतर ही घूमते रहो। सेक्स की बात नहीं करनी है! टैबू है! उसकी बात नहीं करनी है। उसकी बात ही नहीं उठानी है। मां अपने बेटे के सामने नहीं उठाती। बेटा अपने बाप के सामने नहीं उठाता। मित्र मित्र के सामने नहीं उठाते। उठानी नहीं है बात। जो उठाते हैं  वे अशिष्ट हैं। और चौबीस घंटे वही बात चलती है। सबके मन में वही चलता है।

यह सेक्स इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि बात न उठाने से महत्वपूर्ण हो गया है। यह सेक्स बिल्कुल महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि हम समझ रहे हैं इसे।

लेकिन किसी भी व्यर्थ की बात को उठाना बंद कर दो, वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाएगी। इस दरवाजे पर एक तख्ती लगा दो कि यहां झांकना मना है! और यहां झांकना बड़ा महत्वपूर्ण हो जाएगा। फिर चाहे आपकी यूनिवर्सटी में कुछ भी हो रहा हो--आइंस्टीन आकर गणित पर भाषण दे रहे हों --बेकार है वह, यह तख्ती महत्वपूर्ण है, यहीं झांकने की जरूरत हो जाएगी। हर वक्‍तद्यार्थी यहीं चक्कर लगाने लगेगा। लड़के जरा जोर से लगाएंगे, लड़कियां जरा धीरे। बस बाकी कोई बुनियादी फर्क नहीं है आदमी-आदमी में। उनके मन में भी होगा कि क्या है इस तख्ती के भीतर? यह तख्ती एकदम अर्थ ले लेगी।

हां, कुछ जो अच्छे लड़के-लड़कियां नहीं हैं, वे आकर सीधा देख कर झांकने लगेंगे। वे बदनामी उठाएंगे कि ये अच्छे लोग नहीं हैं। तख्ती जहां लगी थी कि नहीं झांकना है, ये वहीं झांक रहे थे। जो भद्र हैं, सज्जन हैं, अच्छे घर  के हैं--इस तरह के वहम जिनके दिमाग में हैं—वे इधर से तिरछी आंखें किए हुए निकल जाएंगे। आंखें तिरछी रहेंगी, दिखाई तख्ती ही पड़ेगी महाशय। और तिरछी आंखों से जो चीज दिखाई पड़ती है, वह बहुत खतरनाक होती है। दिखाई भी नहीं पड़ती और दिखाई भी पड़ती है। देख भी नहीं पाते, मन में भाव भी रह जाता है देखना था।

फिर वे जो पीडित जन यहां से तिरछे-तिरछे निकल जाएंगे, वे इसका बदला लेंगे। किससे? जो झांक रहे थे उनसे। गालियां देंगे उनको कि बुरे लोग हैं, अशिष्ट हैं, सज्जन नहीं हैं, असाधु हैं।

ये किससे बदला ले रहे हैं वे? इस तरह मन को सांत्वना, कंसोलेशन जुटा रहे हैं कि हम अच्छे आदमी हैं, इसलिए हमने झांक कर नहीं देखा। लेकिन झांक कर देखना तो जरूर था, वह मन कहे चला जाएगा। सांझ होते-होते, अंधेरा घिरते-घिरते वे आएंगे। क्लास में बैठ कर पढ़ेंगे, तब भी तख्ती दिखाई पड़ेगी, किताब नहीं। लेबोरेट्री में एक्सपेरिमेंट करते होंगे और तख्ती बीच-बीच में  आ जाएगी। सांझ तक वे आ जाएंगे। आना पड़ेगा। आदमी के मन के नियम हैं। इन नियमों का उलटा नहीं हो सकता। हां, कुछ बहुत ही कमजोर होंगे, वे शायद नहीं आ पाएं। तो रात सपने में उनको आना पड़ेगा। आना पड़ेगा! मन के नियम अपवाद नहीं मानते। वहां एक्सेप्शन नहीं होता। जगत के किसी नियम में कोई अपवाद नहीं होता। जगत के नियम अत्यंत वैज्ञानिक हैं। मन के नियम भी उतने ही वैज्ञानिक हैं।

 

यह जो सेक्स इतना महत्वपूर्ण हो गया है, यह वर्जाना के कारण। वर्जाना की तख्ती लगी है। उस वर्जाना के कारण इतना महत्वपूर्ण हो गया है कि सारे मन को घेर लिया है। सारे मन को! सारा मन सेक्स के इर्द-गिर्द घूमने लगा है।

वह फ्रायड ठीक कहता है कि मनुष्य का मन सेक्स के आस-पास ही घूमता है। लेकिन वह यह गलत कहता हैकि सेक्स बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए घूमता है। नहीं, घूमने का कारण है--वर्जाना, इनकार, वक्‍तरोध, निषेध। घूमने का   कारण है--हजारों साल की परंपरा; सेक्स को टैबू, र्वजित , निंदित, गर्हित सिद्ध करने वाली परंपरा। सेक्स को इतना महत्वपूर्ण बनाने वालों में साधु-संतों, महात्माओं का हाथ है, उन्होंने तख्‍तिया लटकाई हैं वर्जाना की।

