कलवाची--प्रेतनी रहस्य - (६२) Saroj Verma द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - (६२)

कौत्रेय और त्रिलोचना वैद्यराज धरणीधर से भेंट करके वापस सभी के समीप पहुँचे,तब तक भूतेश्वर भी उन सभी के पास आ चुका था और त्रिलोचना ने दुखी मन से धंसिका के जीवन की व्यथा सबके समक्ष सुनाई जिसे सुनकर सभी का मन द्रवित हो उठा ,तब भूतेश्वर बोला....
"अब इसके आगें का वृतान्त मुझसे सुनो",
"ये क्या कह रहे हो तुम भूतेश्वर? तुम्हें कैसें ज्ञात है धंसिका के जीवन की कहानी",रानी कुमुदिनी ने पूछा......
"क्योंकि! राजसी वस्त्रों में लिपटी हुई वो कन्या शिशु और कोई नहीं त्रिलोचना है",भूतेश्वर बोला....
"क्या कहा तुमने वो कन्या शिशु त्रिलोचना है,किन्तु ये कैसें हो सकता है"?,सेनापति व्योमकेश बोले....
"जी! हाँ! वो त्रिलोचना ही है,तनिक ठहरें मैं आपको उसका प्रमाण देता हूँ",
और ऐसा कहकर भूतेश्वर ने वृक्ष के तने से से टँगी हुई अपनी पोटली निकाली और उसमें वो माला और राजसी वस्त्र निकाला जिसमें कि त्रिलोचना लिपटी हुई उसके पिता को मिली थी और वें उस शिशु कन्या को अपने घर ले आए थे,भूतेश्वर की माता ने प्रेमपूर्वक उस शिशु कन्या का ध्यान रखा और उसे अपनी पुत्री समझकर ही पाला था,भूतेश्वर तब सात वर्ष का था ,वो भी उस कन्या को अपनी बहन के रुप में पाकर अति प्रसन्न था और उन सभी ने उसका नाम त्रिलोचना रखा,जब भूतेश्वर सत्रह वर्ष का और त्रिलोचना दस वर्ष की थे ,तो उन दोनों के माता पिता नाव से नदी पार करके दूसरे गाँव जा रहे थे,उनके किसी सम्बन्धी का स्वर्गवास हो गया,इसलिए उन दोनों का उनके घर जाना अति आवश्यक था,उन्होंने सोचा वें शीघ्र ही लौंट आऐगें,इसलिए वें त्रिलोचना और भूतेश्वर को अपने संग नहीं ले गए,
किन्तु उस दिन इतनी वर्षा हुई और नदी का जलप्रवाह इतना तीव्र था कि खेवनहार नाव को ना सम्भाल सका और नाव नदी में समा गई,जब वर्षा समाप्त हुई तो उन दोनों की खोज प्रारम्भ हुई और उन दोनों का केवल मृत शरीर ही भूतेश्वर और त्रिलोचना को मिल सका,उस दिन के पश्चात भूतेश्वर ने त्रिलोचना को अपनी पुत्री की भाँति सम्भाला और इस रहस्य को भी उजागर नहीं होने दिया कि वो उसकी सगी बहन नहीं है,वो तो वन में उसे उसके पिता को एक टोकरी में मिली थी,त्रिलोचना एक राजसी कन्या है ये तो उसे ज्ञात था किन्तु उसके माता पिता कौन है इसके विषय में वो भी कुछ नहीं जानता था, किन्तु आज सभी को ज्ञात हो चुका था कि त्रिलोचना धंसिका एवं गिरिराज की पुत्री है......
जब ये बात त्रिलोचना ने भूतेश्वर के मुँख से सुनी तो वो बोली.....
"भ्राता! जितना प्रेम आपने और आपके माता पिता ने मुझे दिया है,उतना प्रेम तो मुझे कोई भी नहीं दे सकता, आपका बहुत बहुत आभार,मैं जीवनपर्यन्त आपकी ऋणी रहूँगी",
"ये कैसीं बातें कर रही हो त्रिलोचना! तुम मेरी बहन हो और सदैव मेरी बहन रहोगी,मैं तुम्हारा सगा भाई नहीं हूँ तो क्या हुआ,किन्तु हमारे मध्य जो प्रेम है वो कभी समाप्त नहीं होगा",भूतेश्वर बोला....
"हाँ! भ्राता! कदापि समाप्त नहीं होगा हमारा प्रेम",
और ये कहकर त्रिलोचना भूतेश्वर के गले से लग गई और दोनों का प्रेम देखकर सभी की आँखें अश्रुपूरित हो गईं,तब भैरवी बोली....
"तो अब ये बात तुम अपनी धंसिका माता को भी बता दो कि तुम उनकी पुत्री हो,अब तो इस बात प्रमाण भी है,वें ये माला देखेगीं तो शीघ्र ही तुम्हें पहचान जाऐगीं",
"हाँ! यही उचित रहेगा", सेनापति व्योमकेश बोले....
