प्रेम गली अति साँकरी - 84 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम गली अति साँकरी - 84

84—

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वैसे ठीक ही था सब, अचानक उत्पल ने कहा कि अगर सब कुछ ठीक होता तो इतने लंबे समय के बाद एक लॉंग ड्राइव तो बनती थी | लेकिन पापा-अम्मा की अवज्ञा हममें से कभी करने की कोई सोचता तक नहीं था, करने की बात तो दूर रही, हममें से कोई सोच भी नहीं सकता था कि उनकी कही हुई बात को काट दिया जाए | कभी-कभी पापा-अम्मा इस बात का जिक्र करते भी थे और वे ही क्या मौसी के परिवार में, मित्रों में, संस्थान से जुड़े सभी लोगों को यह बात बहुत अच्छी लगती थी और अपने परिवारों में हमारे परिवार को एक आदर्श रूप में स्वीकार कर लिया गया था | जो लोग संस्थान से जुड़े थे वे जैसे कभी छोड़कर जाना ही नहीं चाहते थे | 

हालाँकि दिल्ली में अब कई और भी संस्थान खुल चुके थे जहाँ काफ़ी बड़ी संख्या में सब कलाएँ सिखाई जा रही थीं लेकिन वहाँ के कई विभिन्न क्षेत्रों के कलाकार गुरुओं ने वहाँ से छोड़कर हमारे संस्थान में आने की इच्छा ज़ाहिर की थी, स्थान खाली होने पर उन्होंने यहाँ जॉयन भी किया था और वे बड़े संतुष्ट और प्रसन्न भी थे | कला के छात्र/छात्राएँ भी संस्थान दूर होने के बावज़ूद हमारे यहाँ आने में रुचि लेते थे | 

“दिल बड़ा कीमती होता है साहब, इसमें उसी को रखना चाहिए जो रखने के लायक हो साब!”एक दिन बातों बातों में महाराज बोले | खाना खिला रहे थे, अचानक ज जाने कहाँ से दर्शन का बुलबुला फूटा उनके मन में | 

“क्या हुआ महाराज?ऐसा क्या हो गया?” पापा ने पूछा, अम्मा और मैं भी उनका मुँह देख रहे थे। हमें नहीं पता था कि उत्पल डाइनिग के दरवाज़े पर पहुँच गया था | 

“बिलकुल ठीक कह रहे हैं महाराज आप---” वह अंदर आ चुका था | 

“लीजिए, एक और पहुँच गए आपके हिमायती---पहले बताओ तो हुआ क्या है?”

“अब बस, बंद कर दीजिए साब, इस तरह सब पर लुटा देना---इस लायक ही नहीं हैं लोग | ”

“अरे भाई, कुछ बताओगे नहीं तो तुम्हारी इतनी ऊँची बात समझ में कैसे आएगी?” पापा ने कहा फिर उत्पल की ओर मुड गए---

“आओ, लंच कर लो उत्पल, वैसे इधर कैसे इस समय?और हाँ ये गोल-गोल क्या बात हो रही है। कुछ बताओ तो----”

उत्पल सुबह ही अम्मा-पापा से गुड मॉर्निंग कर जाता था | आजकल वह लंच की जगह केवल सूप और सलाद ले रहा था जो महाराज उसके चैंबर में ही पहुंचवा देते थे | कोविड के बाद वह एक सदस्य ही तो हो गया था परिवार का। जिसको जो चाहे वह मिल जाता था | इसलिए सब आराम से रह रहे थे | 

“सॉरी, मैं भूल गया, आज थोड़ी बहू की तबियत ढीली है इसीलिए घरवाली उसके पास बैठी है, बिटिया मेरा काम में हाथ बंटा रही थी, इसीलिए दिमाग से उतर गया | अभी भेजता हूँ | ”कहकर वे जल्दी से बाहर निकल गए | 

“कमाल हैं ये महाराज भी! यहाँ का खाना तो पूरा होने देते---”उसने आश्चर्य से कहा और उसकी दृष्टि  तेज़ी से जाते हुए महाराज की पीठ का पीछा करने लगी जो क्षण भर में ही ओझल हो गई थी | 

“यहाँ तो सबका हो चुका----” अम्मा बोली | 

हम सब पशोपेश में बैठे एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे थे कि आखिर ऐसा हुआ क्या था जो महाराज दुखी हो रहे थे और ये उत्पल साहब भी उनकी हाँ में हाँ मिला रहे थे? और अब आखिर इतनी तेज़ी से भागकर कहाँ चले गए थे महाराज?

“आज तुम्हारा लंच ---यानि सूप, सलाद नहीं पहुंचा क्या?” अम्मा ने अचानक पूछा | 

“जी , आज सिर कुछ भारी सा लग रहा था इसलिए मैंने ही महाराज को मना किया था लेकिन एक कॉफ़ी की इच्छा हो रही थी, उन्हें फ़ोन किया था फिर लगता है वो पशोपेश में भूल गए | 

“ऐसी क्या दिक्कत आ गई जो उनका मूड इतना खराब है और तुम भी----हुआ क्या है?” पापा को एक बार किसी बात को जानने की उत्सुकता हो जाती तो जब तक वे उसे जान न लेते, उनका मन संतुलित न हो पाता इसीलिए वे सबकी सहायता करने के लिए किसी के बीच में भी छलाँग लगा लेते थे | अम्मा उनसे कुछ अधिक व्यवहारिक थीं | वो भी सबकी सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहतीं लेकिन पापा तो कुछ सोचते ही नहीं थे और कृष्ण बनकर हर सुदामा को राजा बनाने पहुँच जाते | 