यह बड़ा उलटा मालूम पड़ेगा, लेकिन यही सतथ्‍य है और कहना जरूरी है! मनुष्य-जाति को सेक्सुअलिटी की, कामुकता की तरफ ले जानेका काम महात्माओं ने ही किया है। जितने जोर से वर्जाना लगाई है उन्होंने, आदमी उतने जोर से आतुर होकर भागने लगा है। इधर वर्जाना लगा दी है, उसका परिणाम यह हुआ है कि सेक्स रग-रग से फूट कर निकल पड़ा है। कवक्‍तता--थोड़ा खोजबीन करो, ऊपर की राख हटाओ--भीतर सेक्स मिलेगा। उपन्यास, कहानी--महान से महान साहितथ्‍यकार की--जरा राख झाड़ो, भीतर सेक्स मिलेगा। चित्र देखो, मूर्ती देखो, सिनेमा देखो... और साधु-संत इस वक्‍त सिनेमा के बहुत खिलाफ हैं। और उन्हें पता नहीं कि सिनेमा नहीं था तो भी आदमी यही करता था। कालिदास के ग्रंथ पढ़ो! कोई फिल्‍म इतनी अश्लील नहीं बन सकती जितने कालिदास के वचन हैं। उठा कर देखो पुराना साहितथ्‍य, पुरानी मुर्तियां देखो, पुराने मंदिर देखो। जो फिल्‍म में है, वह पत्थरों में खुदा मिलेगा। लेकिन आंख नहीं खुलती हमारी। अंधे की तरह पीटे चले जाते हैं लकीरों को।

सेक्स जब तक दमन किया जाएगा और जब तक स्वस्थ खुले आकाश में उसकी बात न होगी और जब तक एक-एक बच्चे के मन से वर्जाना की तख्ती नहीं हटेगी, तब तक दुनिया सेक्स के आब्सेशन से मुक्‍त नहीं हो सकती है, तब तक सेक्स एक रोग की तरह आदमी को पकड़े रहेगा। वह कपड़े पहनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। खाना खाएगा तो नजर सेक्स पर होगी। किताब पढ़ेगा तो नजर सेक्स पर होगी। गीत गाएगा तो नजर सेक्स पर होगी। संगीत सुनेगा तो नजर सेक्स पर होगी। नाचेगा तो नजर सेक्स पर होगी। सारी जिंदगी!

अनातोले फ्रांक मर रहा था। मरते वक्‍त एक मित्र उसके पास गया और अनातोले जैसे अदभुत साहितथ्‍यकार से उसने पूछा कि तुमसे मरते वक्‍त मैं यह पूछता हूं

अनातोले, जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण क्या है? अनातोले ने कहा, जरा पास आ जाओ, कान में ही बता सकता हूं, क्योंकि आस-पास और लोग भी बैठे हैं। मित्र पास आ गया। उसने सोचा कि अनातोले जैसा आदमी, जो मकानों की चोटियों पर चढ़ कर चिल्‍लाने का आदी है, जो उसे ठीक लगे कहता है, वह भी आज मरते वक्‍त इतना कमजोर हो गया कि जीवन की सबसे महत्‍वपूर्ण बात बताने को कहता है पास आ जाओ, कान में कहूंगा! सुनो धाीरे से कान में! मित्र पास सरक आया। अनातोले कान के पास होंठ ले आया, लेकिन कुछ बोला नहीं। मित्र ने कहा, बोलते नहीं! अनातोलेने  कहा, तुम समझ गए होगे, अब बोलने की क्या जरूरत है।

ऐसा मजा है। और मित्र समझ गए। और तुम भी समझ गए, नहीं तो हूंसते नहीं। समझ गए न? बोलने की कोई जरूरत नहीं है। क्या पागलपन है यह? यह कैसे मनुष्य को पागलपन की तरफ ले जानेका, मैड हाउस बनाने की दुनिया को कोशिश चल रही है?

इसका बुनियादी कारण यह है कि सेक्स को आज तक स्वीकार नहीं किया गया। जिससे जीवन का जन्म होता है, जिससे जीवन के बीज फूटते हैं, जिससे जीवन के फूल आते हैं, जिससे जीवन की सारी सुगंध, सारा रंग, जिससे जीवन का सारा नृतथ्‍य है, जिसके आधार पर जीवन का पहिया घूमता है, उसको ही स्वीकार नहीं किया। जीवन के मौलिक आधार को अस्वीकार किया गया। जीवन में जो केंद्रीय था, परमात्मा जिसकों सृष्टि का आधार बनाए हुए है—चाहे फूल हों, चाहे पक्षी हों, चाहे बीज हों, चाहे पौधे हों, चाहे मनुष्य हों--सेक्स जो है वह जीवन के जन्म का मार्ग है, उसको ही अस्वीकार कर दिया!

