एक देश-एक चुनाव Arya Tiwari द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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एक देश-एक चुनाव

एक देश-एक चुनाव समय की मांग

केंद्र सरकार ने एक देश - एक चुनाव की परिकल्‍पना को मूर्त रूप देने की दिशा में महत्‍वपूर्ण कदम बढ़ा़या है। इसके लिए समिति का गठन कर पूर्व राष्‍ट्रपति श्री राम नाथ कोविंद को अध्‍यक्षता सौंपी गई है। एक देश -देश चुनाव की व्‍यवस्‍था लंबे समय से विचाराधीन रही है, किंतु इस दिशा में ठोस कदम अब बढ़ा है। भारत जैसे विशाल भूभाग और जनसंख्‍या वाले लोकतंत्र के लिए ये विचार अतिकठिन अवश्‍य लगता हैं किंतु अत्‍याधुनिक तकनीक के दौर में संकल्‍पकृत नेतृत्‍व द्वारा इसे अमली जामा पहनाया जाना असंभव भी नहीं होगा। स्‍वाधीनता के बाद चार बार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही संपन्‍न हुए, किंतु इसके बाद कुछ राज्‍यों की विधानसभाएं निर्धारित समय से पहले भंग होने के कारण अलग - अलग चुनाव होने लगे और यह परंपरा अब तक कायम है। चुनाव आयोग चार दशक पहले एक साथ चुनाव की सिफारिश कर चुका है, किंतु तत्‍कालीन केंद्र सरकार से स्‍वीकृति नहीं मिल सकी।

एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 60,000 करोड़ से अधिक की राशि व्‍यय हुई थी। एक साथ चुनाव होने से समय और संसाधन दानों ही बचने की बात कही जा रही हैं, लेकिन क्षेत्रीय दलाें कीअसहजता भी इस विचार को लेकर सामनें आती रहीे हैं। भाजपा ने 2014 में अपने घोषा पत्र में इस में दिशा में काम करने की बात कही थी। अब केंद्र सरकार की इस अहम पहल के बाद यह आस बलवती हुई है कि देश को बार-बार होने वाले चुनाव से मुक्ति मिल सकेगी। ऐसे में इस बात की पड़ताल हमााारलिए अहम मुद्दा है कि एक देश - एक चुनाव की व्‍यवस्‍था देश के लिए कितनी आवश्‍यक है............

लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में चुनाव अतिमहत्‍वपूर्ण होते हैं और जनता को अवसर अधिकार देते हैं कि वह अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुन सके। अभी देश में एक देश - एक चुनाावकी चर्चा है। आइए विस्‍तार से इसके बारे में जानें समझें:-

पहले से रही है परंपरा, आते रहे सुझाव.........

(1) भारत में पहले एक साथ चुनाव होते रहे हैं। देश में 1951-52, 1957, 1962, और 1967 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए।

(2) चुूनाव आयोग ने वर्ष 1982 में देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की संस्‍तुति की थी।

(3) वर्ष 2018 में जस्टिस श्री बीएस चौहान की अध्‍यक्षता वाले विधि आयोग ने ड्राफ्ट रिपोर्ट में एक सा‍थ चुनाव की बात की, लेकिन यह भी कहा कि संविधान केेअनुच्‍छेद - 83 अनुच्‍छेद 85, अनुच्‍छेद 172, अनुच्‍छेद 174 और अनुच्‍छेद 356 में सशोधन करने होंगे।

(4) वर्ष 1999 में जस्टिस श्री बीपी जीवन की अध्‍यक्षता वाले विधि आयोग ने एक देश - एक चुनाव की सिफारिश की।

(5) वर्ष 2015 में संसद की स्‍थायी समिति ने दो चरणों में लोकसभी और विधानसभा चुनाव साथ कराने की बात कही। इसमें लोकसभा और कुछ राज्‍यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के बाद लोकसभा के मध्‍यकाल में बाकी राज्‍यों के चुनाव कराने का प्रस्‍ताव शामिल था।

(6) एक वर्ष में खाली हुई सीटों पर उपचुनाव भी तय तिथि पर कराने की बात कही जा चुकी है। यह प्रस्‍ताव भी किया गया कि त्रिशंकु लोकसभााया विधानसभा की स्थिति में सरकार बनाने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई जाए। चुनाव आयोग सुझाव दे चुका है कि अविश्‍वास प्रस्‍ताव में विश्‍वास भी जुड़े जिसमें अगली सरकार के लिए पीएम के तौर पर किसी व्‍यक्ति का नाम प्रस्‍तावित हो और दोनों प्रस्‍तावों पर एक साथ मतदान हो।

(7) यदि ऐसी स्थिति बनती है जिसमें लोकसभा भंग किया जाना अपरिहार्य हो जाएं तो दो विकलप हों - यदि लोकसभा का शेष कार्यकाल कम अवधि का हो ताे राष्‍ट्रपति शासन चलाएं और मंत्रीपरिषद उनका सहयोग करें। यदि लोकसभााका बचा हुआ कार्यकाल अधिक लंबा हो तो शेष अवधि के लिए फिर से आम चुनाव कराए जाने चाहिए।

