वजूद - 11 prashant sharma ashk द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वजूद - 11

भाग 11

पर.... गोविंद राम कुछ कह रहे थे उससे पहले ही उसे व्यक्ति ने प्रधान को रोकते हुए कहा- पर नहीं प्रधान जी दस्तावेज। बिना दस्तावेज के मैं राशि नहीं दे सकता।

पर इसके पास कोई दस्तावेज नहीं है। प्रधान ने एक बार फिर कहा।

पहचान का दस्तावेज तो देना होगा प्रधान जी। मेरी भी नौकरी का सवाल है। कोई छोटी रकम तो है नहीं किसी गलत व्यक्ति को दे दी और जांच बैठ गई तो मैं इतनी बड़ी रकम कहां से भरूंगा ?

पर किसी के पास कोई दस्तावेज हो ही ना तो। प्रधान ने फिर कहा।

प्रधान जी कोई तो दस्तावेज होगा, आधारकार्ड, वोटर कार्ड, आपने कोई दस्तावेज बनाया हो, कोई एफआईआर हुई हो, स्कूल का कुछ होगा।

एफआईआर ? साहब ये तो गांव का सबसे सीधा सादा लड़का है। लड़ाई-झगड़ा या अपराध से इसका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है। प्रधान ने कहा।

प्रधान जी यह राशि में मैं ज्यादा से ज्यादा तीन महीने तक अपने पास रख सकता हूं। इसके बाद यह राशि फिर से सरकार के पास चली जाएगी। 3 महीने में इस लड़के का कोई भी पहचान संबंधी दस्तावेज ले लाइए और राशि ले जाइए। मैं आपके लिए सिर्फ इतना कर सकता हूं कि तीन महीने तक यह राशि सरकार को वापस नहीं करूंगा, वरना आदेश तो यह है कि जो राशि बचती है वो तुरंत सरकार को वापस कर दी जाए।

ठीक है मैं कुछ करता हूं, प्रधान ने कहा।

फिर वो व्यक्ति अपना बैग लेकर चला गया। शंकर प्रधान को देख रहा था, फिर प्रधान ने कहा-

मैं कुछ करता हूं शंकर, तू चिंता मत कर। पंचायत कार्यालय का कुछ सामान बच गया है, उसमें और मेरे घर पर भी कुछ कागज रखे हैं उसमें तेरी पहचान का कोई ना कोई दस्तावेज मिल ही जाएगा।

इस पर शंकर ने कहा पर प्रधान जी मैं ही तो शंकर हूं। मैं क्या झूठ बोलूंगा।

मैं जानता हूं शंकर कि तू झूठ नहीं बोलेगा, पर सरकार काम का एक तरीका होता है, बस वहीं है।

पर प्रधान जी कोई कागज नहीं मिला तो ?

मिल जाएगा शंकर कोई तो कागज होगा मेरे पास। मैं देखता हूं, तू चिंता मत कर।

हालांकि गांव के सभी लोगों को राशि मिलने के बाद गांव के लोग कैंप छोड़कर दूसरी जगह बसने के लिए जाने लगे। जिसके पास जो सामान बचा था वो उसे लेकर जा रहे थे। दो ही दिन में पूरा कैंप खाली हो गया था। तीसरे दिन प्रधान गोविंदराम भी अपने परिवार के बचे हुए लोगों के साथ दूसरे गांव के लिए जा रहे थे। तभी वहां शंकर आ गया।

प्रधान जी आप भी जा रहे हैं ? शंकर ने प्रधानजी से पूछा।

जाना तो पड़ेगा, यहां रहकर अब करेंगे भी क्या ?

तो मैं कहां जाउ प्रधान जी। मेरा तो घर, जमीन जो कुछ भी है सब यही था। शंकर ने बेबसी से कहा।

बेटा अब मैं क्या बता सकता हूं, अब तुझे अपना गुजारा खुद तलाश करना होगा। प्रधान ने कहा।

पर मेरे पास तो पैसा भी नहीं है प्रधान जी, मैं कहां जाउंगा, क्या करूंगा। मैं तो गांव के लोगों के अलावा किसी को जानता भी नहीं हूं। अब आप भी जा रहे हैं, तो मैं क्या करूंगा।

प्रधान गोविंदराम के पास शंकर की बात को कोई जवाब नहीं था। उन्होंने उसके सिर पर एक बार हाथ फेरा और नजरें नीची कर वहां से चल दिए।

प्रधान जी, प्रधान जी, प्रधान काका शंकर ने आवाज लगाई पर वे नहीं रूके और आगे ही बढ़ते रहे। शंकर कुछ देर खड़े होकर उनको जाते देखता रहा फिर एक बार उसने पलटकर उजाड़ गांव को देखा। फिर भारी कदमों के साथ वो भी उसी राह पर चल दिया, जिस राह पर कुछ देर पहले प्रधान गोविंदराम भी गए थे। चलते चलते वो एक गांव में पहुंच जाता है। अब उसे भूख और प्यास लगी थी। उसके पास पैसे भी नहीं थे। इसलिए उसने एक घर का दरवाजा खटखटाया और कहा कि उसे प्यास लगी है पीने को पानी मिलेगा। दरवाजा एक बच्चे ने खोला था उसने भी शंकर को देखा और एक लोटे में उसके लिए पानी ले आया। शंकर ने पानी पिया और सिर झुकाकर वहां से आगे चल दिया। पानी से प्यास तो बुझ गई थी पर पेट भी रोटी मांग रहा था। गांव में ही एक नाश्ते की दुकान थी वो उसे दुकान के सामने खड़ा हो गया।

कुछ देर तक वो दुकान के सामने ही खड़ा रहा। दुकानदार ने उसे भूखा समझकर एक समोसा दे दिया। शंकर ने फिर सिर झुकाकर उसका अभिवादन किया और फिर वहां से आगे चल दिया। जैसे ही उसने समोसा खाना शुरू किया उसे उसकी भाभी कुसुम की याद आ गई। आखिर भूख उसके आंसूओं पर भारी पड़ गई और उसने वो समोसा खाया और फिर आगे चल दिया। रात हो गई थी और ठंड शुरू हो गई थी उसे सिर छिपाने के लिए कोई जगह नहीं मिल रही थी। उसने काफी तलाश किया पर कोई ऐसी जगह नहीं मिली जहां वह ठंड से बचते हुए रात काट सके। आखिर में उसे एक स्थान पर कुछ गाय बंधी दिखी। वो वहीं पहुंच गया। गायों पर पडे़ कंबल से उसने खुद को ढांका और एक कोने पर सो गया। सुबह उसकी नींद एक व्यक्ति के उठाने से खुली। उसने पूछा ऐ कौन हो तुम ?

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