उसकी अस्‍वीकृति के दो परिणाम हुए। अस्वीकार करते ही वह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। अस्वीकार करते ही वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया और मनुष्य के चित्‍त को उसने सब तरफ से पकड़ लिया। अस्वीकार करतेही  उसे सीधा जानने का उपाय नहीं रहा। इसलिए तिरछे जानने के उपाय खोजने पड़े, जिनसे मनुष्य का चित्‍त विकृत, बीमार होने लगा। जिसे चीज को सीधे जानने के उपाय न रह जाएं और मन जानना चाहता हो, फिर गलत उपाय खोजने पड़ते हैं।

मनुष्य को अनैतिक बनाने में तथाकथित नैतिक लोगों की वर्जानाओं का हाथ है। जिन लोगों ने आदमी को नैतिक बनाने की  चेष्टा की है दमन के द्वारा, वर्जाना के द्वारा, उन लोगों ने सारी मनुष्य-जाति को इम्मॉरल, अनैतिक बना कर छोड़ दिया। और जितना आदमी अनैतिक होता चला जाता है, उतनी उनकी वर्जाना सख्त होती चली जाती है। वे कहते हैं कि फिल्‍मों में नंगी तस्वीर नहीं होनी चाहिए। वे कहते हैं, पोस्टरों पर नंगी तस्वीर नहीं होनी चाहिए। वे कहतेहैं , किताब ऐसी होनी चाहिए। वे कहते हैं, फिल्‍म मेंचुंबन लेते वक्‍त कितने इंच का फासला हो--यह भी गर्वनमेंट तय करेगी! वे यह सब कहते हैं। बड़े अच्छे लोग हैं वे, इसलिए कहते हैं कि आदमी अनैतिक न हो जाए।

और उनकी ये सब चेष्टाएं फिल्‍मों को और गंदा करती चली जाती हैं। पोस्टर और अश्लील होते चले जाते हैं। किताबें और गंदी होती चली जाती हैं। हां, एक फर्क रहता है। किताब के भीतर कुछ रहता है, ऊपर कवर कुछ और रहता है। और अगर ऐसा नहीं रहता, तो लड़का गीता खोल लेता है, गीता के अंदर दूसरी किताब रख लेता है, उसको पढ़ता है। बाइबल का कवर चढ़ा लेता है ऊपर। कोई लड़का बाइबल पढ़ता है? अगर बाइबल पढ़ता हो तो समझना भीतर कोई दूसरी किताब है। यह सब धोखा, यह डिसेप्‍शन पैदा होता है। विनोबा कहतेहैं , तुलसी कहतेहैं--अश्लील पोस्टर नहीं चाहिए! गाांधी जी तो यह कहते थे कि खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों पर मिट्टी पोत कर उनकी प्रतिमाओं को ढांक देना चाहिए। आदमी इनको देख कर गंदा न हो जाए।

और बड़े मजे की बात यह है कि तुम ढांकते चले जाओ उनको, हजारों साल से ढांक रहे हो, इससे आदमी गंदगी से मुक्‍त नहीं होता, गंदगी बढ़ती चली जाती है।

मैं यह पूछना चाहता हूं--तस्वीर लगी है नंगी दीवार पर, अश्लील पोस्टर लगा है, अश्लील किताब छपती है--अश्लील किताब, अश्लील सिनेमा के कारण आदमी कामुक होता है कि आदमी कामुक है इसलिए अश्लील तस्वीर बनती है और पोस्टर चिपकाएं जाते हैं? कौन है बुनियादी? आदमी की मांग है अश्लील पोस्टर के लिए, इसलिए अश्लील पोस्टर लगता है और देखा जाता है। साधु- संन्यासी भी देखते हैं उसको, लेकिन एक फर्क रहता है। आप उसको देखते हैं, आप अगर पकड़ लिए जाएंगे तो आप समझे जाएंगे यह आदमी गंदा है। अगर कोई साधु-संन्यासी मिल जाए, और आप उससे कहें, आप क्यों देख रहे हैं? वह कहेगा कि हम निरीक्षण कर रहे हैं, स्टडी कर रहे हैं कि लोग किस तरह... अनैतिकता से कैसे बचाए जाएं, इसलिए अध्ययन कर रहे हैं। इतना फर्क पड़ेगा। बाकी कोई फर्क नहीं पड़ेगा। बल्कि आप बिना देखे भी निकल जाएं, साधु-संन्यासी बिना देखे कभी नहीं निकल सकता। उसकी वर्जाना और भी ज्यादा है, उसका चित्‍त और भी वर्जित है।