और इसके पश्चात रानी कुमुदिनी धंसिका को सभी के समीप ले आई,उन सभी के समीप पहुँचते ही भूतेश्वर ने वो माला और वो राजसी वस्त्र धंसिका के हाथ में देते हुए सांकेतिक भाषा में पूछा कि.....
"ये माला आपकी है ना!",
माला देखते ही धंसिका रो पड़ी और भूतेश्वर से सांकेतिक भाषा में बोली....
"ये माला तो मेरी ही है और मेरे स्वामी इसे मेरी पुत्री को पहनाकर,उसे वन में छोड़ आए थे,किन्तु ये माला तुम्हें कहाँ मिली?"
तब भूतेश्वर त्रिलोचना को उनके समक्ष लाकर सांकेतिक भाषा में बोला....
"ये आपकी वही छोटी कन्या है ,जो अब बड़ी हो गई है,ये माला इसके गले में थी,ये मेरे पिता को वन में मिली थी,इस वस्त्र में लिपटी हुई",
ये जानकर धंसिका प्रसन्नता के मारे फूट फूटकर रो पड़ी और त्रिलोचना को अपने हृदय से लगाकर उसने उस पर चुम्बनों की बौछार कर दी,धंसिका का मातृत्व देखकर त्रिलोचना भी शान्त ना रह सकी और वो भी अपनी माँ के हृदय से लगकर अत्यधिक रोई,जब दोनों माँ पुत्री का रोते रोते मन भर गया तो तब रानी कुमुदिनी ने सांकेतिक भाषा में धंसिका को सान्त्वना देते हुए कहा....
"देवी धंसिका! आप आपको दुखी होने की आवश्यकता नहीं है,अब आपकी पुत्री आपको मिल चुकी है"
तब धंसिका ने रानी कुमुदिनी से सांकेतिक भाषा में कहा....
"ये पाप मेरे स्वामी ने किया था,इसमें मेरा कोई दोष नहीं",
तब रानी कुमुदिनी भी सांकेतिक भाषा में बोली....
"हम सभी को ये ज्ञात हो चुका है,आपके मामाश्री वैद्यराज धरणीधर ने आपके विषय में सबकुछ बता दिया है,इसलिए इस सम्बन्ध में हम आपसे कुछ कहना चाहते हैं",
"जी! कहें कि आप क्या चाहतीं हैं"?,धंसिका ने सांकेतिक भाषा में कहा....
और इसके पश्चात रानी कुमुदिनी अपनी सारी कहानी धंसिका को सुना दी कि किस प्रकार गिरिराज ने उनके राज्य पर अधिकार पा लिया है,क्या आप हम सभी का साथ देने हेतु तत्पर हैं,ये भी रानी कुमुदिनी ने धंसिका से पूछा....
तब धंसिका सांकेतिक भाषा में बोली कि मैं आप सभी का साथ देने हेतु तत्पर हूँ किन्तु आप सभी मुझे एक वचन दीजिए,तब सभी ने धंसिका से उस वचन के विषय में पूछा,तब धंसिका सांकेतिक भाषा में बोली....
"मैं आप सभी का साथ दूँगीं,किन्तु आप में से कोई भी मेरे स्वामी और पुत्र की हत्या नहीं करेगा"
अब धंसिका के इस वचन का पालन करना तो सभी के लिए कठिन था,किन्तु सभी ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा कि वें उनके पुत्र और स्वामी को कोई भी हानि नहीं पहुँचाऐगें,इस बात से धंसिका अति प्रसन्न हुई और जब भैरवी पूर्णतः स्वस्थ हो गई तो धंसिका अपने मामाश्री धरणीधर की आज्ञा लेकर उन सभी के संग वैतालिक राज्य आ गई,अभी उन्हें वैतालिक राज्य आए कुछ ही समय हुआ था और तभी एक रात्रि उन सभी से मिलने, अचलराज, कालवाची और वत्सला आएँ,तब कुमुदिनी ने धंसिका का सभी से परिचय करवाया और ये भी बताया कि त्रिलोचना ही देवी धंसिका की पुत्री है,ये बात जानकर वें तीनों भी अत्यधिक प्रसन्न हो उठे,ऐसे ही वार्तालाप के मध्य धंसिका ने अचलराज से सांकेतिक भाषा में पूछा....
"तुमने मेरे पुत्र को देखा है कभी,अब कैसा दिखता है वो?",
तब कालवाची बोली....
"देवी धंसिका! मैनें देखा है उसे,आपका पुत्र अत्यधिक सुन्दर है बिल्कुल आपकी भाँति,किन्तु उसका आचरण अपने पिताश्री की भाँति है,वो क्रूर,व्यभिचारी एवं विलासी है"
कालवाची की बात सुनकर देवी धंसिका निराश हो उठी,उसे निराश होता देख अचलराज बोला....
"आप चिन्ता ना करें,माता धंसिका! मैं हूँ ना! मैं उसे सही मार्ग पर ले आऊँगा"
अचलराज की बात सुनकर देवी धंसिका के मुँख पर मुस्कुराहट आ गई....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....