Kalvachi-Pretni Rahashy - 61 books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६१)

अब चन्द्रकला देवी राजमहल वापस आ गईं थीं और जब उनकी भेंट गिरिराज से हुई तो वें उससे बोलीं....
"पुत्र! ये तुमने ठीक नहीं किया,तुमने तो धंसिका से प्रेमविवाह किया था,तब भी तुमने उसे स्वयं से दूर कर दिया,बिना पुत्रवधू के ये राजमहल सूना है,वो यहाँ की रानी है और अपनी रानी के बिना एक राजा सदैव अपूर्ण रहता है"
"तो क्या इसमें मेरा दोष है,वो स्वयं यहाँ से गई है,मैंने नहीं कहा था उसे यहाँ से जाने के लिए",गिरिराज बोला....
"दोष किसी का भी वो पुत्र! किन्तु इसमें हानि सम्पूर्ण राज्य की है,वो तुम्हारी अर्धान्गनी है, विवाह के समय तुमने उसे वचन दिया था कि तुम सदैव उसका ध्यान रखोगें,उसका संग कभी नहीं छोड़ोगें,अब कहाँ गया तुम्हारा वो वचन,क्या इसी दिन के लिए तुमने उससे विवाह किया था",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"रुठकर वो गईं है,तो उसे ही आना होगा,मैं उसे लेने नहीं जाऊँगा",गिरिराज बोला....
"इसका तात्पर्य है कि तुम्हें समझाने में मैं असफल रही",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"हाँ! कदाचित",गिरिराज बोला....
"ना तुम समझने को तत्पर हो और ना वो समझने को तत्पर है तो अब मैं इसमें क्या कर सकती हूँ,जो तुम दोनों को दिखाए दे सो वो करो",
और ऐसा कहकर चन्द्रकला देवी गिरिराज के कक्ष से वापस आ गईं,इसके पश्चात चन्द्रकला देवी ने धंसिका को राजमहल वापस बुलाने का उपाय निकाला और इसके लिए उन्होंने स्वयं के अस्वस्थ होने का अभिनय करना प्रारम्भ कर दिया,वें अब दिनभर अपने बिछौने पर लेटीं रहतीं और दासियों से कहतीं कि कोई भी पूछे तो कह देना कि मैं अस्वस्थ हूँ और उन्होंने राजवैद्य से भी यही कहा कि आप सबसे ये कहिए कि राजमाता अत्यधिक अस्वस्थ अवस्था में हैं,अब उनका बचना कठिन है,ना जाने कौन सी चिन्ता ने उनकी ऐसी दशा कर दी है और राजवैद्य ने यही किया,अब चारों ओर ये बात बिसरित हो गई कि राजमाता के अब इस संसार में दिन पूरे हो चुके हैं वें कभी भी मृत्युलोक की यात्रा पर जा सकतीं हैं......
ये बात सुनकर गिरिराज चिन्तित हो उठा और वो अपनी माता के कक्ष में जाकर उनसे से बोला....
"माता! ऐसी कौन सी चिन्ता सता रही है आपको जो आप इतनी अस्वस्थ हो गईं"
"कुछ नहीं पुत्र! अब वृद्ध भी तो हो चुकी हूँ इसलिए अस्वस्थ हो गई,मेरे स्वामी भी तो मुझे छोड़कर जा चुके हैं,तुमने कभी भी अपने पिता की आज्ञा का पालन नहीं किया इस कारण वें शीघ्र ही स्वर्ग सिधार गए,किससे कहूँ अपने मन की बातें,मुझे पुत्री भी नहीं दी ईश्वर ने, जो मेरे मन की बात समझ लेती,ईश्वर ने एक पुत्रवधू दी थी तो वो भी यहाँ आने के लिए तत्पर नहीं है,मेरे मन की पीड़ा तुम नहीं समझ सकते पुत्र! क्योंकि तुम स्त्री नहीं हो,पुरूष हो जिसके पास केवल कठोर हृदय एवं कठोर मन होता है",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"माता! कृपया ऐसा ना कहें,आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएगीं",गिरिराज बोला...
"किन्तु!मुझे ऐसी कोई आशा नहीं दिख रही है पुत्र!",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"आशावादी बनिए माता! आपके मुँख से ऐसी निराशावादी बातें शोभा नहीं देतीं",गिरिराज बोला....
"अब तुम यहाँ से जाओ पुत्र! मेरे प्रति इतनी चिन्ता मत रखो अपने मन में,अब मैंने सबकुछ ईश्वर पर छोड़ दिया है",चन्द्रकला देवी बोलीं....
और इसके पश्चात गिरिराज चन्द्रकला देवी के कक्ष से चला गया,चन्द्रकला देवी अपने इस झूठे अभिनय से प्रसन्न थीं,उन्हें आशा थी कि अब गिरिराज कदाचित धंसिका को राजमहल वापस ले आएगा, किन्तु ऐसा हो ना सका और जब धंसिका को चन्द्रकला देवी के अस्वस्थ होने की बात ज्ञात हुई तो वो अपने स्वाभिमान को एक ओर रखकर शीघ्र ही चन्द्रकला देवी को देखने राजमहल आ पहुँची,इस बात से चन्द्रकला देवी ने सोचा चलो वो अपने झूठे अभिनय में सफल हुई और धंसिका से बोली....
"पुत्री! अब मेरे अन्तिम समय तक मेरे साथ रहना",
"ऐसा ना कहें माता! आप शीघ्र ही स्वस्थ हो जाऐगीं", धंसिका बोली...
"अब तुम आ गई हो पुत्री तो कदाचित मैं स्वस्थ हो जाऊँ",चन्द्रकला देवी बोलीं....