एक संन्यासी मेरे पास आए। वे नौ वर्ष के थे, तब दुष्टों ने उनको दीक्षा दे दी। नौ वर्ष के आदमी को दीक्षा देना कोई भले आदमी का काम हो सकता है? नौ वर्ष के बच्चे को! बाप मर गए थे उनके, तो साधु-सन्‍यासियों को मौका मिल गया, उनको दीक्षा दे दी। अनाथ बच्चे, उनके साथ कोई भी दुव्यावहार किया जा सकता है। उनको दीक्षा देदी। वह आदमी नौ वर्ष की उम्र से बेचारा संन्यासी है। अब उनकी उम्र कोई पचास साल है। वे मेरे पास रुके थे। मेरी बातें सुन कर उनकी हिम्‍मत बढ़ी कि मुझसे सच्ची बातें कही जा सकती हैं। इस मुल्क में सच्ची बातें किसी से नहीं कही जा सकतीं। सच्ची बातें कहना ही मत, नहीं तो फंस जाओगे। उन्होंने एक रात मुझसे कहा कि मैं बहुत परेशान हूं, सिनेमा और टाकीज के पास से निकलता हूं तो मुझे लगता है, अंदर पता नहीं क्या होता होगा? इतने लोग अंदर जाते हैं, इतना क्यू लगाए खड़े रहते हैं, जरूर कुछ न कुछ बात होगी! हालांकि मंदिर में जब मैं बोलता हूं तो मैं कहता हूं कि सिनेमा जाने वाले नरक जाएंगे। लेकिन जिनको मैं कहता हूं नरक जाएंगे, वे नरक की धमकी से भी नहीं डरते और सिनेमा जाते हैं, तो जरूर कुछ बात होगी!

नौ साल का बच्चा था, तब वह साधु हो गया। नौ ही साल के पास उसकी बुद्धि अटकी रह गई, उससे आगे विकसित नहीं हुई, क्योंकि जीवन के अनुभव से तोड़ दिया गया। नौ साल के बच्चे के मन में जैसे भाव उठें कि सिनेमा के भीतर क्या हो रहा है, ऐसे ही उसके मन में उठता है। लेकिन किससे कहे?

तो मैंने उनसे कहा, सिनेमा दिखला दें आपको? वे बोले कि अगर दिखला देंतो बड़ी कृपा हो, झंझट छूट जाए; क्या है वहां? एक मित्र को मैंने बुलाया कि इनको ले जाओ। वे मित्र बोले कि मैं झंझट में नहीं पड़ता। कोई देख ले कि मैं साधु को लाया तो मैं भी झंझट में पड़ जाऊंगा। अंग्रेजी फिल्‍म दिखाने लेजा सकता हूं इनको, क्योंकि वह मिलिट्री एरिया में है, और फिर ये साधु-वाधु मानने वाले इनके भक्‍त्‍ भी वहां नहीं होंगे, वहां मैं इनको लेजा सकता हूं। पर वे साधु अंग्रेजी नहीं जानते। कहने लगे, कोई हर्जा नहीं, लेकिन देख तो लेंगे कि क्या मामला है, अंग्रेजी में ही सही।

यह चित्‍त है। और यह चित्‍त वहां गाली देगा मंदिर में बैठ कर कि नरक जाओगे अगर अश्लील पोस्टर देखोगे, फिल्‍म देखोगे। यह बदला ले रहा है। वह तिरछा देख कर निकल गया आदमी है, वह बदला ले रहा है, जिन्‍होनं सीधा देखा उनसे।

लेकिन सीधे देखने वाले मुक्‍त भी हो सकतेहैं, तिरछे देखने वाले मुक्‍त नहीं हो सकते।

अश्लील पोस्टर इसलिए लग रहे हैं, अश्लील किताबें इसलिए पढ़ी जा रही हैं, लड़के अश्लील गालियां इसलिए बक रहे हैं, अश्लील कपड़े इसलिए पहने जा रहे हैं, कि तुमने जो मौलिक था उसको अस्वीकार किया है। उसकी अस्‍वीकृति के परिणामस्वरूप ये सब गलत रास्ते खोजे जा रहे हैं।

जिसे दिन दुनिया में सेक्स स्वीकृत होगा, जैसे कि भोजन स्वीकृत है, स्नान स्वीकृत है, उस दिन दुनिया में अश्लील पोस्टर नहीं लगेंगे, अश्लील कविताएं नहीं होंगी, अश्लील मंदिर नहीं बनेंगे। क्योंकि जैसे ही वह स्वीकृत हो जाएगा, अश्लील पोस्टरों को बनाने की कोई जरूरत नहीं रह जाएगी।

अगर किसी समाज में भोजन वर्जित कर दिया जाए कि भोजन छिप कर खाना, कोई देख न ले! अगर किसी समाज में यह हो कि भोजन करना पाप है! तो भोजन के पोस्टर सड़कों पर लगने लगेंगे फौरन। क्योंकि आदमी तब पोस्टरों से भी तृप्ति पाने की कोशिश करेगा। पोस्टरों से तृप्ति तभी पाई जाती है, जब जिंदगी तृप्ति देना बंद कर देती है और जिंदगी के द्वार बंद होते हैं।