किसका क्‍या रूख है अब तक:-

पिछले वर्ष विधि आयोग ने इस मुद्दे के साथ बैठक की थी तो अन्‍नाद्रमुक, शिअद, सपा और टीआरएस (अब बीआरएस) ने इस विचार का समर्थन किया था जबकि नौ राजनीतिक दलों (तृृृृृणमूल, आप, द्रमुक, तेदेपा, सीपीआइ, सीपीएम, जदएस, गोवा फारवर्ड पार्टी और फारवर्ड ब्‍लाक) ने विरोध किया था।

जनवरी, 2017 में एक कार्य क्रम को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने एक देश - एक चुनाव की संभाव्‍यता पर अध्‍ययन कराने की बात कही थी। इसके तीन महीने बाद नीति आयोग के साथ राज्‍यों के मुख्‍यमंत्रीयों की बैठक में भी उन्‍होंनें इसकी जरूरत को दोहराया।

कम से कम 10 विधानसभाओं का कार्यकाल वर्ष 2024 में आम चुनाव के लिए निर्धारित समय के आसपास समाप्‍त होगा। मप्र, राजस्‍थान, तेलंगाना, मिजोरम, और छत्‍तीसगढ़ में चुनाव इस वर्ष के अंत तक होने हैं। आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, ओडिशा, सिक्किम और झारखंड में विस चुनाव आम चुनाव के साथ होने की संभावना है।

यह है अमल की कानूनी प्रक्रिया:-

(1) विशेषज्ञों के अनुसार सरकार को सबसे पहले एक देश- एक चुनाव विधेयक को कम से कम आधे राज्‍यों की विधानसभा से पारित कराना होगा।

(2) इसके बाद संविधान संशोधन के जरिये इसे संंसद के दोनों सदनों से पारित कराना होगा। फिर राज्‍यों की सहमति के आधार पर इसे लागू करना होगा।

पक्ष मे तर्क:-

महंगा चुनाव:- एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2019 के लाेकसभा चुनाव पर चुनाव आयोग के 10 हजार करोड़ रूपये खर्च हुए। हालांकि वास्‍ताविक खर्च इससे करीब छह गुना अधिक रहा जिसमें पार्टियों और प्रत्‍याशियों का खर्च भी शामिल हैं। देश में एक साथ चुनाव होने से समय के साथ धन की भी बचत हो सकती है।

बार-बार चुनाव होने से राजनेताओं का ध्‍यान चुनावों राजनीति और जीतने पर अधिक रहता है। एक साथ चुनाव होने की स्थिति में सरकारें शासन और विकास व लोकहित के कार्यों पर अधिक ध्‍यान केंद्रित कर पाएंगी। आचार संहिता के नई योजनाओं व विकास कार्यों में आने वाली बाधा की आवृत्ति भी कम हो सकेगी।


विरोध में तर्क:-

खर्च इसमें भी:- एक देश - एक चुनाव में धन के खर्च को रोका नहींं जा सकेगा। विधि आयोग के अनुसार यदि 2019 के चुनाव इसी वयवस्‍था से होते तो नई ईवीएम के लिए 45,000 करोड़ रूपये की दरकार होती। वर्ष 2024 में एक साथ चुनाव कराने के लिए पुरानी ई वीएम बदलने में 1751 करोड़ 2029 में 2017 करोड़ और 2034 में 13981 करोड़ रूपये खर्च करने होगें।

सरकार गिरी तो क्‍या होगा:-

अगर कोई सरकार समय से पूर्व गिर जाती है तो क्‍या होगा..... 16 में से सात लोकसभाएं समय से पूर्व भंग हो चुकी हैं।

राष्‍ट्रीय बनाम क्षेत्रीय मुद्दे:-

विधानसभा चुनाव में भी राष्‍ट्रीय मसलों पर मतदाता वोट कर सकते हैं। इससे बड़ी राष्‍ट्रीय पर्टियों को फायदा हो सकता है। क्षेत्रीय दलों को नुकसान उठाना पड़ सकता है।

मतदान प्रतिशत बढ़ने की बात विशेषज्ञ करते रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार देश में लोकसभा चुनाव में लगभग 67 प्रतिशत मतदान होता है। वहीं विस व पंचायत में यह आंकड़ा अधिक रहता है। एक साथ मतदान से प्रतिशत बेहतर हो सकता है।

एक देश - एक चुनाव पर विमर्श कोई नहीं बात नहीं है। आठ-नौ वर्षों से इस पर बहस हो रही हैं। इसकी कुछ अच्‍छाइयां है तो कुछ कमियां भी है। अच्‍छाई यह है कि जल्‍दी-जल्‍दी चुनाव होना खत्‍म हो जाएगा। तीनो प्रकार के चुनाव के लिए एक ही वोटर हैं, एक ही पेलिंग बूथ हैं। एक ही मशीनरी हैं जो इन चुनावों को कराती है। जिला प्रशासन और सुरक्षा व्‍यवस्‍था भी वही है। वोटर तीन-तीन बार मतदान करने जाए, इसके बजाय एक ही बार में वह मतदान के मुक्‍त हो जाएगा। अक्‍सर देखा जाता है कि जब भी चुनाव आता है, तभी भ्रष्‍टाचार, संप्रदायवाद, जातिवाद जैसे मुद्दे हावी हो जाते हैं। एक साथ चुनाव होगे तो इन मुद्दों से भी एक ही बार वास्‍ता पड़ेगा। फिर अगले चुनाव तक सरकारें और राजनेता विकास कार्यों में ध्‍यान देंगे।

