वजूद - 18 prashant sharma ashk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वजूद - 18

भाग 18

उधर शंकर रोज चौकी पहुंचता था और सफाई कर गांव का चक्कर लगाने आ जाता था। यहां भी लोग उसे काम देते वो काम करता कोई उसे पैसा देता और कोई कुछ खाने-पीने का देकर उसे रवाना कर देता। शंकर इसे भी गांव के लोगों का प्यार सही समझ रहा था। हालांकि वह यह नहीं समझ पा रहा था कि गांव वाले अब उसके लिए बदल गए हैं, उनकी सोच में परिवर्तन आ गया है। यह बात वो इंस्पेक्टर समझ रहा था इसलिए वो शंकर को लेकर परेशान भी था। आखिर उसने एक दिन कलेक्टर से मिलने का निश्चय किया। एक दिन वह कलेक्टर ऑफिस पहुंच गया।

कलेक्टर इंस्पेक्टर अविनाश। आओ आज यहां कैसे, कोई विशेष काम है क्या ?

सर विशेष क्या बस आपसे एक निवेदन करने के लिए आया था। इंस्पेक्टर ने कलेक्टर से कहा।

हां, बताओ।

सर आप तो जानते ही है कि गांव में आई बाढ़ ने सब कुछ तबाह कर दिया था। कई लोगों ने ना सिर्फ अपने घर खो दिए बल्कि कई अपनों को भी खो दिया था।

हां बहुत बुरा हाथ हुआ था उस गांव का तो। कलेक्टर ने इंस्पेक्टर की बात पर सहमति जताई।

उस हादसे में पीड़ितों को सरकार की ओर सहायता राशि के लिए दो-दो लाख रूपए भी प्रदान किए गए थे।

हां हमने तीन महीने पहले ही वह राशि पीड़ितों में वितरित करा दी थी।

सर, उन पीड़ितों में एक लड़का है। उसका पूरा घर उस बाढ़ में बह गया था। उसी हादसे में उसने अपने भैया भाभी को भी खो दिया था। वो बहुत ही सीधा लड़का है। उसके पास उसकी पहचान को कोई कागज नहीं होने के कारण उसे वो राशि नहीं मिल पाई है।

ओह यह तो ठीक बात नहीं है। कलेक्टर ने भी अफसोस जाहिर किया।

यदि आप इस मामले में कुछ कर सकते हैं तो उस लड़के का जीवन सुधर जाएगा। फिलहाल वह सड़कों पर रहता है और लोगों के घरों पर काम करके अपना पेट भर रहा है।

देखो मैं आपकी बात समझ रहा हूं पर इस मामले में मैं भी कुछ नहीं कर सकता हूं। सरकार के पास वो रिकॉर्ड पहुंचाना है, जिन्हें राशि प्रदान की गई है। अब यह सरकारी काम है, जिसके बारे में आप भी बेहतर तरीके से जानते हैं। कलेक्टर ने इंस्पेक्टर से कहा।

जी, सर समझता हूं। इसलिए ही आपके पास आया हूं कि कोई तरीका हो, जिससे उस लड़के को राशि मिल सके।

अगर कुछ तरीका होगा तो मैं तुम्हें जरूर बताउंगा। कलेक्टर ने कहा।

थैक्यू सर। अब मैं चलता हूं।

वैसे थैक्यू तुम्हें कहना चाहिए कि तुम एक अजनबी के लिए इतना प्रयास कर रहे हो।

मैं तो बस इतना चाहता हूं सर कि उस लड़का का जीवन फिर से पटरी पर आ जाए। आप जानते हैं सर यहां के बाबू ने उसे एफआईआर लाने को कहा तो मेरे पास एफआईआर लेने के लिए चला आया था। उसे तो यह भी नहीं पता कि एफआईआर होता क्या है। एफआईआर लिखवाने के लिए उसने एक दुकान से समोसे चुरा लिए और मुझसे जिद करने लगा कि उसने चोरी की है अब मैं उसे एफआईआर दे दो।

ओह, यह लड़का तो बहुत ही सीधा मालूम पड़ता है। इंस्पेक्टर इस लड़के के लिए मेरे बस में जो होगा वो इसके लिए करूंगा। वैसे मेरे अधिकारी क्षेत्र में है कि मैं उसे 20 हजार रूपए की आर्थिक सहायता दे सकता हूं। तुम चाहो तो उसे कल लेकर आ जाना फिर मैं उसे वो राशि जारी कर दूंगा।

इसके लिए बहुत धन्यवाद सर। पर सर 20 हजार में कुछ होना नहीं है, उसका घर भी नहीं बना पाएगा।

हां ये तो हैं। ठीक है मैं पूरी कोशिश करूंगा कि उस लड़के को वो राशि जल्दी से जल्दी मिल जाए।

इसके बाद इंस्पेक्टर वहां से चला जाता है। पुलिस चौकी आना, गांव जाना, छोटे-मोटे काम करना, कुछ मिल जाए तो खा लेना और फिर रात को सो जाना। बस यही शंकर की दिनचर्या बन गई थी। इधर इंस्पेक्टर से जितनी अधिक संभव हो वह शंकर की मदद कर रहा था, परंतु शंकर को स्थाई तौर पर उसकी परेशानियों से निजात नहीं दिला पा रहा था। हालांकि शंकर को अभी और संघर्ष करना था शायद। इसलिए एक दिन इंस्पेक्टर अविनाश का तबादला उस चौकी से शहर के एक थाने पर कर दिया गया। इंस्पेक्टर अविनाश को वहां से जाना पड़ा। अविनाश की जगह आए दूसरे इंस्पेक्टर ने शंकर का चौकी में आना बंद करा दिया। अब शंकर के पास रहने का भी ठिकाना नहीं बचा था। वह कभी गांव में बने मंदिर में तो कभी किसी गौशाला में या कभी कभी गांव की सड़क पर ही अपनी रात गुजारता था। दिन गुजरने के साथ ही शंकर की हालत भी बिगड़ती जा रही थी। वो कभी पुलिस चौकी जाता भी तो उसे इंस्पेक्टर अविनाश नहीं मिलता था। वहीं गांव के लोगों का रवैया भी उसके लिए पूरी तरह से बदल गया था, अब वो उसे सिर्फ अपने काम के लिए याद करते थे और काम निकल जाने के बाद उसे ऐसे ही जाने देते थे। हालांकि शंकर अब भी गांव के लोगों को अपना ही मानता था और पहले की तरह ही उनके किसी भी काम के लिए हमेशा हाजिर रहता था।

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