यह जो जितनी अश्लीलता और कामुकता और जितनी सेक्सुअलिटी है, यह सारी की सारी वर्जाना का अंधतम परिणाम है। और यह मैं आने वालेयु वकों से कहना चाहता हूं कि तुम जिसे दुनिया को बनाने में संलग्न हो ओगे, उसमें सेक्स को वर्जित मत करना, अन्यथा आदमी और भी कामुक से कामुक होता चला जाएगा। यह बात मेरी बड़ी उलटी लगेगी। मुझे तो लोग, अखबार वाले और नेतागण चिल्‍ला चिल्‍ला कर घोषणा  करते हैं कि मैं लोगों में काम का प्रचार कर रहा हूं।

मैं लोगों को काम से मुक्‍त करना चाहता हूं; प्रचार वेकर रहेहैं! लेकिन उनका प्रचार दिखाई नहीं पड़ता। उनका प्रचार दिखाई नहीं पड़ता, क्योंकि हजारों साल की परंपरा से उनकी बातें सुन-सुन कर हम अंधे और बहरे हो गए हैं। हमें ख्याल भी नहीं रहा कि वे क्या कह रहे हैं। मन केसूत्रों का, मन केविज्ञान का कोई बोि भी नहीं रहा कि वेक्या कर रहेहैंऔर क्या करवा रहेहैं। इसीलिए आज पृथ्‍वी पर जितना कामुक आदमी भारत में है, उतना कामुक आदमी पृथ्‍वी के किसी कोने में नहीं है।

मेरे एक डाक्टर मित्र इंग्लैंड एक मेडिकल कांफ्रेंस में भाग लेनेगए थे। हाइड पाका में उनकी सभा होती थी। कोई पांच सौ डाक्टर इकट्ठे थे, बातचीत चलती थी, खाना-पीना चलता था। लेकिन पास की एक बेंच पर एक युवक और एक युवती गले में हाथ डाले अत्यंत प्रेम में लीन आंख बंद किए बैठे थे। मित्र के प्राणों में बेचैनी हो गई। भारतीय प्राण! चारों तरफ झांक-झांक कर--अब खाने में उनका मन न रहा, अब चचाा में उनका रस न रहा, वे बार-बार लौट-लौट कर उस बेंच की तरफ देखने लगे। और मन में सोचने लगे--पुलिस क्या कर रही है? इनको बंद क्यों नहीं करती? यह कैसा अश्लील देश है! ये  लड़के और लड़की आंख बंद किए चुपचाप, पांच सौ लोगों की भीड़ केपास ही, बेंच पर बैठे हुए प्रेम प्रकट कर रहे हैं! यह क्या हो रहा है? यह बरदाकत के बाहर है। पुलिस क्या कर रही है? बार-बार वहां देखने का मन।

पड़ोस के डाक्टर ने, एक आस्‍टेलियन डाक्टर ने, उनको हाथ से इशारा किया और कहा, वहां बार-बार मत देखिए, नहीं पुलिसवाला आपको आकर उठा कर ले जाएगा। यह अनैतिकता का सबूत है। यह उन दो व्यधियों की अपनी जिंदगी की बात है। और वे दोनों व्यधि इसलिए पांच सौ लोगों की भीड़ केपास भी शांति से बैठे हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि यहां सज्जन लोग इकट्ठे हैं, कोई देखेगा नहीं। किसी को क्या प्रयोजन है? आपका यह देखना बहुत गर्हात है, बहुत अशोभन है, अधशष्ट है। जेंटलमैनली नहीं है; अच्छे आदमी का सबूत नहीं है। आप वहां बार-बार... आप पांच सौ लोगों को नहीं देख रहे, कोई फक्र नहीं कर रहा है! क्या प्रयोजन है किसी को? यह उनकी अपनी बात है। और दो व्यधि इस उम्र में प्रेम करें तो पाप क्या है? और प्रेम में वे आंख बंद करके पास-पास बैठे हों  तो हर्ज क्या है? आप क्यों परेशान हो रहे हैं? न तो वे आपके गले में हाथ डाले हुए हैं!

वे मित्र मुझसे लौट कर कहने लगे कि मैं इतना घबरा  गया कि ये कैसे लोग हैं। लेकिन धाीरे-धाीरे उनकी समझ में यह बात पड़ी कि गलत वे ही थे।

हमारा पूरा मुल्क, पूरा मुल्क, एक-दूसरे के दरवाजेमें  की-होल रहता है न, उसमें से झांक रहा है--कहां क्या हो रहा है? कौन क्या कर रहा है? कौन कहां जा रहा है? कौन किसके साथ है? कौन किसके गले में हाथ डाले है? कौन किसका हाथ हाथ में लिए है?

