प्रेम गली अति साँकरी - 83 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 83

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अपनी बारी की प्रतीक्षा में चारों ओर का जायज़ा लेती मेरी आँखें वापिस लौटकर बार-बार उत्पल के चेहरे पर ठहर जातीं जिसका चेहरा क्या और सभी की तरह केवल आँखें खुली हुई थीं | उसकी उन उत्सुक आँखों को हर बार मैंने अपने ऊपर टिका हुआ ही पाया | मुझे लगा मैं कितनी दोगली थी, मैं देखूँ तो क्षम्य और वह देखे तो अक्षम्य ! गुनाह ! ये भला क्या बात हुई मैं भी न ! वास्तव में मुझे अपने ऊपर अजीब सी कोफ़्त हो आई | ऐसा होना चाहिए क्या? एक ही बात के लिए अगर मैं उसे गलती या फिर गुनाह तक कह रही थी तो उसकी सज़ा दोनों के लिए अलग-अलग?

व्यर्थ की बातें सोचने में ही तो इंसान अपना जीवन खो देता है, मैं वहाँ बैठी समय काट रही थी, डिस्टेंसिंग के कारण ज़ोर से बात करना तो संभव ही नहीं था लेकिन दृष्टि पर कोई डिस्टेंसिंग नहीं थी, कहीं तक भी दृष्टि फेंक लो, जहाँ तक या फिर जिस पर भी मन चाहे | और तो कोई ऐसी चीज़ थी नहीं जिस पर दृष्टि पड़ती तो अच्छा लगता | 

हाँ, वहाँ से बैठे हुए मुझे सामने के एक कमरे के हरे पर्दे हिलते हुए दिखाई दे रहे थे | दूर था कमरा लेकिन इतना भी नहीं कि भीतर की हलचल का आभास न हो सके | कुछ देर पहले ही उस कमरे में दो लोग अंदर गए थे जिनके मुँह पर मास्क व हाथों में दस्ताने थे | उनके हाथों में एक चीज़ और थी, वह जैसे कोई टिफ़िन जैसा था---जैसे खाने या नाश्ते का डिब्बा | शायद उदर पूर्ति के लिए गए होंगे, और तो क्या?बेचारे ! न जाने कितनी देर से और कितने दिनों से इस वातावरण में अपना कर्तव्य निभा रहे होंगे | जिंदा रहते पेट तो अपने समय पर मांग करता ही है | 

कुछ देर बाद शायद वे खा चुके थे क्योंकि मैं जहाँ बैठी थी, वहाँ से हिलते हुए पर्दों के बीच से उन्हें क्रॉस करके  कमरे के दूसरी ओर जाते देखा था | मेरे अनुमान से उधर की तरफ़ वॉशबेसिन होगा जहाँ वे दोनों खाने के बाद शायद हाथ मुँह धोने गए होंगे | लगभग 2/3 मिनट बाद ही मैंने उन्हें देखा, वे एक-दूसरे के आलिंगन में थे और शायद---मुसीबत यह थी कि मैं जहाँ बैठी थी वहाँ से उस हरे पर्दे वाले कमरे के कई व्यूज़ दिखाई दे रहे थे | मेरी दृष्टि उत्पल की ओर से हटकर उस कमरे के भीतर प्रवेश करने की जैसे चुगली खा रही थी | ये कुछ ऐसे ही नहीं हो गया जैसे हमारे संस्थान की सड़क के उस पार वाले लोग अपने घरों में से उचक-उचककर दूसरों के घरों में ताका-झाँकी करते रहते थे और मैं उन्हें देखकर बहुत मुँह बनाती थी, भला-बुरा कहती रहती थी | आज में क्या कर रही थी, वही न ! वैसे क्या मैं अपने कमरे की खिड़की से ताक-झाँककर उस मुहल्ले को नहीं देखा करती थी?अचानक मैंने हिलते हुए पर्दे की ओट में उन दोनों को एक-दूसरे से ऐसे लिपटे हुए देखा जैसे न जाने कितने दिनों के बाद उन्हें साथ मिला हो | मैंने खिसियाकर अपनी दृष्टि उधर से घुमा ली जो अनजाने ही फिर से उत्पल की आँखों पर जा ठिठकी जो पहले की तरह ही मुझ पर चिपकी थीं | मन में यह विचार तो बार-बार उठ रहे थे कि हरे पर्दे के कमरे वाले उन दोनों प्रेमियों के लिए कोविड का खतरा नहीं था क्या? लेकिन यह बात मेरे मन में ही चक्कर काटती रही | 

कुछ देर में हमारा टीका लगाने का नं आ ही गया और मेरा ध्यान वहाँ से हट गया | इतनी भीड़ भी नहीं थी फिर भी हम काफ़ी देर बैठे थे | टीका लगवाने दूसरे सटे हुए कमरे में जाना होता था | हमें एक-एक करके नाम से पुकारा गया | पहले मुझे बुलाया गया था | उत्पल अपनी कुर्सी से उठकर मेरे समीप आया;

“घबरा तो नहीं रही हो?” उसकी आँखें मुस्कान से भरी थीं जैसे किसी छोटे बच्चे को छेड़ने की कोशिश कर रहा हो | 

“धत्त---पागल हो क्या ?” मुझे उसके बचकाने प्रश्न पर हँसी आ गई | 

“अरे भई, कई लोगों को देखा नहीं टीके का रिएक्शन हो जाता है | अगर ऐसा कुछ है तो डॉक्टर से पूछकर मैं साथ आऊँ?”

इतनी देर में दुबारा मेरा नाम पुकार गया और उसकी ओर घूरकर मैं उस टीके वाले विशेष कमरे में चली गई | जाते-जाते दृष्टि उस हरे पर्दे वाले कमरे की ओर उठ गई जहाँ अब शांति थी | मन में अभी तक वह हिलते पर्दे के पीछे की सरसराहट उधम मचा रही थी | ऐसी बातों की तरफ़ इंसान का मन कितनी जल्दी जाता है और न जाने कितने लंबे समय तक भटकता रहता है! मैं बाहर आई तो उत्पल की आँखों ने पूछा कि सब ठीक है न? मैंने हल्की सी मुस्कान फैलाकर बिना शब्दों के उसे उत्तर दे दिया जैसे उसकी आँखों ने मुझसे पूछा था | फिर उसे बुलाया गया, वह ऐसे अकड़ता हुआ गया जैसे न जाने कितना पहलवान हो और लम पर जा फराह हो | मेरा मन किया मैं बुक्का फाड़कर हँस दूँ लेकिन वह सही जगह नहीं थी | कुछ ही देर में वह टीका लगवाकर बाहर आ गया | रिसेप्शन पर कुछ फॉरमैलिटीज़ करनी थीं | उन्हें पूरा करके हम बाहर निकल आए | 

हमें अम्मा-पापा के स्ट्रिक्ट ऑर्डर्स थे कि अभी कहीं बाहर नहीं जाना है, सीधा सेंटर से घर ही वापिस आना है | उत्पल तो उत्पाती था ही, आज तो मेरा मन भी हो रहा था कि संस्थान में बंधे हुए कितना लंबा समय हो गया है, बाहर निकले हैं तो एक चक्कर मारना तो बनता है किन्तु चारों ओर ढके हुए चेहरे और सिर, ऊपर से भयभीत आँखों को देखकर मन मारना बेहतर था | आज तो उत्पल ने कुछ कहा भी नहीं था शायद इसीलिए मेरा मन और भी अधिक कलाबाज़ियाँ खा रहा था |