“अरे भई, बात स्पष्ट करेगा कोई ?” उन्होंने अपने स्वभाव के विपरीत कुछ खीजकर कहा था | 

“ये आपकी कॉफ़ी----”महाराज ने कॉफ़ी का मग उत्पल के सामने रख दिया | 

“हम ही बताएंगे साब, इनको भी हमने ही तो बताया है----”महाराज हाँफ रहे थे | 

“ठीक है, बताओ---”

“आप जो इन सड़क पार के लोगों पर इतनी दया दिखाते हैं न , ये इस लायक हैं नहीं | ”

“हुआ क्या है?”पापा को कुछ तो समझ आने लगा था लेकिन वास्तव में क्या हुआ जो दिल-विल की बात आ गई बीच में ?” पापा ने हँसकर पूछा | उन्हें समझ में आ गया था कि उनके विरुद्ध किसी ने महाराज के सामने कुछ कह दिया है और महाराज दुखी हो गए हैं | 

“बस---अब बहोत हो गया कोविड का दान—अब नहीं बनाएंगे हम इनके लिए खाना?”अपने गमछे से उन्होंने अपने मुँह को पोंछा और उत्पल की ओर देखने लगे | फिर बोले ;

“हमने बताया उत्पल साब को, इनके लिए जितना कर लो, सब बेकार | ऐसे पानी फेर देंगे सबपे के बस-----”

हमारे महाराज और उनका परिवार बहुत शांत प्रकृति के थे और पापा के आँख के इशारे से सब बात समझ जाते थे लेकिन इस समय तो पापा उनका मुँह ताक रहे थे | बात अभी भी क्लीयर नहीं हुई थी | 

“किसी ने कह दिया कि संस्थान के साहब कोई बहुत बड़े आदमी नहीं हैं, दिखावा करते हैं भले बनने का  | वो तो उनके पास इतना पैसा है कि उन्हें समझ में नहीं आता कि आखिर खर्च कहाँ करैं, इसीलिए तो इधर-उधर सदाबरत करवाते फिरते हैं, किसी को बुला के ईस्कूल में रख लेंगे | भला बताओ, इत्ता पैसा है तो दूसरों पै लुटा रए हैंगे, लौंडिया का ब्याह न करौ जावै---‘ ”बताते –बताते महाराज की आँखों से आँसु निकलकर गालों पर बहने लगे थे | 

“कमाल है महाराज ! खोदा पहाड़, निकला चूहा----न—न चुहिया !! अरे इसमें क्या बड़ी बात हो गई? जितनी सोच होगी उतनी ही तो बात बोलेगा इंसान ! छोड़ो, इस बात को, यह कोई नई बात है क्या?” पापा अपने स्वभाव के अनुसार ठठाकर हँस पड़े थे, अम्मा भी मुस्करा पड़ीं | पापा के लिए इन सब बातों का कभी भी कोई मतलब नहीं रहा था | खाना हो चुका था, पापा हाथ धोने के लिए कोने के बेसिन की ओर चल दिए थे | 

हाथ धोकर नैपकिन से हाथ पोंछते हुए उन्होंने महाराज से पूछा ;

“अब उनके लिए खाना नहीं बनाओगे ?”वे अब भी मुस्करा रहे थे  | 

“बिलकुल नीं साब, हो गया सब, यहाँ जाने कितना हजारों---लाखों का राशन-पानी आ गया, बनाते-बनाते हम चकनाचूर हो गए और ये-----” कहते कहते वो बाहर की तरफ़ चल दिए | यह तो सच ही था कि महीनों से पूरे मुहल्ले का खाना बनाकर महाराज और उनके परिवार का दम आधा हो चुका था | कई बार मैं और अम्मा भी रसोईघर में जाते और उनसे कहते कि हमें भइओई ऐसे समय में उन सबकी सहायता करनी चाहिए लेकिन वे तो ठहरे हमारे महाराज, दादी के ले हुए, उम्र होती जा रही थी पर मज़ाल जो हम लोगों को ज़रा किसी काम को छूने भी दें तो?

“एक बात बताइए, अगर तुम्हारी अमी दीदी की शादी किसी ऐसे घर में हुई जहाँ उसे कुछ खान-पीना बनाना पड़े तो क्या करोगे? उसे कुछ तो सीखना चाहिए | ”अम्मा कहतीं | 

“आप भी---हमारी अमी दीदी ऐसे घर में क्यों जाएंगी भला? हमारे जैसे जाने कितने नौकर इनके आगे-पीछे घूमेंगे---आप भी न !”मेरे लिए कोई कुछ भी कहता वे नाराज़ हो जाते | मेरी और उनके बेटे रमेश की पटती भी बहुत थी | जो कुछ उसके मन में होता, बिना झिझक के मुझसे शेयर कर लेता | 

गर्ज़ यह कि महाराज उनके परिवार ने हमें कभी हाथ तक नहीं लगाने दिया था | हाँ, यह बात तो थी कि उनके पास सहायकों के रूप में काफ़ी लोग हो गए थे लेकिन फिर भी------और आज तो वह जिस मूड में थे, उसमें हममें से उन्हें किसी ने कभी देखा ही नहीं था | 

“ठीक है, मत बनाना ----बस ? हमारे लिए तो बनाओगे न या वो भी ----?” पापा ने हँसकर पूछा  | महाराज खिसिया गए;”क्या साब !”

“अच्छा, जाओ खाना तो खा लो तुम्हारे लिए सब बैठे होंगे | ”पापा ने कहा और हम सब वहाँ से डिस्पर्स हो गए थे |

मुझे याद आ गया था कि श्रेष्ठ के मन में भी तो कुछ ऐसी ही बात थी, उससे कितनी बार मेरे से झड़प सी भी हो गई थी |