क्या बदतमीजी है! कै सी संस्कार हीनता है! यह सब क्या है? यह क्यों हो रहा है? यह हो रहा है--भीतर वह जिसकों दबाया है, वह सब तरफ दिखाई पड़ रहा है, वही-वही दिखाई पड़ रहा है।

विद्यार्थीयों से मैं कहना चाहता हंःः तुम्हारे मां-बाप, तुम्हारे पुरखे, तुम्हारी हजारों साल की पीकढ़यां सेक्स से भयभीत रही हैं। तुम भयभीत मत रहना। तुम समझनेकी कोशिश करना उसे। तुम पहचाननेकी कोशिश करना। तुम बात करना। तुम सेक्स के संबंध में जो आधुनिकतम नई से नई खोज हुई है उसको पढ़ना, चचाा करना और समझने की कोशिश करना--क्या है सेक्स? क्या है सेक्स का मेके निज्म? उसका यंत्र क्या है? क्या है उसकी आकांक्षा? क्या है प्यास? क्या है प्राणों के भीतर छिपा हुआ राज? इसको समझना। इसकी सारी की सारी वैज्ञानिकता को पहचानना। इससे भागना मत, एस्केप मत करना, आंख बंद मत करना। और तुम हैरान हो जाओगे--तुम जितना समझोगे, तुम उतने ही मुक्‍त हो जाओगे। तुम जितना समझोगे, तुम उतने ही स्वस्थ हो जाओगे। तुम जितना सेक्स के फैक्ट को समझ लोगे, उतना ही सेक्स के फक्शन से तुम्हारा छुटकारा हो जाएगा। तथ्‍य को समझते ही आदमी कहानियों सेमुक्‍त हो जाता है। और जो तथ्‍य सेबचता है, वह कहानियों में भटक जाता है।

कितनी सेक्स की कहानियां चलती हैं! कोई मजाक ही नहीं है और! बस एक ही मजाक है हमारे पास कि हम सेक्स की तरफ इशारा करें और हूंसें। जो आदमी सेक्स की तरफ इशारा करके हूंसता है, वह आदमी बहुत ही क्षुद्र है। सेक्स की तरफ इशारा करके हूंसने का क्या मतलब है? उसका मतलब हैः आप समझते नहीं हैं।

बच्चे तो बहुत तकलीफ में हैं--कौन उन्हें समझाए? किससे वे  बातें करें? कौन सारे तथ्‍यों को सामने रखे? उनके प्राणों में जिज्ञासा है, खोज है। लेकिन उसको दबाए चले जाते हैं  , रोके चले जाते हैं। उसके दुष्‍परिणाम होते हैं। जितना रोकते हैं, उतना मन वहां दौड़ने लगता है। और इस रोकने और दौड़ने में सारी शक्ति और ऊजाा नष्ट हो जाती है।

यह मैं आपसे कहना चाहता हूं--जिसे देश में भी सेक्स की स्वस्थ रूप से स्‍वीकृति नहीं होती, उस देश की प्रतिभा का जन्म ही नहीं होता है।

पश्चिम में तीन सौ वर्षो में जो जीनियस पैदा हुआ है, जो प्रतिभा पैदा हुई है, वह सेक्स के तथ्‍य की स्‍वीकृति से पैदा हुई है। जैसे ही सेक्स स्वीकृत हो जाता है, तो जो शक्ति हमारी लड़ने में नष्ट होती है, वह शक्ति मुक्‍त हो जाती है, वह रिलीज हो जाती है। उस शक्ति को हम रूपांतरित करते हैं--पढ़ने में, खोज में, आाविष्‍कार में, कला में, संगीत में, साहितथ्‍य में। और अगर वह शक्ति इसी में उलझी रह जाए... ।

अब सोच लो कि वह आदमी जो कपड़ों में उलझ गया था, आर्या, वह कोई विज्ञान के प्रयोग कर सकता था बेचारा? कि वह कोई साहितथ्‍य का सृजन कर सकता था? कि कोई मूर्ति का निर्माण कर सकता था? वह कुछ भी करता, कपड़े ही  कपड़े चारों तरफ घूमते रहते।

भारत के युवक के चारों तरफ सेक्स घूमता रहता है पूरे वक्‍त। और इस घूमने के कारण उसकी सारी शक्ति इसी में लीन और नष्ट हो जाती है। जब तक भारत के युवक की सेक्स के इस रोग से मुक्ति नहीं होती, तब तक भारत के युवक की प्रतिभा का जन्म नहीं हो सकता है। जिसे दिन इस देश में सेक्स की सहज स्‍वीकृति हो जाएगी, हम उसेजी वन के एक तथ्‍य की तरह अंगीकार कर लेंगे--प्रेम से, आनंद से-- निंदा से नहीं, घृणा से नहीं। और निंदा, घृणा का कोई कारण नहीं है। वह जीवन का अदभुत रहस्य है। वह जीवन की अदभुत मिस्‍ट्री है। उससे कोई घबराने की, भागने की जरूरत नहीं है। जिसे दिन हम इसे स्वीकार कर लेंगे, उस दिन इतनी बड़ी ऊर्जा मुक्‍त होगी भारत में कि हम आइंस्टीन पैदा कर सकते हैं , हम न्यूटन भी पैदा करेंगे। हम भी चांद-तारों की यात्रा करेंगे।

