Kalvachi-Pretni Rahashy - 59 books and stories free download online pdf in Hindi

कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(५९)

गिरिराज जब उस राज्य का राजा बन गया तो उसे अब किसी का भी भय नहीं रह गया था,क्योंकि अब उसके मार्ग पर कोई भी पत्थर बिछाने वाला ना बचा था,गिरिराज के इस षणयन्त्र को ना तो उसकी माता चन्द्रकला देवी समझ पाई और ना ही राज्य की प्रजा,उसने केवल राज्य पर अपना आधिपत्य पाने हेतु पहले सेनापति का पद हथियाया,इसके पश्चात उसने उस राज्य के राजा को विश्वास में लिया,जब राजा को उस पर पूर्णतः विश्वास हो गया तो उसने राजा की सबसे छोटी रानी रुपश्री के संग प्रेम का झूठा अभिनय कर उनका विश्वास जीत लिया,इसके पश्चात उसने राजपरिवार के सभी सदस्यों को ईश्वर के पास पहुँचा दिया और स्वयं उस राज्य का राजा बन गया.....
गिरिराज के राजा बनते ही धंसिका के माता एवं पिता अति प्रसन्न थे और वें चाहते थे कि अब शीघ्र ही गिरिराज और धंसिका का विवाह हो जाए,अब चन्द्रकला देवी भी यहीं चाहतीं थीं कि शीघ्र ही धंसिका उनकी पुत्रवधू बनकर उनके घर आ जाएं,चाहता तो गिरिराज भी यही था,उसने धंसिका से शीघ्रतापूर्वक विवाह करने हेतु तो रानी रुपश्री की हत्या की थी,अब वो अत्यन्त प्रसन्न था और हुआ भी यही क्योंकि अब गिरिराज और धंसिका के विवाह में बिलम्ब होने का कोई औचित्य ही नहीं बनता था....
और हुआ भी यही कि दो तीन मास के भीतर ही भीतर गिरिराज और धंसिका का विवाह हो गया,धंसिका गिरिराज के घर में उसकी अर्धांगिनी बनकर आ गई,गिरिराज अपनी सुन्दर,सुशील,गुणवती और शीलवती पत्नी को पाकर अति प्रसन्न था,धंसिका भी गिरिराज को अपने पति के रुप में पाकर अति प्रसन्न थी और चन्द्रकला देवी के पग तो मारे प्रसन्नता के धरती पर ही नहीं पड़ रहे थे,विवाह के पश्चात गिरिराज और धंसिका कुलदेवी के दर्शनों हेतु गए,इसके पश्चात दोनों पुनः राजमहल लौटे और उस रात्रि अब दोनों के मधुर मिलन की रात्रि आ चुकी थी जिसकी गिरिराज और धंसिका को कब से प्रतीक्षा थी,उस रात्रि चन्द्रकला देवी ने स्वयं धंसिका का श्रृंगार किया और धंसिका से बोली....
"पुत्री धंसिका! ईश्वर ने मुझे कोई कन्या नहीं दी,किन्तु उस की कृपा से तुम मेरी पुत्रवधू बनकर आई,ये मेरा सौभाग्य है,आशा है कि तुम शीघ्र ही अपनी गृहस्थी पूर्णतः सम्भाल लोगी,यदि कभी कोई कष्ट या चिन्ता की बात हो जाएं तो तुम मुझे अपनी माता समझकर अपनी चिन्ता बता सकती हो",
तब धंसिका बोली....
"जी! माता! मैं भी धन्य हो गई आप जैसी माता और उन जैसा स्वामी पाकर,मैं अत्यधिक भाग्यशाली हूँ जो मुझे ऐसा परिवार मिला,मैं तो सदैव से एक साधारण परिवार में पली बढ़ी हूँ किन्तु एकाएक इतना धन एवं वैभव देखकर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है,क्या हम इस राजमहल को छोड़कर किसी साधारण से घर में नहीं रह सकते?",
धंसिका की बात सुनकर चन्द्रकला देवी तनिक मुस्कुराईं,इसके पश्चात बोलीं....
"हाँ! पुत्री! ये राजमहल तो मुझे भी नहीं भाता,किन्तु क्या करूँ जहाँ मेरा पुत्र रहेगा तो मुझे भी वहीं रहना पड़ेगा और अब तुम्हारी स्थिति भी ऐसी ही हो गई है कि जहाँ तुम्हारे स्वामी रहेगें वहीं तो तुम रहोगी"
"जी! माता! मैं आपकी बात से पूर्णतः सहमत हूंँ,अब तो आपके और स्वामी के चरणों में ही मेरा स्वर्ग है", धंसिका बोली....
"नहीं! पुत्री! तुम्हारा हमारे चरणों में नहीं हृदय में स्थान है,अब तुम ही तो इस राजमहल की रानी हो, इस राज्य और इसकी प्रजा का ध्यान रखना ही अब तुम्हारा कर्तव्य है",चन्द्रकला देवी बोलीं....
"जी! और मैं सदैव अपने इस कर्तव्य को पूर्णतः निभाने का प्रयास करूँगी",धंसिका बोली...
"हाँ! मुझे तुमसे ऐसे ही उत्तर की आशा थी",चन्द्रकला देवी बोलीं....
