बैकबेंचर Anand Tripathi द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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बैकबेंचर

राहुल राहुल,
नीचे बैठ जा
मैम ने कहा है।
तुम दोनो बाहर से अंदर आ जाओ।
मॉनिटर की कर्कश आवाज़ में कोई फनकार ही नही था। जैसे मानो फटा ढोल लगातार बजे जा रहा हो। सुबह सुबह विद्यालय क्या जाना होता था। मानो एक तांडव करना होता था। बस यूं समझिए की जैसे तैसे 12वी कक्षा को क्रॉस करना था।
हर दिन एक बस्ता और एक ही शक्ल के लोग जिनसे रूबरू होना एक युद्ध था।
मैं तो लगातार चार साल तक एक ही सड़क से सुबह विद्यालय और शाम को घर जाना।
पीटीआई की मार, नेल, शूज,ड्रेस,लेट लतीफ होने पर, यहां तक कि किसी से इशारे भी करने पर हमारा पीटीआई आता और दो लगा जाता था।
मुझे कई बार आभाष होता था। की शायद इसके बचपन में बहुत यातना सही होंगी। इसके गुरु ने इसे तबियत से मारा होगा। इसीलिए इसने प्रण लिया होगा। की बड़े होकर अध्यापक बनकर मैं भी धौंस जमाऊंगा।
मैं और मेरे मित्र या तो विद्यालय में लेट या जल्दी आ गए तो सुबह सुबह नीचे न आने के लिए कक्षा में झाड़ू लगाने का बहाना ढूंढते थे। जैसे मानो वो ही स्वच्छ सन्देश देने को उतावले हो रहें हैं।
क्युकी हमारे नीचे न जानें की एक ठोस वजह थी।
जो की हमारी चीजों में कमी होना। कुछ न कुछ कम ही रहता था। और इसलिए पीटीआई के डर से नहीं जाते थे।
और अगर गए भी तो पीछे ही लाइन में कोने में खड़े हो जाते थे।
मतलब विद्यालय में तिहाड़ जैसे अनुभव रहता था।
लाइन में चलो, लंच का एक समय , छुट्टी का समय , प्रार्थना का समय, एक दम शासन में सब कुछ था।
विधार्थी से ज्यादा कैदी की हालत अच्छी ऐसा प्रतीत होता था।
मेरे कक्षा में एक बच्चा था जो की पूरे साल एक ही कॉपी में 7 विषय पढ़ लेता था। हालांकि हमारे मित्रो की सूची में उसका नाम भी है। 😂
हम सब खूब उधम मचाते थे। अध्यापक के नाम करण करते थे। चिल्ड्रन बैंक खोला करते थे।
दूसरे का लंच अगर अच्छा है , तो फिर वो लंच समझो गया उस बेचारे के हाथ से 😂
स्कूल में मिड डे मील छोटे बच्चो के लिए आता था। लेकिन छोटे बच्चो से दोस्ती करके हम मंगवा के खाते थे। 😂
दीवाल से कूदते वक्त मेरी शर्ट फंस गई थी। मुझे आज भी याद है।
और प्रिंसिपल ने मुझे झाड़ू वाले भैया से कहकर नीचे उतारा था। और दो लगाया था।
9th में जब पहली बार सरकारी में गया तभी लगा था की यहां पढ़ाई के इलावा सब कुछ होता होगा।
सबसे पीछे सभी बेंचेज को जोडकर एक बेंच बनाते थे हम यार।
और सबका बैग एक कोने में रखकर पूरी सीट को
चित्तौड़ का किला समझते थे।
टीचर कोई भी हो। क्लास खत्म होते ही वो हमे धोना शुर करता था।
ऐसा कोई दिन नही था। की हम साफ न किए जाए। 😂
मेरे दोस्त मूली खूब खाते थे। और इल्जाम दूसरो पर लगाते थे।
चलती क्लास में अचानक चार काग़ज़ के जहाज़ हवा में कैसे आए इसपर बात प्रिंसिपल तक पहुंच गई। लेकिन किसी को पता न चला।
मार लड़ाई झगड़ा फितूर, यारी दोस्ती।, सब था सिर्फ पढ़ाई नही थी।
बैक बेंचर स्टेज पर तभी जाते थे। जब कोई मुदा बहुत बढ़ गया हो।
अपनी एक अलग दुनिया थी। बैग में तो सब मिल जाता था। सिर्फ किताबे नही।
ख़्वाब परिंदो के ऊंचाई से भी बड़े।
और मेहनत कीड़े जितने भी नही।
फेकने में उस्ताद,
मार पिटाई में उस्ताद।
जो खेल ब्रम्हा की शब्द कोष में न था। वह हमने इजाद किया।
पीछे बैठने वाले आगे वाले से कमज़ोर होते हैं।
ऐसे कहने वाले आज वही रह गए।
लेकिन जो कभी पीछे बैठे वो आज कही दूर निकल गए।
कलाम साहब, गणेश शंकर विद्यार्थी,
और मेरे दोस्त

Thank you।