लेकिन अभी हम कैसे करें! लड़के लड़कियों के स्‍कर्ट के आस-पास परिभ्रमण करें कि चांद-तारों पर जाएं? लड़कियां चौबीस घंटे अपने कपड़ों को चुस्त से चुस्त करने की कोशिश करें कि चांद-तारों का विचार करें? यह नहीं हो सकता। ये सब सेक्‍सुअलिटी के रूप हैं। लेकिन हमें दिखाई नहीं पड़ते। कपड़ों का चुस्त से चुस्त होते चले जाना सेक्‍सुअलिटी का रूप है।

हम शरीर को नंगा देखना और दिखाना चाहते हैं, इसलिए कपड़े चुस्त से चुस्त होते चले जातेहैं। सौंदया की बात नहीं है यह। क्योंकि कई बार चुस्त कपड़े शरीर को बहुत बेहदा और भोंडा बना देते हैं । हां, किसी शरीर पर चुस्त कपड़े सुंदर भी हो सकते हैं।

किसी शरीर पर ढीले कपड़े सुंदर हो सकते हैं। और ढीले कपड़ों की शान ही और है। ढीले कपड़ों की गरिमा और है। ढीले कपड़ों की पवित्रता और है।

लेकिन वह हमारे ख्याल में नहीं आएगा। हम समझेंगे, यह फैशन है। हम समझेंगे कि यह कला है, अभिरूचि है, टेस्ट है। टेस्ट-वेस्ट नहीं है, अभिरूचि भी नहीं है। वह जो हम जिसकों छिपा रहे हैं भीतर, वह दूसरे रास्तों से प्रकट होने की कोशिश कर रहा है।

लड़के लड़कियों का चक्कर काट रहे हैं, लड़कियां लड़कों के चक्कर काट रही हैं। तो चांद-तारों का चक्कर कौन काटेगा? कौन जाएगा वहां? और प्रोफेसर्स? वे बेचारे, दोनों एक-दूसरे का चक्कर न काटें, सो बीच में पहरेदार बने हुए खड़े हैं। वह कुछ और उनके पास काम नहीं है। जीवन के और किन्हीं सतथ्‍यों की खोज में उन्हें इन बच्चों को नहीं लगाना है। बस ये सेक्स से बच जाएं, इतना ही काम कर दें तो कृतार्थता हो जाती है, परिणाम पूरा हो जाता है।

यह सब कैसा रोग! यह कैसा डिजीज्‍ड माइंड है हमारा! नहीं, यह हम सेक्स के तथ्‍य की सीधी स्‍वीकृति के बिना इस रोग से मुक्‍त नहीं हो सकते हैं।

यह महारोग है।

इस पूरी चर्चा में मैंने यह कहने की कोशिश की है कि मनुष्य को क्षुद्रताओं से ऊपर बिना है, जीवन के साधारण तथ्‍यों से जीवन के बहुत ऊंचे तथ्‍यों की खोज करनी है। सेक्स ही सब कुछ नहीं है, परमात्मा भी है इस दुनिया में। लेकिन उसकी खोज कौन करेगा? सेक्स ही सब कुछ नहीं है इस दुनिया में, सतथ्‍य भी है। उसकी कौन खोज करेगा? यहीं जमीन से अटके हम रह जाएंगे तो आकाश की खोज कौन करेगा? पृथ्‍वी के कड़-पत्थरों को हम खोजते रहेंग तो चांद-तारों की तरफ आंखें कौन उठाएगा?

पता भी नहीं होगा उनको! जिन्‍होनं पृथ्‍वी की ही तरफ आंख लगा कर जिंदगी गुजार दी, उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि आकाश में तारे भी हैं, आकाशगंगा भी है। रात के सन्नाटे में मौन सन्नाटा भी है आकाश का। वे बेचारे कंकड़-पत्थर बीनने वाले लोग, उन्हें कै से पता चलेगा कि और आकाश भी है। और अगर कभी कोई उनसे कहेगा कि आकाश भी है जहां चमकते हुए तारे हैं, वे कहेंगे--सब बातचीत है, सब कल्पना है। पत्थर ही पत्थर हैं। कभी रंगीन पत्थर भी होते हैं, कभी गैर-रंगीन पत्थर भी होते हैं। बस इतनी ही जिंदगी है।

नहीं, पृथ्‍वी से मुक्‍त होना है कि आकाश दिखाई पड़ सके । शरीर से मुक्‍त होना है कि आत्मा दिखाई पड़ सके । और सेक्स से मुक्‍त होना है, ताकि समाधि तक मनुष्य पहुंच सके ।