चुनावों का अ‍ार्थिक समीकरण भी हैं। कहा जाता है कि गरीब आदमी बार-बार चुनाव चाहता है। में हजारों करोड़ रूपये खर्च होते है। ये पैसा राजनीतिज्ञों की जेब से निकलकर गरीबों में ही जाता है। चुनाव जीतने के बाद नेता अगले चुनाव तक नजर नहीं आते हैं। कम से कम चुनाव के बहाने वह मतदाताओ के बीच जाते रहते हैं। एक साथ चुनाव को लेकर एक तर्क दिया जाता हैं कि चुनाव आचार संहिता के कारण सारे सरकारी काम ठप हो जाते है, लेकिल ऐसा नहीं हैं। आचार संहिता में कोई नई योजना की घोषणा नहीं कर सकते हैं, लेकिन हर पुरानी योजना और विकास कार्य चलता रहना चाहिए। यह चलता रहता हैं। इससे भी फर्क नहीं पड़ता देश के किसी और हिस्‍से में चुनाव होने वाले हैं और आचार संहिता लगी हैा बाकी हिस्‍सों में गतिविधियों का सामान्‍य रूप से चलती रहनी चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि देश के संघीय ढ़ांचे में राज्‍यों की राजनीति अलग होती है। आगर किसी राज्‍य में बीच में सरकार गिर जाती है तो क्‍या वहां के लोग चुनाव के लिए कुछ वर्ष इंतजार करेगें या उनका चुनाव अलग होगा।

प्रधानमंत्री ने इन्‍हीं सब तथ्‍यों को ध्‍यान में रखकर कहा है कि इसपर राष्‍ट्रीय बहस होनी चाहिए। पूर्व राष्‍ट्रपति श्री राम नाथ कोविन्‍द की अध्‍यक्षता में समिति बनी हैं। यह शानदान बात हैं। इस पर खुलकर बहस होनी चाहिए। राजनीतिक दलों की आम सहमति बन जाए तो अच्‍छी बात है, न बने तो जबरदस्‍ती न की जाए।

यह भी स्‍पष्‍ट है कि एक साथ चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग पर विशेष फर्क नहीं पड़ता है। पहले दिन से यह बातें आयोग द्वारा कही जा रही हैं। हालांकि आयोग को भी तैयारी करने होगी। अभी उसके पास 20 लाख वीवीपैट हैं, जो कि लोकसभा के साथ ही राज्‍यों के चुनाव में प्रयोग होती है। अगर एक साथ चुनाव होंगे तो तीन गुना वीवीपैट की आवश्‍यकता होगी। इसे बनवाने में दो से तीन वर्ष का समय लग जाएगा। इस प्रक्रिया में जल्‍दबाजी नहीं की जानी चाहिए।

एक साथ चुनाव करने में एक समस्‍या यह भी है कि केंद्रीय चुनाव आयोग लोकसभा और विधानसभा का चुनाव कराता है, जबकि पंचायत का चुनाव राज्‍य चुनाव आयोग कराता है। वह भी संवैधानिक संस्‍था है। वह भी उसी मशीनरी और प्रशासन का इस्‍तेमाल करती है। अगर समन्‍वय में कमी आई तो दिक्‍कतें आएंगी।

इस राह में बड़ी बहस एकल मतदाता पहचान पत्र को लेकर भी हैं, कई बार पता चलता है कि लोकसभा की मतदाता सूची में नाम हैं, लेकिन ग्राम पंचायत में नहीं है। इसे एकल करने के लिए संवैधानिक वयवस्‍था की आवश्‍यकता पड़ेगी। मौजूदा समय में एक देश-एक चुनाव में पंचायत चुनाव को लेकर बहर नहीं हो रही हैं, जबकि लोकसभा व विधानसभा चुनाव के साथ पंचायत-निकाय चुनाव भी महत्‍वपूर्ण है। वैसे तीनों चुनाव के मुद्दे अलग-अलग होते हैं। पंचायत चुनाव जहां नाली-क्षंडजा और चिकित्‍सा सुविधा समेत अन्‍य अतिस्‍थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है, वहीं लोकसभा चुनाव में विदेश नीति जैसे मुद्दे भी अहम भुमिका माने जाते हैं। ऐसे में यह भी देखा जाना चाहिए कि एक साथ चुनाव में चुनावी मुद्दों का भी घालमेल या गोलमाल न हो। उम्‍मीद है कि इस सभी बिंदुओं पर आगे गंभीर बहस होकर किसी एक विचार पर सहमति तक बात पहुंचेगी।