और उस दिन के पश्चात धंसिका पुनः राजमहल में रहकर चन्द्रकला देवी की सेवा करने लगी,धीरे धीरे चन्द्रकला देवी का स्वास्थ्य सुधरने लगा,जिससे गिरिराज भी भी प्रसन्न हुआ और वो धंसिका के कक्ष में उसका आभार प्रकट करने पहुँचा,वो धंसिका के समीप जाकर बोला....
"बहुत बहुत धन्यवाद धंसिका ! जो तुम पुनः लौट आईं और तुम्हारे कारण माता का स्वास्थ्य सुधर गया",
"वें मेरी भी तो माता हैं और ये तो मेरा कर्तव्य था",धंसिका बोली....
"और मेरे प्रति तुम्हारा कोई कर्तव्य नहीं",गिरिराज ने पूछा....
"आपको मेरी चिन्ता कहाँ है और अब आप तो मुझसे प्रेम भी नहीं करते",धंसिका बोली....
"ऐसा मत कहो धंसिका! वो तो मैने क्रोधवश तुमसे कह दिया था,तुम राजमहल वापस आ गई तो देखो राजमहल में पुनः सुख शान्ति आ गई",गिरिराज बोला....
"माता के पूर्णतः स्वस्थ होने पर मैं यहाँ से चली जाऊँगीं",धंसिका बोली...
"मत जाओ ना धंसिका! देखो तुम्हारे जाने से ये राजमहल कैसा हो गया था",गिरिराज बोला....
"जब स्त्री का स्वामी ही उसे अपने साथ ना रखना चाहे तो स्त्री के पास इसके अलावा और कोई मार्ग शेष नहीं बचता ",धंसिका बोली...
"मैंने कहा ना कि क्रोधवश मुझसे ऐसा अपराध हो गया,तुम तो सदैव मेरे हृदय में रहती हो धंसिका"!
,गिरिराज बोला...
"आप सच कहते हैं स्वामी!",धंसिका ने पूछा...
"हाँ! सच एकदम सच"
और ऐसा कहकर गिरिराज ने धंसिका को अपने हृदय से लगा लिया,उस दिन के पश्चात धंसिका पुनः गिरिराज के साथ रहने लगी,इस बात से चन्द्रकला देवी अति प्रसन्न हुई कि उनका अभिनय असफल नहीं हुआ उनकी पुत्रवधू अब सदैव उनके पास रहेगी,ऐसे ही दिन बीते और धंसिका पुनः गर्भवती हुई और इस बार सभी ने उसका अत्यधिक ध्यान रखा, कुछ माह पश्चात धंसिका ने एक स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया , जिसका नाम सारन्ध रखा गया,सारन्ध धीरे धीरे बड़ा हो रहा था ,गिरिराज और धंसिका उस पर पूरा पूरा ध्यान देते थे,तभी धंसिका को एक दिन ध्यान आया कि उसकी एक अमूल्य माला नहीं मिल रही है,जो गिरिराज ने उसे कभी प्रेमपूर्वक भेट दी थी,कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी दासी ने वो अमूल्य माला चुरा ली हो और गिरिराज को इस बात का तनिक भी ध्यान ना रहा कि वो क्या कहने जा रहा है और उसने एकाएक धंसिका से कह दिया....
"वो माला तो मैने हमलोगों की नवजात कन्या के गले में डाल दी थी और उसे राजसी वस्त्रों में लपेटकर एक टोकरी में रखकर वन के समीप छोड़ आया था,इसलिए उस अमूल्य माला के विषय में तुम अधिक मत सोचो,वो कदाचित हमारी पुत्री के पास हो सकती है",
अब ये बात ज्यों ही धंसिका ने सुनी तो बोली....
"तो इसका तात्पर्य है कि हमारी पुत्री जीवित है",
अब गिरिराज के पास धंसिका के इस प्रश्न का कोई उत्तर ना था इसलिए वो बोला....
"मुझे सदैव से पुत्र चाहिए था और तुमने पुत्री को जन्म दिया था,इसलिए मैं उसे वन में छोड़ आया था,अब वो जीवित है या नहीं,ये मुझे नहीं ज्ञात",
ये बात सुनकर धंसिका को अत्यधिक आघात पहुँचा और वो अचेत होकर गिर पड़ी और जब उसकी चेतना वापस लौटी तो उसके बोलने और सुनने की क्षमता जा चुकी थी और इसके पश्चात गिरिराज से रुष्ट होकर वो गिरिराज और अपने पुत्र सारन्ध को छोड़कर अपने माता पिता के पास वापस जाने लगी तो गिरिराज ने धंसिका की कोई चिन्ता नहीं की और ना ही उसे रोका और उससे सांकेतिक भाषा में कहा कि जा रही हो तो कभी यहाँ वापस मत लौटना,मुझे ऐसी मूक एवं बधिर स्त्री की कोई आवश्यकता नहीं ,अपने इस अपमान के पश्चात वो कभी गिरिराज के पास नहीं लौटी,इस बात से चन्द्रकला देवी भी गिरिराज से इतनी रुष्ट हुई कि वें भी राजमहल का त्याग कर किसी आश्रम में चली गईं और तब से धंसिका के सुनने एवं बोलने की क्षमता जा चुकी है,कुछ समय पश्चात गिरिराज ने धंसिका के माता पिता की भी हत्या करवा दी,वो चाहता था कि धंसिका निराश्रित हो जाए,इसलिए मैं भी अपना निवासस्थान छोड़कर उसे अपने साथ यहाँ ले आया ताकि वो सुरक्षित रहे उसे गिरिराज कोई हानि ना पहुँचा सके........
और ये कहते कहते वैद्यराज धरणीधर शान्त हो गए....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....


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