और ऐसे ही कुछ देर वार्तालाप करने के पश्चात चन्द्रकला देवी धंसिका को उसके कक्ष में लेकर गईं और बिछौने पर बैठने को कहा,इसके पश्चात चन्द्रकला देवी अपने कक्ष में वापस आ गईं,धंसिका ने अपने कक्ष को देखा जो कि अत्यधिक भव्य एवं सुन्दर था,भाँति भाँति के पुष्पों से आज कक्ष की सजावट की गई थी एवं ना ना प्रकार के द्वीप कक्ष में प्रज्ज्वलित किए गए थे,धंसिका ने इसके पहले कभी इतना भव्य एवं सुन्दर कक्ष नहीं देखा था,वो आश्चर्यजनक होकर कक्ष को देख ही रही थी कि तभी गिरिराज ने कक्ष में प्रवेश किया और धंसिका के समीप आकर बोला....
"ऐसे क्या देख रही हो धंसिका"?
"मैं कक्ष की साज-सज्जा देख रही थी स्वामी!",
और ऐसा कहकर धंसिका ने गिरिराज के चरण स्पर्श कर लिए और तब गिरिराज ने धंसिका से कहा....
"तुम्हारा स्थान वहाँ नहीं है प्रिऐ! तुम्हारा स्थान तो मेरे हृदय में है,मैं कब से इस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था कि कब तुम मेरी जीवनसंगिनी बनकर मेरे समीप आओ और मैं तुमसे प्रेमभरी बातें करूँ,आज मेरा वो स्वप्न पूर्ण हो गया"
"जी! सच कह रहे हैं आप,आज मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ",धंसिका बोली...
"तो मेरे समीप आओ ना प्रिऐं! इतने समीप कि मुझ में और तुम में कोई अन्तर ना रह जाएं",गिरिराज बोला....
और धंसिका गिरिराज के समीप आकर उसके हृदय से लग गई,इस प्रकार उस रात्रि गिरिराज एवं धंसिका के गृहस्थ जीवन का प्रारम्भ हो गया,दोनों का जीवन पाँच माह तक तो अत्यन्त सुखपूर्वक बीता, किन्तु इसके पश्चात राजमहल में एक राजनर्तकी आ गई,जो अत्यधिक रुपवती थी एवं उसके रुप से मोहित होकर गिरिराज ने उससे समीपता बढ़ा ली,राजनर्तकी तो धन और वैभव की लोभी थी और गिरिराज था रुप और यौवन का लोभी,अब जब गिरिराज की समीपता उस राज नर्तकी से बढ़ गई तो वो अब धंसिका के पास ना जाता, जिससे धंसिका दुखी रहने लगी और उसने ये बात चन्द्रकला देवी से कही,चन्द्रकला देवी ने भी गिरिराज को समझाया किन्तु वो कुछ समझना ही नहीं चाहता था.....
इस बात से अब धंसिका अत्यधिक दुखी एवं उदासीन रहने लगी,वो अब अपने श्रृंगार पर भी ध्यान नहीं देती थी और एक दिन वो अचेत होकर धरती पर गिर पड़ी,इसके पश्चात वैद्यराज को बुलाया गया तो उन्होंने कहा कि धंसिका गर्भवती है,इस बात से चन्द्रकला देवी अत्यधिक प्रसन्न हुई और ये बात उसने गिरिराज को बताई तो गिरिराज भी अत्यधिक प्रसन्न हुआ और अब वो पुनः धंसिका का पहले की भाँति ध्यान रखने लगा और अब धंसिका भी गिरिराज का उसके प्रति व्यवहार बदल जाने से प्रसन्न थी,इसी प्रकार कुछ मास और बीत गए,शिशु के जन्म का समय निकट आ पहुँचा था,किन्तु अभी भी शिशु के जन्म में पन्द्रह दिवस शेष थे इसलिए चन्द्रकला देवी ने अपनी कुलदेवी के दर्शनों की इच्छा जताई तो गिरिराज बोला....
"माता! आप कुलदेवी के दर्शनों के लिए चली जाइए,मैं धंसिका का ध्यान रख लूँगा,वैसे भी अभी शिशु के जन्म में पन्द्रह दिवस शेष हैं",
गिरिराज के कहने पर चन्द्रकला देवी कुलदेवी के दर्शनों हेतु चली गईं और उनके जाते ही धंसिका को प्रसवपीड़ा होने लगी और धंसिका ने एक पुत्री को जन्म दिया,जब ये बात गिरिराज को पता चली कि धंसिका ने एक पुत्री को जन्म दिया है तो उसने दासी से पूछा कि रानी कैसीं है,तब दासी ने गिरिराज को बताया कि वो अभी अचेत है और इस अवसर का गिरिराज ने लाभ उठाया,अपनी नवजात पुत्री के गले में धंसिका की एक मोतियों की माला पहना दी जो कि उसने ही कभी धंसिका को दी थी और उस शिशु कन्या को एक टोकरी में रखकर राजसी वस्त्रों में लपेटकर वो उसे वन के समीप छोड़ आया और जब धंसिका ने अपने नवजात शिशु के विषय में गिरिराज से पूछा तो उसने कह दिया कि उसने एक मृत कन्या को जन्म दिया था......

क्रमशः....
सरोज वर्मा....


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