लेकिन उस तक हम नहीं पहुंच सकेंगे, अगर हम सेक्स से बंधे रह जाते हैं। और सेक्स सेहम बंि गए हैं, क्योंकि हम सेक्स सेलड़ रहे हैं। लड़ाई बांध देती है, समझ मुक्‍त करती है। अंडरस्‍टैंडिंग चाहिए। समझो! सेक्स के पूरे रहस्य को समझो! बात करो, धवचार करो, मुल्क मेंहवा पैदा करो कि हम इसेछिपाएंगेनहीं, समझेंगे। अपने पिता से बात करो, अपनी मां से बात करो। वे बहुत घबराएंगे। अपने प्रोफेसर्ससे बात करो, अपने कुलपति को पकड़ो और कहो कि हमें समझाओ। जिंदगी के सवाल हैं ये। वे भागेंगे, क्योंकि वे डरे हुए लोग हैं, डरी हुई पीढ़ी से आए हैं। उनको पता भी नहीं है कि जिंदगी बदल गई है। अब डर से काम नहीं चलेगा। जिंदगी का एनकाउंटर चाहिए, मुकाबला चाहिए। जिंदगी को लड़ने और समझने की तैयारी करो। मित्रों का सहयोग लो, शिक्षकों का सहयोग लो, मां-बाप का सहयोग लो।

वह मां गलत है, जो अपनी बेटी को और अपने बेटे को वे सारे राज नहीं बता जाती जो उसने जाने हैं। क्योंकि उसके बताने से बेटे और उसकी बेटियां भूलों से बच सकेंगे; उसके न बताने से उनसे भी उन्हीं भूलों के दोहराने की संभावना है, जो उसने खुद की होंगी। वह बाप गलत है, जो अपने बेटे को अपनी प्रेम की और अपनी सेक्स की जिंदगी की सारी बातें नहीं बता देता। क्योंकि बता देने से बेटा उन भूलों से बच जाएगा जो उसने की हैं। शायद बेटा ज्यादा स्वस्थ हो सकेगा।

लेकिन बाप! बाप इस तरह जीएगा कि बेटे को पता चले कि इसने कभी प्रेम ही नहीं किया। वह इस तरह खड़ा रहेगा आंखें पत्थर की बना कर कि इसकी जिंदगी में कभी कोई औरत इसे अच्छी ही नहीं लगी।

यह सब झूठी है। यह सरासर झूठी है। तुम्हारे बाप ने भी प्रेम किया है। उनके बाप ने भी प्रेम किया था। सब बाप प्रेम करते रहे हैं, लेकिन सब बाप धोखा देते रहे हैं। तुम भी प्रेम करोगे और बाप बन कर धोखा दोगे। यह सीखोगें  की दुनिया अच्छी नहीं है। चीजें साफ और सीधी होनी चाहिए। जो बाप ने अनुभव किया है, वह बेटे को दे जाए। जो मां ने अनुभव किया है, वह बेटे को दे जाए। जो ईष्यााएं उसने अनुभव की हैं, जो प्रेम अनुभव किए हैं, जो गलतियां उसने की हैं, जिन गलत रास्तों पर वह भटकी है और भरमी है, उन सारी कथा को अपने बच्चों को जो नहीं दे जाते हैं, वे बच्चों का हित नहीं करते हैं । तो शायद दुनिया ज्यादा साफ होगी।

हम दूसरी चीजों के संबंध में साफ हो गए हैं। अगर केमिस्‍ट्री के संबंध में कोई बात जाननी हो, तो सब साफ है। फिजिक्‍स के संबंध में कोई बात जाननी हो, सब साफ है। भूगोल के बाबत जाननी हो कि टिम्‍बकटू कहां है? कुस्तुनतुनिया कहां है? सब साफ है, नक्शा बना हुआ है। आदमी के बाबत कुछ भी साफ नहीं है, कहीं कोई नक्शा नहीं है। आदमी के बाबत सब झूठी है! इसलिए दुनिया सब तरह से विकसित हो रही है, सिर्फ आदमी विकसित नहीं हो रहा है। आदमी के संबंध में भी जिसे दिन साइंटिफिक एटिट्यूड, चीजें साफ-साफ देखने की हिम्‍मत हम जुटा लेंगे, उस दिन आदमी का भी विकास निश्‍चत है।

ये थोड़ी सी बातें मैंने कहीं। मेरी बातों को सोचना। मान लेने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि हो सकता है, जो मैं कहूं, बिलकुल गलत हो।

सोचना, समझना, कोशिश करना। हो सकता है कोई सतथ्‍य तुम्हें दिखाई पड़े। जो तथ्‍य तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा, वह तुम्हारे जीवन में प्रकाश का दीया बन जाता है। मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उससे बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में तुम सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें