Kalvachi-Pretni Rahashy - 60 books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(६०)

मृत शिशुकन्या की बात सुनकर धंसिका स्वयं को सम्भाल ना पाई और फूट फूटकर रो पड़ी,वो रोते हुए गिरिराज से बोली....
"स्वामी! ऐसा क्या अपराध हुआ था मुझसे ,जो ईश्वर ने मुझे उसका ऐसा दण्ड दिया,मैंने अपनी आने वाली सन्तान के लिए क्या क्या स्वप्न संजोए थे,वो सब धरे के धरे रह गए,जब माता कुलदेवी के दर्शन करके लौटेगी तो मैं क्या उत्तर दूँगीं उन्हें,हे! ईश्वर! जब आपको मेरी सन्तान लेनी ही थी तो दी ही क्यों थी,आपकी पूजा अर्चना में मुझसे क्या कमी रह गई थी जो आपने मुझसे मेरी सन्तान छीन ली",
"शान्त हो जाओ धंसिका! कदाचित ये नियति का ही खेल है जो उन्होंने हमारी पुत्री को हमसे छीन लिया", गिरिराज धंसिका को झूठी सान्त्वना जताते हुए बोला....
"किन्तु! स्वामी! ये मेरे लिए असहनीय है,इतने मास मैने उसे अपने गर्भ में रखा था,जब वो मेरे गर्भ में कोई गतिविधि करती तो मेरा मन प्रसन्नता से भर जाता था,ऐसा मैंने कभी नहीं सोचा था,जैसा मेरे संग हो गया,मुझे इस अनहोनी के होने की आशा नहीं थी",धंसिका बोली....
"अब इसमें मेरा और तुम्हारा कोई दोष नहीं है प्रिऐ! हो सकता कन्या जब गर्भ में रही हो तो अस्वस्थ हो और इस बात का तुम्हें पता ना चला हो"गिरिराज बोला....
"किन्तु दाईअम्मा और राजवैद्य जब भी मेरी जाँच करते थे तो यही कहते थे कि माँ और शिशु दोनों स्वस्थ हैं",धंसिका अपने अश्रु पोछते हुए बोली....
"हो सकता है उन्हें शिशु की अस्वस्थता का पता ना चला हो",गिरिराज बोला....
"वो सब तो ठीक है स्वामी! किन्तु आप तनिक प्रतीक्षा कर लेते तो मैं भी कन्या का मुँख देख लेती ,आपने कन्या को धरती में दबाने हेतु इतनी शीघ्रता क्यों की",धंसिका ने पूछा....
तब गिरिराज बोला....
"धंसिका! कन्या अत्यधिक सुन्दर थी,बिलकुल तुम्हारी भाँति,यदि तुम उसे देख लेती तो कदापि स्वयं से दूर ना जाने देती,तब तुम्हें और भी अधिक दुख होता और तुम्हारा ये दुख मुझसे देखा ना जाता,इसलिए मैं उसे शीघ्रता से धरती में दबाने हेतु चला गया",गिरिराज बोला....
"आपको मेरी इतनी चिन्ता है",धंसिका ने पूछा....
"तुम्हारी चिन्ता नहीं करूँगा तो किसकी चिन्ता करूँगा धंसिका! माता और तुम्हारे सिवाए मेरा है ही कौन"?, गिरिराज झूठा अभिनय करते हुए बोला....
और ऐसे ही धंसिका और गिरिराज के मध्य वार्तालाप होता रहा,धंसिका रोती रही और गिरिराज उसे ढ़ाढ़स बँधाता रहा और कुछ दिवस पश्चात जब चन्द्रकला देवी कुलदेवी के दर्शन करके वापस राजमहल लौटीं तो उन्हें भी शिशु कन्या के मृत पैदा होने पर अत्यधिक दुख हुआ,ये सुनकर उनकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी और उन्होंने धंसिका को अपने हृदय से लगा लिया.....
दिन ऐसे ही बीतने लगे,अब धंसिका अपने दुख को विस्मृत करने का प्रयास कर रही थी,किन्तु अब गिरिराज का व्यवहार पुनः धंसिका की ओर शुष्क सा होता जा रहा था,अब उसने धंसिका को पुनः अनदेखा करना प्रारम्भ कर दिया था,इसलिए धंसिका पुनः उदास रहने लगी,एक तो शिशु के दूर जाने का दुख उस पर स्वामी का शुष्क एवं निर्दयतापूर्ण व्यवहार ये धंसिका के लिए असहनीय था....
और जब उसने गिरिराज से इस विषय पर बात करनी चाही तो गिरिराज बोला.....
"मुझे और बहुत से कार्य करने होते हैं,मैं इस राज्य का राजा हूँ,मैं तुम्हारे लिए राज्य के कार्य नहीं छोड़ सकता",
"तो आपका मेरे प्रति कोई भी कर्तव्य नहीं है",धंसिका ने पूछा....
"तो मैं तुम्हारे प्रति अपना कौन सा कर्तव्य नहीं निभा रहा,तुम इस महल में रह रही हो,तुम्हें अच्छा भोजन मिल रहा है,सुन्दर वस्त्र और आभूषण मिल रहे हैं,अनेकों दासियाँ तुम्हारी सेवा में लगीं रहतीं हैं और क्या चाहिए तुम्हें", गिरिराज ने क्रोधित होकर पूछा....
"सुन्दर वस्त्र और आभूषण एक विवाहिता स्त्री को प्रसन्न नहीं रख सकते स्वामी!,एक स्त्री के लिए सबसे अधिक प्रसन्नता वाली बात तब होती है जब उसका स्वामी उसका ध्यान रखता है,उससे प्रेमपूर्वक वार्तालाप करता है,उसका सुख दुख बाँटता है,तब स्त्री प्रसन्न होती है",धंसिका भी क्रोधित होकर बोली....
"तो तुम चाहती हो कि मैं सदैव तुम्हारा सेवक बनकर तुम्हारे चरणों में पड़ा रहूँ",गिरिराज बोला....
"ये कैसीं बातें कर रहे हैं आप,मैं ऐसा क्यों चाहूँगी स्वामी! मैं तो आपकी सेविका हूँ और आपकी सेवा करना चाहती हूँ",धंसिका बोली....
"यदि तुम मेरी सेवा करना चाहती हो तो तुम मुझसे इसी समय दूर चली जाओ,अब मैं तुम्हें इस राजमहल में नहीं देखना चाहता",गिरिराज बोला....
"ये क्या कह रहे हैं स्वामी? आप तो मुझसे प्रेम करते थे,तो क्या यही था वो आपका प्रेम,जो आज आप मुझे स्वयं से दूर जाने को कह रहे हैं",धंसिका बोली....
"हाँ! मुझे तुमसे प्रेम नहीं रहा और इसी में हम दोनों की भलाई है कि तुम अपने माता पिता के घर चली जाओ,चाहो तो यहाँ से कितनी भी दासियाँ ले जाओ,आभूषण ले जाओ ,वस्त्र ले जाओ किन्तु यहाँ से चली जाओ",गिरिराज बोला....
"मुझे आपके आभूषणों,वस्त्रों और दासियों की कोई आवश्यकता नहीं है महाराज! मैं मेरे माता पिता के घर में इन सभी वस्तुओं के अभाव में भी प्रसन्न रहती थी,किन्तु जब से आपके इस धन वैभव के संसार में आई हूँ तब से मेरे मन का उल्लास समाप्त हो गया है,अब मैं यहाँ से जा रही हूँ",
और ऐसा कहकर धंसिका उस रात्रि राजमहल से अपने माता पिता के घर वापस आ गई और उसने अपने माता पिता को सब कुछ बता दिया और इधर जब ये बात चन्द्रकला देवी को पता चली तो वें धंसिका से मिलने उसके माता पिता के घर पहुँचीं और धंसिका से बोलीं....
"पुत्री! ऐसा निर्णय लेने से पहले एक बार सोच तो लिया होता",
तब धंसिका बोली....
"माता! बहुत सोचा था किन्तु आपके पुत्र की कड़वी बातों ने मेरे हृदय को इतना कष्ट पहुँचाया कि मुझे विवश होकर यहाँ आना पड़ा,उन्हें अब मेरी आवश्यकता नहीं है,वें अब मुझे प्रेम नहीं करते,कृपया आप हम दोनों के लिए इतनी दुखी मत हों,अब हम दोनों के सम्बन्ध में सिवाय कड़वाहट के कुछ नहीं बचा है,मैने उन्हें मुक्त कर दिया है,अब वें जो चाहें कर सकते हैं,वे मेरी ओर से पूर्णतः स्वतन्त्र हैं",
"ऐसा मत बोलो पुत्री! मुझ वृद्धा के विषय में ही कुछ सोच लो", चन्द्रकला देवी बोलीं...
"माता! आप तो सदैव मेरी माता रहेगीं,आपका जब भी जी करें तो आप मुझसे मिलने यहाँ आ सकतीं हैं, किन्तु आप मुझे अपने संग राजमहल चलने को विवश ना करें",धंसिका बोली....
"तुम्हारे बिन उस राजमहल में कुछ भी नहीं है पुत्री! तुम तो उस राजमहल का प्रकाश हो,उसकी आत्मा हो",चन्द्रकला देवी बोली....
"किन्तु! आपके पुत्र नहीं चाहते कि मैं वहाँ रहूँ,अभी इतना आत्मसम्मान तो जीवित है मुझ में कि मैं ये निर्णय ले सकूँ कि मेरे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित",धंसिका बोली...
"तो ठीक है पुत्री! यदि तुम्हारे आत्मसम्मान की बात है तो मैं इस पर अब कुछ भी नहीं कहूँगीं,किन्तु जब भी तुम्हारा जी चाहे तो आ जाना,क्योंकि राजमहल के किवाड़ सदैव तुम्हारे लिए खुले हैं,निःसंकोच तुम कभी भी वहाँ आ सकती हो",
और ऐसा कहकर चन्द्रकला देवी जाने लगी तो धंसिका ने उनके चरण स्पर्श किए और चन्द्रकला देवी रथ पर सवार होकर राजमहल की ओर चल पड़ीं.....

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....


अन्य रसप्रद विकल्प

शेयर करे

NEW REALESED